Saturday, 24 December 2016

दो कबूतर।


जाड़े की शाम, सर्द मौसम, कोहरे से ढंका आसमान, दिल्ली की गहरी, सकरी गलियां और ऐसे वक़्त पर मेरे कमरे की छत पर आए वो दो कबूतर।
दिल्ली कबूतरों से भरा हुआ शहर है। जयपुर के बाद यह दूसरा ऐसा शहर है जहाँ शोख़ कबूतरों के संग गुफ़्तगू की जा सकती है। तमाम चौक-चौराहों और घरों की छतों पर इनका ताता लगा रहता है। उस रोज़ ऐसे ही किसी चौराहे या छत से परवाज़ भरकर वो दो कबूतर मेरी बालकनी में आ पहुंचे थे। उनकी गुटर-गूं ने मुझे अपनी ज़द में ले लिया था और मैं उन्हें पैहम ताक रहा था। ना केवल ताक रहा था बल्कि सुन भी रहा था। वे कुछ बात कर रहे थे, ज़रूरी या गैर-ज़रूरी, नहीं जानता मगर हाँ बातचीत सतत जारी थी और "गुटर-गूं" की आवाज़ में छिपी हुई थी। चंद लम्हों में ही उनसे एक दोस्ती कायम हो गई थी। यह दोस्ती सिर्फ मेरी तरफ से थी और मैं चाहता था कि उनकी जानिब से भी हो मगर इससे पहले की मैं उनकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाता वो दोनों फुर्र हो गए और साथ ही फुर्र हो गई, एक हसरत, एक चाहत, एक तमन्ना, एक उम्मीद, दोस्ती की।




उस शाम में कुछ ख़ास था,
कुछ तो इख़्तिलाफ़ था।।
आफ़ाक पर कोहरा नहीँ था,
कोहरे पर आफ़ाक था।।
राफ्ता वो ढ़ल रही थी,
वह शाम कुछ फुर्सत में थी।
मन्द-मन्द बहती फ़िज़ा में,
कोई ना कोई राज़ था।।

धुंध से सट कर खड़ी थी,
दूर एक अट्टालिका।
उससे ही शायद आ रहा था,
कुछ पंछियों का काफ़िला।।
दो कबूतर काफ़िले से,
आए उतर एक पाल पर,
और गूं-गुटर-गूं, गूं-गुटर-गूं,
का चल पड़ा एक सिलसिला।।

आपस में काफी देर ना जाने,
क्या बातें चटकाते थे।
पता नहीं था हम को लेकिन,
फ़िर भी सुनते जाते थे।।
अल्फ़ाज़ों से क्या लेना था?,
जज़्बात समझ में आते थे।
दो कबूतर शायद!, हाँ शायद!
दाना-पानी चाहते थे।।

पँख फैलाकर, गर्दन हिलाकर
जाने क्या बड़बड़ाते थे?
दाना खाकर, पानी पीकर,
अपनी पाँखें खुजलाते थे।।
झट से उड़ते, झट ठहरते,
अदृश्य कभी हो जाते थे।
इन शौख परिंदों को हम अपना,
दोस्त बनाना चाहते थे।।

तामीर की चौथी मंज़िल से,
तल का नज़ारा, ख़ौफ़ था।
पर आदतों से ढीट थे हम,
झांकना हमारा शौक था।।
फुद-फुदकते, फड़फड़ाते,
दोनों हम तक आए थे।
 लगा था हमको जैसे हमने,
दो दोस्त अनोखे पाए थे।।

उस रोज़ शम्स-ओ-चाँद दोनों,
जब आसमाँ में साथ थे।
दो कबूतर उनकी गुटर-गूँ,
और हम ज़मीं पर साथ थे।
यकदम, अचानक आवाज़ आई,
घर के भीतर, शोर से,
शोर से उड़ गए कबूतर,
ले कर गुटर-गूँ साथ में।।



Keep Visiting!

Thursday, 22 December 2016

निकलों घरों से।


"We could never have loved the Earth so well if we had no childhood in it"

-George Eliote 


A contemporary Short Poetry Specially For Children.


टीवी को तकते हो,
घरों में तुम अपने
बाहर तो निकलो, बहारें आई हैं।
मोबाइल निहारते हो, घरों में तुम अपने
खिड़कियां तो खोलो, फ़िज़ाएँ आई हैं।।


राह तकती तुम्हारी, सड़कें सुबह को,
वो बल्ला, वो बॉलें निराश पड़े हैं।
मन ही मन उड़ते हो,
घरों में तुम अपने
पंख तो फैलाओ,आसमान खुला है।।


पत्ते भी ताली बजाते हैं, सुनो तो।
परिंदे भी सुर में गाते हैं, सुनो तो।।
सुनते हो खट-पट।
घरों में तुम अपने,
मीत भी गीत सुनाते हैं, सुनो तो।।


सिक्सर्स अब लगते हैं मोबाइलों में सारे।
गोल-पोस्ट तुम्हारा, 
आई-पेड में बना है।
बाहर निकल अब दौड़-भाग मचा दो,
तुम्हारे कदमो का मैदानों को इंतज़ार बड़ा है।।


The Following Poem is Specially Written for A Teen Book "Dying To Live" Written by 
Monisha K Gumber And is Published in it. The Author is an Indian but lives in Bahrain.

The very interesting Teen book is available on Amazon.
Grab your copy now!


Keep Visiting!


Sunday, 18 December 2016

कुमार गा रहा है।

The following Poem is based on Interactions and the live show Performed by Dr. Kumar Vishwas At Indore Literature Festival 2016.


With Due Respect To Him..............



सफल कविता वह है जिसमे मुहावरा बनने की क्षमता हो.

-डॉ. कुमार विश्वास 


ज़मीं पे ये जाम ढोले जा रहा है.
फिज़ाओं में नशा घोले जा रहा है.
खल्क चहुँ ओर खड़ी है,माहौल रसिक हुआ जा रहा है
मैकशों सुनो, के कुमार गा रहा है.

अल्हड़ता से यथार्थ बतला रहा है.
बैचेनी को सबकी बहला रहा है.
कभी पलकें भिगाता, तो कभी गुदगुदा रहा है.
मैकशों सुनो, के कुमार गा रहा है.

हर दिल की कविता खुद गा रहा है.
गुल्ज़ारों से अल्फाजों को ला रहा है.
ये कौन है जो एहसासों को छुए जा रहा है.
मैकशों सुनो, के कुमार गा रहा है.

चन्द्र,रात्री से रुकने को कह रहा है.
मन, शीश से झुकने को कह रहा है.
हाथ उठते हैं महफ़िल में खुद-ब-खुद,
इनपर शब्दों से जादू किए जा रहा है 
मैकशों सुनो, के कुमार गा रहा है.

निराला को, बच्चन को पढ़े जा रहा है.
भावनाओं को गीतों में गड़े जा रहा है.
ये अनुभव है, जो अनुभूति पढ़ पा रहा है.
मैकशों सुनो, के कुमार गा रहा है.

भटकों को मार्ग दिखला रहा है
भूलों को भाषा से मिलवा रहा है.
हर व्यक्ति है मुग्ध, बस सुने जा रहा है.
मैकशों सुनो, के कुमार गा रहा है.

अल्फाजों के अमलतास और छंदों के सुन्दर पलाश 
जो मुरझा गए होकर हताश
आज उन्ही गुलों को ये गुलज़ार किए जा रहा है.
मैकशों सुनो, के कुमार गा रहा है.

आज रगों में, रुधिर से ज़्यादा
विश्वास की वाणी का असर बह रहा है
राष्ट्र की धड़कन से निस्बत है ऐसा,
के उसे भी ये गज़लों में पढ़े जा रहा है
मैकशों सुनो, के कुमार गा रहा है.

Keep Visiting!

Friday, 9 December 2016

तोहफ़ा।


कहानी माने कल्पनाओं की भूमि पर खिलता सत्यता का फूल।

-एक विचार




“बहुत जल्द, फिर आप जब चाहो फ़ोन लगा लेना, पहली आवाज़ हमेशा मेरी ही होगी.” कमलेश ने मुस्कुराते हुए कहा और फ़ोन काट दिया.

“हो गई माँ से बात, जा अब काम पे लग जा”, “माँ भोजनालय” के मालिक विनय ने अपना फ़ोन कमलेश से लेते हुए आदेश जारी किया.

कमलेश कुमावत उर्फ़ कल्लू पिछले डेढ़ साल से विनय कुशवाहा के भोजनालय में काम कर रहा था. श्याम रंग की शकल, बिखरे बाल, छोटा कद और दुबला सा तन. तेरह साल का कल्लू शहर में आया तो पढ़ने के इरादे से था मगर पिता के आकस्मात निधन, माँ की कमज़ोरी और घर की आर्थिक व्यवस्था को देखते हुए इरादों में परिवर्तन हुआ और शहर आने के ठीक 2 साल बाद से उसने भोजनालय में काम करना आरम्भ कर दिया. वक़्त गवाह है के हमेशा मजबूरियां इरादों पर भारी पड़ी हैं. हालांकि कुमावत परिवार में शिक्षा का अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ और कमलेश द्वारा छोड़े गए कार्य को उसकी आठ साल की बहन कला ने पूरा करने का निश्चय किया.
“माँ भोजनालय” के मालिक विनय कुशवाहा सिर्फ दो कामो में उस्ताद थे पहला हँसने और हँसाने में और दूसरा अपनी मटके समान तोंद को घुमाने में. उनकी इन दौनो आदतों के मेल को लोगों ने “थिरकन हँसी” नाम दिया था क्योंकिं जब भी किसी बात पर विनय भाई हँसते तो उनकी तोंद किसी नृत्यांगना की तरह थिरकती थी. पिछले डेढ़ साल में कल्लू और विनय भाई के अच्छे सम्बन्ध बन गए थे. कल्लू एक मेहनती लड़का था जिसकी वजह से विनय उसे बाकियों से अधिक पसंद करता था मगर सुलूक तो उसके साथ भी वैसा ही किया जाता था ( नौकरों वाला). कल्लू के पास अपना खुद का फ़ोन नहीं था इसलिए वो विनय के फ़ोन से ही घर पर बात किया करता था. कल्लू के गाँव में बिहारी चाचा के पास ही फ़ोन था और वे उसके घर के पड़ोस में ही रहते थे सो माँ उनके फ़ोन से बात किया करती थी.

“अरे साला! इसको हुक करना चाहिए था यार”, विनय भारत विरुद्ध दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट मैच का आनंद ले रहा था.

“इतना अच्छा जानते, समझते हैं तो खुद ही क्यों नहीं चले जाते मैदान में विनय मियां” भोजनालय के अन्दर प्रवेश करते हुए जावेद ने कहा.

“आइए आइए शायर साहब, अरे सिक्स, भाई सिक्स! शायर साहब आप तो नसीब लेकर आए हैं अपने साथ’, विनय ने अपनी ख़ुशी ज़ाहिर की.

“अरे उस बल्लेबाज़ की टाइमिंग अच्छी थी, हमारी तकदीर नहीं विनय मियां”, जावेद ने अपनी लेखन कला का नमूना पेश किया.

“हाहाहा! बेशक, बेशक” विनय ने अपनी थिरकती तोंद को सम्भाला.

“अरे कल्लू एक थाली लगाओ यार जल्दी”, जावेद ने अपना स्थान ग्रहण किया.

जावेद भोजनालय के पास ही एक रूम लेकर रहता था. वो पिछले दो सालों से विनय के यहाँ ही भोजन किया करता था और इसलिए विनय एवं कल्लू को अच्छी तरह से जानता था. उंचा कद, भूरे बाल, सूरत पर हर दम ठहरी हुई मुस्कान और सर पे टोपी पहने जावेद किसी हिंदी फिल्म के विलन से कम नहीं लगता था. जावेद शहर में प्रशासनिक सेवा अधिकारी बनने के इरादे से आया था और दिल से एक शायर था.

“नौश फरमाइए जनाब”, कल्लू ने थाली परोसते हुए कहा.

“इस हिंदी ज़ुबां पे अचानक उर्दू कैसे छा गई कल्लू खां साहब?”,अपना गिलास पानी से भरते हुए जावेद ने सवाल दागा.

“भाषा पर किसी का एकाधिकार नहीं होता शायर साहब”, कल्लू ने जीब पे रखे उत्तर को तुरंत पेश किया.

इससे पहले की जावेद कुछ कह पाता कल्लू अगला ऑर्डर लेने चला जाता है.

“विवशता ने रोक रखा है जमीं पे इसे वरना आसमान तो बेताब है ऐसे परिंदों के लिए”, जावेद मन ही मन बुदबुदाया.

जावेद कल्लू को अपने छोटे भाई सा मानता था और कभी भी उसे किसी नौकर की नज़र से नहीं देखता था. उन दोनों में गहन मित्रता थी इसलिए जावेद कल्लू की पूरी कहानी से वाखिफ था.

आफताब की किरणों ने शहर को ढँक लिया था, सड़कों पे कदमो की हलचल शुरू हो चुकी थी और वृक्षों पे बैठे पंछी उबासियाँ ले रहे थे.
हवा के झोके से कमरे की खिड़की का पर्दा बाजू होते ही सूरज की आभा कल्लू के सोते चेहरे पर पड़ी और वो झटपटा के खड़ा हुआ.

“खा जाएंगे विनय भिया तेरेको कल्लू, जल्दी निकल”, कल्लू बिना स्नान करे ही भोजनालय के लिए निकल गया.

“स्वागत है आपका सरकार, चाय लेंगे?’, विनय ने भोजनालय के अंदर प्रवेश करते कल्लू से व्यंगात्मक तौर पर कहा. गुस्सा उसके चेहरे पर साफ़ देखा जा सकता.

“माफ़ करना भिया, वो ज़रा आज थोड़ी देरी हो गई उठने में बिना नहाय ही चला आया मैं तो”, कल्लू ने बिना बोले ही बर्तन मांजना शुरू कर दिया.

“ओह! इतना बड़ा बलिदान, आपकी इस मेहेरबानी का बदला हम कैसे चुकाएंगे”, विनय ने एक बार फिर ताना मारा.

दोपहर हो गई थी, भोजनालय खाली हो चुका था. अपना सारा काम खत्म करके जब कल्लू ने विनय से फोन माँगा तो विनय ने साफ़ मना कर दिया. कल्लू का दिल बैठ गया मगर साथ ही साथ उसने निश्चय किया अब उसे जल्द से जल्द फोन लेना होगा.

आभा से भरी हुई सहर जल्द ही शाम में तब्दील हो गई.

जावेद शाम होते ही अपने घर से चाय पीने के लिए “माँ” के पास चल पड़ा. चलते-चलते उसे एहसास हुआ के कागज़ का एक टुकड़ा वो अपने साथ जेब में ही रख लाया है. उसे देखते ही उसकी नज़रें कचरे का डब्बा तलाशने लगीं और जल्द ही एक फुल्की के ठेले के पास उसे एक कुड़ादान दिखाई दिया. जावेद ने कागज़ को उस कूड़ेदान में डाला और आगे बढ़ गया. जावेद ने कदम बढाया ही था के एकाएक पीछे से आती आवाज़ ने उसे रोक लिया.

“समझदार हो?”, फुलकी वाले ने जावेद को बुलाते हुए पुछा.

“जी सूरत और सीरत दोनों से, आप बताएं क्या गफलत हो गई हमसे?”, जावेद ने आत्मविश्वास के साथ पुछा.

“जनाब जिस कचरे के डब्बे में आपने अपना कचरा डाला है ना वो हमारा है”, फुलकी वाले ने किसी सम्राट की भाँती कहा.

“अरे माफ़ करें हमे, गलती हो गई हमसे चलिए हम हमारा कचरा वापस निकाल लेते हैं”, जावेद मुस्कुराया.

“अब ये डब्बा खाली है, बिलकुल आपके दिमाग की तरह”, जावेद ने तंज कसा.

इससे पहले की फुलकी वाला कुछ कह पाता जावेद वहां से निकल जाता है.

“एक कड़क अदरक-चाय लाओ यार कल्लू”, जावेद ने कल्लू के कन्धों पर हाथ रखते हुए कहा.

“क्या बात है आज निराश नज़र आ रहे हैं शायर साहब”, विनय ने काउंटर पर हाथ रखते हुए कहा.

“कुछ नहीं आज एक मूर्ख से मुलाक़ात हो गई”, जावेद ने चाय की चुस्की लेते हुए अपनी निराशा का कारण स्पष्ट किया.

“चलिए फिर तो चाय पीजिए और तरो-ताज़ा हो जाइए”, विनय ने टीवी चालू कर ली.

“यहाँ आइए अग्निपथ के अमिताब”, जावेद ने कांच में अपनी शकल निहारते कल्लू से कहा.

“माँ से बात हुई की नहीं आज?”

“आप आज की बात कर रहे हैं एक महीना होने को आया. माँ भी इंतज़ार करती होगी”, कल्लू का चेहरा लटक गया.

“तो जाइए बात कर आइये, लीजिये हमारा फोन”, जावेद ने मुस्कुराते हुए कल्लू को अपना फोन दे दिया.

कल्लू ने धन्यवाद, शुक्रिया कहने की औपचारिकता को नज़रंदाज़ कर फ़ोन ले लिया और बिहारी चाचा का नंबर लगाया.

“हेल्लो! कौन?”, बिहारी चाचा ने मुँह से पान थूकते हुए कहा.

“हम हैं हम”

“माफ़ करना भैया हम किसी "हम" को नहीं जानते, रांग नंबर मिलाय हो तुम”, बिहारी ने स्पष्ट किया.

“अरे चाचा पगला गए हो का. हम हैं भाई, हम माने कमलेश”, कल्लू ने अपना परिचय दिया.

“अरे कमलेश!, केसन बा मोड़ा, जानत हैं माँ से बात करने खातिर फ़ोन लगाए हो मगर ऊ ना बाज़ार गई है तुम रात को लगाओ बात कराते हैं”, चाचा ने पूरी बात एक सांस में कह डाली.

“अच्छा और........कमलेश! ऐ कमलेश!, अबे काट दिए क्या???” चाचा ने फ़ोन को निहारते हुए एक और पान मुँह में ठूंस लिया.

“लीजिये आज भी बात नहीं हो सकी”, कल्लू ने जावेद को फ़ोन देते हुए कहा.

“तुम नया फ़ोन ले ही लो कल्लू”, जावेद ने फ़ोन जेब में रखते हुए कहा.

“बस इस दिवाली घर लाएंगे खुशियाँ”, कल्लू मुस्कुराया
जावेद भी हँस पड़ा.

पल भर में माहोल बदल देने की क्षमता कल्लू में कूट-कूट कर भरी थी.
जावेद और कल्लू में बातों, विचारों, विवादों का सिलसिला सतत चलता रहा. 
और आखिर वो वक़्त भी आया जिसका इंतज़ार कल्लू को बेसब्री से था. दिवाली, हिन्दुओं का सबसे बड़ा त्यौहार। रोशनी, वैभव और यश का उत्सव। त्यौहार महीने की आखरी तारीक यानि 31 अक्टूबर को था और विनय ने अपने सभी कर्मचारियों को तनख्वा के साथ-साथ दिवाली बोनस माह की शुरुआत में ही देने का फैसला किया था. सो कल्लू को पगार और बोनस मिला कर कुल आठ हजार रूपए मिले जिसमे से पांच हजार उसने गाँव भेज दिए ताकि घर पर दिवाली की खरीददारी हो सके.
घर का भाड़ा और अपने बाकी खर्चे काटने के बाद कल्लू के पास मात्र 500 रूपए रह गए. वो बेहद निराश हो गया. फ़ोन लेने का उसका सपना शायद इस वर्ष भी अधूरा रहने वाला था.

दिवाली को मात्र दस दिन शेष रह गए थे, कल्लू भोजनालय में अपना काम कर रहा था के तभी जावेद ने उसे एक चाय लाने को कहा.

“ये रही आपकी चाय शायर साहब”, कल्लू ने कहा, उसके चेहरे पर निराशा बिखरी पड़ी थी.

“तो फ़ोन कब आ रहा है कल्लू मियां”, जावेद ने चाय लेते हुए कहा.

“शायद अगले साल”, कल्लू ने अपने दुःख को मुस्कराहट के परदे से ढ़कते हुए कहा और बात पूरी किये बिना ही वहां से चला गया.

जावेद ने भी कल्लू को वापस नहीं बुलाया वो उसकी निराशा का कारण समझ गया था.

दिवाली के पांच दिन पूर्व.....

“ज़रा ऊपर आओ कल्लू, कुछ काम है तुमसे”, अपने रूम की खिड़की से नीचे झांकते जावेद ने स्टेशनरी में चाय देते कल्लू से कहा.

“क्या हो गया शायर साहब आपकी चाय भी यही ला दूँ?”, कल्लू ने सवाल किया.

“वो सब छोड़ो और ये बताओ गाँव नहीं गए दिवाली के लिए?’ जावेद ने उसे बैठते हुए कहा.

“बस आज शाम को”, कल्लू ने कहा.

“चलो फिर ये लो तुम्हारा दिवाली का नज़राना”, जावेद ने कल्लू को रंगीन पन्नी में लपटा हुआ एक डब्बा देते हुए कहा.

“ये किस लिए, इसे मैं नहीं ले सकता”, कल्लू हिचकिचाया.

“अरे बड़े भाई ने छोटे को दिया है, मैं कुछ नहीं सुनूंगा तुम्हे इसे रखना ही होगा”, जावेद ने कल्लू को समझाया.

“मगर! मगर आप तो दिवाली मनाते ही नहीं हैं, फिर दिवाली का तोहफा?, कल्लू ने मासूमियत से पुछा.

“तुम छोटे हो अभी, समझ नहीं सकोगे, फिलहाल के लिए इसे दिवाली का तोहफा नहीं ईद की ईदी समझ के रख लो”, जावेद ने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा.

“और हाँ इसे अपने गाँव जाकर ही खोलना, समझे”, जावेद ने चेताया.

कल्लू मुस्कुराते हुए वहाँ से निकल आया और शाम को अपने गाँव के लिए निकल गया. रास्ते में उसने कई दफा तोहफे को खोलने की कोशिश की मगर जावेद की बात ने बार-बार उसे ऐसा करने से रोका.

कल्लू के घर पहुँचते ही, माँ ने उसे गले से लगा लिया और बहन कला ख़ुशी के मारे नाचने लगी.

कल्लू से इंतज़ार नहीं हो रहा था, माँ से कुछ पल बात करने के बाद उसने झट से जावेद द्वारा दिए गए तोहफे को खोला.
“नया फ़ोन!!”, कला ने अचंभित होते हुए चिल्लाया.

“हाँ, नया फ़ोन”, कल्लू ने कला को गले लगाते हुए कहा और अपनी भीगी हुई पलकों को बंद कर लिया।


Keep Visiting!



Thursday, 1 December 2016

मस्जिद दूर है।

बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं, किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए.

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.

-निदा फाज़ली


किसी शहर में ईद की सुबह तड़के सात बजे....

“मौसीन!....जुबेदा कहाँ हो भाई नमाज़ का वक्त होने वाला है”, घर के बाहर तांगे की तलाश करते राशिद ने घर के भीतर आवाज़ लगाई.

आवाज़ सुनते ही ज़ुबेदा दौड़ते हुए दरवाज़े पर आई और इठलाते हुए बोली –

“अब्बा! अब्बा! बताइए तो, कैसी लग रही हूँ?”.

“बेहद खूबसूरत, किसी की नज़र ना लग जाए मेरी शहज़ादी को”, राशिद ने ज़ुबेदा को नैनों से पैरों तक निहारते हुए कहा,  “और ये तेरी अम्मी कहाँ रह गई जा जाकर उसे कह के कितना भी सज ले, उम्र कभी लौट कर नहीं आती”, राशिद ने तंज कसा.

इससे पहले की ज़ुबेदा की ज़बां ने कुछ लफ्ज़ निकलते, राशिद मियां फिर बोल पड़े-

“और ये तेरा आवारा भाई कहाँ है?, कमसकम आज ईद के दिन तो अपनी शक्ल दिखा देता, वल्लाह! इस लड़के क्या करूँ मैं?, राशिद ने तांगा रुकवाते हुआ कहा.

“ सेवेरे 4 बजे ही मैदान के लिए निकल गया था आता ही होगा, कुछ देर इंतज़ार कर लेते हैं”, मौसीन ने घर के दरवाज़े बंद करते हुए कहा.

“नहीं, आज के रोज़ मैं देरी से नहीं पहुंचना चाहता, अगर उसके मुन्तज़िर बने बैठे रहे तो नजाने कब पहुंचेंगे. तू ताला लगाकर चाबी शबाना को देदे वो उसे दे देगी", राशिद ने बगल वाले मकान की तरफ इशारा करते हुए कहा. 
शबाना पिछले कुछ सालों से मौसीन और रशीद के बगल वाले मकान में रह रही थी और मौसीन की करीबी दोस्त थी.

"चलो आओ बैठ जाओ", राशिद तांगे में बैठ गया.

अपने शौहर की बात मानकर मौसीन ने घर में ताला लगाया और चाबि शबाना को देकर तांगे में बैठ गई.

“चलो भाई मस्जिद की ओर लेलो”, राशिद ने तांगे वाले से कहा.

पूरा शहर खुशियों से सराबोर था. सुबह के 7:30 बज रहे थे मगर गलीयों में बिखरी चहल-पहल को देखकर लग रहा था मानो शाम के 7:30 बज रहे हों. नीचे फर्श की जगह लोगों के पैर नज़र आ रहे थे वहीँ अर्श को उन लाल-हरे झंडों ने ढक दिया था, भीड़ में से तांगे को निकालना भी जंग सा लग रहा था.

“अरे! भाई क्या कल पहुँचाओगे, ईद आज है कल नहीं”, राशिद ने तांगे वाले की जानिब देखते हुए कहा।

“मियां, भीड़ नहीं देख रहे हो क्या, कहो तो उड़ा के ले चलूँ” रिक्शे वाले ने मुड़कर कहा. और खुदा तो आज भी है, कल भी. जब दिल करे मिल लेना”, रिक्शे वाले ने घोड़े की नाल को खींचते हुए कहा.

राशिद मियां के ज़हन में उत्तर तो कई उमड़े मगर बत्किस्मती से वाजिब एक भी ना था सो वे चुप ही रहे।

जैसे ही तांगा गलियों के जाल से निकलकर मुख्य सड़क पर पहुंचा, ज़ुबेदा की नज़र अपने भाई उमर पर पड़ी।

“अब्बा! अब्बा! वो देखिए कौन आ रहा है”, ज़ुबेदा ने राशिद का ध्यान उमर की ओर केन्द्रित करते हुए कहा.

घुंगराले बाल, सांवला चेहरा, मट्टी भरे कपड़े और बाहों में बल्ला दबाए 16 साल का उमर अपने दोस्तों से बात करता हुआ घर की ओर जा रहा था.

“उमर, ऐ उमर यहाँ आ जल्दी”, राशिद उमर की तरफ देखते हुए चिल्लाया.

“खुदा तेरी हिफ़ाज़त करे उमर”, उमर के दोस्तों ने ठिठोली करते हुए कहा.

उमर ने बाँहों में फंसे बल्ले को हथेलियों में लिया और तांगे के पास जा पहुंचा.

“क्यों जनाब इंज़माम बनना है आपको?”, राशिद ने गुस्से में कहा.

“नहीं, सचिन बनना है” उमर ने सर झुकाते हुए कहा.
उमर की बात सुन ज़ुबेदा हंस पड़ी।

चुप! एकदम चुप!, राशिद ने ज़ुबेदा को आँखें दिखाते हुए कहा.

“संभालो,संभालो अपने शहज़ादे को, देखो कैसे ज़ुबान लड़ाता है अपने वालिद से”, राशिद ने मौसीन से कहा.

“ऐ! उमर चल जल्दी घर जा. शबाना खाला से चाबि ले लेना और तैयार होकर जल्दी से मस्जिद आ जाना हम वहीँ तेरा इंतज़ार करेंगे” मौसीन ने राशिद से नज़रें चुराते हुआ कहा.

“जी अम्मी”, उमर ने कहा और घर की और जाने लगा, के तभी राशिद ने उसे वापास बुलाया और कहा – “ये बीस रूपए रख मस्जिद दूर है तांगे से आना नहीं तो वक़्त पर नहीं पहुँच पाएगा, जल्दी जा और 9 बजे से पहले पहुँच जाना”

पैसे लेकर उमर घर की और भागा और जल्दी से तैयार होकर घर में ताला लगाने लगा. ताला लगाकर उमर अपने पैरों में मौजड़ियाँ चढ़ा ही रहा होता है की एकाएक उसकी नज़र जुनेद पर पड़ती है.

जुनेद , ग्यारह-बारह साल का बच्चा जो गली में मिट्टी के खिलौने बेचा करता था. उमर उसे अच्छे से जानता था क्योंकि मौसीन अक्सर जुनेद से ही जुबेदा के लिए खिलौने खरीदा करती थी.

“क्या जुनेद मियां आज ईद के दिन भी काम, ईदगाह नहीं जाना क्या?”, उमर ने अपनी मौजड़ियां पैरों में चढ़ाते हुए कहा।

“हाँ उमर भाई अब क्या करें करना ही होगा. अम्मी की तबियत कुछ नासाज़ है इसलिए ईदगाह ना जाकर यहीं गलियों में फिर रहा हूँ..कुछ बेचुंगा, कमाऊंगा तब ना घर पर सेंवई बनेगी”, जुनेद ने खिलौने की टोकरी को ज़मीन पर रखते हुए कहा।

“अच्छा ये कितने की है”, उमर ने टोकरी में से एक गुड़िया उठा ली.

“है तो 25रु की मगर ईद पर स्पेशल डिस्काउंट देते हुए आपको 20 में दे देंगे”, जुनेद ने अपनी मासूम आवाज़ में व्यापारियों की मानिंद कहा.

उमर ने मुस्कुराते हुए वो गुड़िया रख ली और जुनेद के हाथ में बीस रूपए रख दिए.

“शुक्रिया उमर भाईजान, अब मैं भी घर निकलता हूँ, खुदा-हाफ़िज़. और हाँ ईद मुबारक" जुनेद ने टोकरी सर पर रखते हुए कहा.

“ईद मुबारक मियां ईद मुबारक", उमर ने गुड़िया की तरफ नज़र उठाते हुए कहा.

जुनेद से बात करते-करते उमर को वक़्त का ख्याल ही नहीं रहा. 8:30 बज चुके थे और ईद की नमाज़ 9 बजे तक हो जाती है. सिर्फ़ आधा घंटा बचा था और मस्जिद तक पैदल पहुँच पाना लगभग नामुमकिन था...

अपने हाथों में गुड़िया पकड़े हुए उमर मुसलसल जुनेद को जाता हुआ देखता रहता है और जैसे ही वो उसकी आँखों से ओझल होता है उसकी नज़रें आसमान की तरफ उठ जाती हैं.

कुछ पल अर्श को निहारने के बाद उमर मन ही मन कह उठता है-

“माफ़ करना, मस्जिद वाकई दूर है....
Keep Visiting!

Saturday, 26 November 2016

हमारे शहर में।

Poetry Is More about Feelings And Less About Thoughts.

-Self

The Following Poem Do Not Contain Any Ethical, Moral, Social, Philosophical Or Motivational Message.


हमारे शहर में तो देखो,
ये कौन आया है?
नज़रों में आता नहीं जो,
फ़िज़ाओं संग इठलाया है।।

अकेला नहीं, कोई साथ भी है।
सुना है ये रातों को गरियाता भी है।।
अट्टालिकाओं के पीछे तो देखो,
वो कोहरा उसका ही पैगाम लाया है।
हमारे शहर में तो देखो,
ये कौन आया है?

सुना है निशा को इन सड़कों पर
वो दौड़ लगाता है।
इन सितारों ने मुझको कल ही,
ये राज़ बताया है।
हमारे शहर में तो देखो,
ये कौन आया है?

झूमके आता है, घूम के जाता है।
सुना है, वो इस धरा को चूम के जाता है।।
इन पत्तों, इन कलियों ने,
उसे गले लगाया है।
हमारे शहर में तो देखो,
ये कौन आया है?

शाम में आता है, सहर को छुप जाता है।
सुना है, रवि से, वो थोड़ा घबराता है।
इन मेघों ने अक्सर उसे बचाया है।।
हमारे शहर में तो देखो,
ये कौन आया है?

चाँद से तो पुराना,
निस्बत-ए-ख़ास है उसका।
रातों को अक्सर उसे,
मस्ती में पाया है।
हमारे शहर में तो देखो,
ये कौन आया है?

Keep Visiting!

Sunday, 20 November 2016

तब शहर हमारा जागा था।

वर्ष 2009 में अनुराग कश्यप द्वारा निर्देशित फिल्म गुलाल के लिए  मशहूर गीतकार और रंगमंच कलाकार पियूष मिश्रा ने एक गीत रचा था. जिसका नाम था "जब शहर हमारा सोता है" पियूष साहब ने यह गीत दिल्ली में हुए घिनोने सामूहिक बलात्कार की तर्ज़ पर लिखा था. उन्होंने बखूबी बताया के किन हालातों में एक शहर सोता रहता है. उनके लिखे उसी गीत से प्रेरणा लेकर मैंने लिखी है यह कविता जिसका शीर्षक है
"तब शहर हमारा जागा था". इस कविता की पृष्ठभूमि हाल ही में आए सरकार के एक बड़े फैसले पर रची गई है.


With Due Respect To Him...........



एक सुबह की बात बताएं, एक सुबह की
जब शहर हमारा जागा था
वो सहर गज़ब की

अरे! एक सुबह की बात बताएं, एक सुबह की
जब शहर हमारा जागा था
वो सहर गज़ब की

उस भोर परिंदे चहकें थे
उस भोर मेघ भी बहके थे
उस भोर धुंध भी छाई थी
आभा झुण्ड में आई थी
उस भोर ये गलियां
रगड़-रगड़ कर खूब नहाई रे!
उस भोर शहर में
ख़ुशी की आफत आई रे!

जिसको देखो चिंता में
कोई हल नहीं था "गीता" में
और हर मन में बेसब्री थी
घर-घर में अफरा-तफरी थी
जब बिना बात के गरिया कर
हर कोई सड़क पर भागा था
तब शहर हमारा जागा था
तब शहर हमारा जागा था

उस रोज़ ये सड़कें कापिं थीं
हर धड़कन धड़ की हांपी थीं
हर कोई खड़ा था लाइनों में
और दर्द उठा स्पाईनो में
उस रोज़ सर्द से मौसम में
धरती घबराई रे!
उस रोज़ शहर में
ख़ुशी की आफत आई रे!

छा गई घनघोर बला
और आरोपों का दौर चला
बस, ट्रेन और नुक्कड़ पर
बस इसी बात के चर्चे थे
बाजारों में ताले थे
और खर्च हुए सब खर्चे थे
जब नमो-नमो के नारों से, मुरझाया सा रागा था
तब शहर हमारा जागा था
तब शहर हमारा जागा था

उस रोज़ देश की घाटी में 
माहोल शांत सा हो गयो थो 
और बिना बात की हिंसा का भी 
तुरंत निवारण हो गयो थो 
तारो-ताज़ा हो गई जमीं और तारो-ताज़ा हुई हर दिशा 
बड़े वक्त के बाद किसी ने ऐसी चाय बनाई रे!
उस रोज़ शहर में 
ख़ुशी की आफत आई रे!

खाली जेबों वाले सारे 
मस्त चेन से सो रए थे और 
जिन पे लाल-पिला था 
वो लाल-पीले ही हो रए थे 
ईमान के बाज़ारों में 
जब बेईमान हो गया नागा था 
तब शहर हमारा जागा था 
तब शहर हमारा जागा था

Also read "jab shehar hmaaraa sotaa hai" 

by Piyush Mishra here-

http://www.hindilyrics.net/lyrics/of-Sheher....%20Tab%20Sheher%20Hamaara%20Sota%20Hai.html


Keep Visiting!

Monday, 14 November 2016

जी करता है मर जाएं।

ख़ुद में रहना कठिन है, मगर उनके लिए जो एक अरसे से खुद ही के भीतर रहते हुए खुद को निखारने में लगे हुए हैं यही अवस्था सुकून वाली है। हालांकि कुछ हद तक कठिनाई तो उन्हें भी होती है मगर एक सर्जक के लिए वो ज़रूरी भी है। महलों में प्रेम कथाओं का जन्म हो सकता है, मगर मानव-जीवन एवं उसके मन से जुड़ी प्रत्यक भावना के सजीव चित्रण के लिए कठिनाई और अभाव वाला जीवन अर्थात आम आवाम का जीवन आवश्यक है। 
चाय की गुमठी पर बैठकर लेखक वो पाता है जो उसे होटल ताज में प्राप्त नही होगा और वो भी निशुल्क। 
अत्यधिक विचारों का एक ही समय पर आ जाना अस्थिरता को जन्म देता है और हम विचलित हो उठते हैं। यह कविता उसी मन की आवाज़ है और एक सच्चा सर्जक ही इस बेचैनी को समझ सकता है क्योंकि ये मेरा दावा है की इस मनोस्थिति से उसका सामना कभी-न-कभी अवश्य हुआ होगा।

नोट - नकारात्मक लेखन के लिए क्षमा मगर ख्याल सिर्फ सकारात्मक नहीं हो सकते। समंदर में लहरें सिर्फ ऊपर नहीं जाती, ज्ञात रहे!




जब मन बहुत अकेला हो,
भीतर में घुप्प अँधेरा हो.
आशाओं की किरणों को,
जब असमंजस के मेघ निगल जाएं.
जी करता है मर जाएं, जी करता है मर जाएं

जब दरख़्त छाँव ना दे पाए,
दरिया ना प्यास बुझा पाए.
फूलों से खुशबु गायब हो,
और कोयल भी कर्कश हो जाए.
जी करता है मर जाएं, जी करता है मर जाएं

जब खुद की नासमझी पर,
खुद का ही दिल झल्ला जाए.
दुखी, विवश सी आँखें ये,
अपना दुखड़ा ना रो पाएं.
जी करता है मर जाएं, जी करता है मर जाएं

जब अल्फाज़ों के धुएं में,
दम एहसासों का घुट जाए.
लेश-मात्र इस जीवन का,
जब अस्बाब समझ में ना आए.
जी करता है मर जाएं, जी करता है मर जाएं

मुस्तक़बिल का कुछ पता ना हो, 
और माज़ी याद से ना जाए,
देख-देख इन दोनों को,
जब वर्तमान घबरा जाए...
जी करता है मर जाएं, जी करता है मर जाएं



नोट - यह सिर्फ़ मेरे ख्याल हैं जिन्हें मैंने इमानदारी से वैसा का वैसा लिख दिया है। ये ना तो कोई सन्देश है ना ही नसीहत। हमे जीवन हमने नहीं दिया अलबत्ता इसे ख़त्म करने का अधिकार हमारे पास नहीं है। 





Wednesday, 9 November 2016

आठ/ग्यारह

The person who thinks about next election is a politician. But the one who thinks about next generation is a statesman.

-B.N BOSE




आठ नवम्बर दो हज़ार सोला कल शाम तक एक आम दिन था. रोज़ की तरह करोड़ों भ्रष्टाचारी अपने जीवन का सम्पूर्ण आनंद उठा रहे थे. मगर सूरज ढलने के कुछ ही समय पश्चात् देश के प्रधानमंत्री ने देश के भ्रष्टाचारी खेमे में सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया. लगभग आधे घंटे तक उन्होंने देश को संबोधित करते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ उठाए गए उनके कदमो का ब्योरा पेश किया. मगर जिस वक्त उन्होंने यह बयान दिया के "देश में मौजूद समस्त 500 एवं 1000 रूपए के नोट आज रात के बाद से मान्य नहीं होंगे" उसी वक्त से आठ नवम्बर की ये रोज़ ख़ास, बहुत ख़ास बन गई. देश में शायद पहली बार ऐसा हुआ के एक गरीब या मध्यम वर्गीय परिवार मन ही मन मुस्कुराया और समस्त भ्रष्ट अमीरजादों की आँखें लाल पड़ गई. यह कदम क्यूँ उठाए गए?, उत्तर आप सभी जानते हैं. यही कदम पूर्व में आई किसी सरकार ने क्यूँ नहीं उठाए?, उत्तर आप जानते हैं.
मई 2014 में सत्ता में आने से लेकर स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत और फिर इस ऐतिहासिक कदम तक जो एक बात मैंने वर्तमान प्रधानमंत्री के विषय में जानी, वह यह है के वे सही वक्त पर सही कदम उठाना जानते हैं. आम चुनाव में जीतने के बाद उन पर आरोप लगाए गए के उन्होंने लोगों को प्रभावित कर वोट पाने के लिए पूरी मीडिया को खरीद लिया था. यह आरोप कितना सही है यह मैं नहीं जानता. मगर यदि मोदी ने ऐसा किया था तो वो इसलिए क्यूंकि भारत की राजनीति कुछ यूँ हो गई के सत्ता में आने के लिए कई ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जो आप खुद से करना नहीं चाहते. एक अन्य बात जो वर्तमान प्रधानमंत्री में ख़ास है, वह है उनकी आक्रामक विचारधारा और फैसला लेने की क्षमता. किसी भी प्रधानमंत्री के लिए सबसे कठिन कार्य होता है किसी भी तरह का फैसला करना. क्यूंकि प्रधानमंत्री का फैसला दुनिया में देश का फैसला माना जाता है. पूर्व में आए किसी भी प्रधानमंत्री (नेहरु को छोड़कर)  के पास ऐसे अटल और ऐतिहासिक फैसले लेने की क्षमता थी ही नहीं, और अगर थी तो उन्होंने कभी प्रदर्शित नहीं की शायद. सवाल उठता है पूर्व के राष्ट्राध्यक्षों ने क्यूँ ऐसे फैसले नहीं लिए?, उत्तर कई हो सकते हैं. मगर जो प्रत्यक्ष रूप से नज़र आता है वह ये के शायद उन्होंने कभी सोचा ही नहीं के ऐसा भी किया जा सकता है. वे सिर्फ वार्ताएं करते रह गए, इन्होने घुस कर मार गिराया. वे कर्मचारियों की भर्ती करते रह गए, इन्होने स्वयं झाड़ू उठाई, वे कानून बदलते रह गए, इन्होने मुद्रा ही बदल डाली. मोदी के आदे घंटे के संबोधन में वेसे तो कोई अपशब्द नहीं था मगर नजाने क्यूँ मुझे उनका हर शब्द भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों पर एक गाली या यूँ कहे के वज्र के समान नज़र आया. हालाँकि इस फैसले से आम लोगों को तकलीफें उठानी पड़ेंगी मगर यह नासूर ही ऐसा है के दवा तो कड़वी ही लेनी होगी. प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी कुछ भी ख़ास नहीं कर रहे, यकीन मानिये वे वही कर रहे हैं जो एक राष्ट्र के प्रधानमंत्री को करना चाहिए. अंत में सभी विपक्षी दलों को मात्र एक नसीहत देना चाहूँगा के कृपया चुनाव प्रचार पे पैसा खरचना बंद करें. क्यूंकि अब देश की जनता को फैसलों की आदत है, फतवों की नहीं.

यह लेख भोपाल से प्रकाशित होने वाली दैनिक पत्रिका सुबह सवेरे में दिनांक 11 नवम्बर को प्राकशित किया गया. इस लिंक पर उपलब्ध-

http://epaper.subahsavere.news/997096/SUBAH-SAVERE-BHOPAL/11-november-2016#page/5/2

http://epaper.subahsavere.news/c/14577101

Keep Visiting!

Saturday, 5 November 2016

ये मेरा, वो मेरा।


There Is Enough In The World For Everyone's need , but not Enough For Everyone's greed.

-Frank Buchman & Mahatma Gandhi


ये मेरा , वो मेरा, सब मेरा, सब मेरा!
जागीरें है मेरी , खज़ाना है मेरा।।
इंसां चिल्ला के कह रहा,
ये मेरा, वो मेरा।।

घर-बार है मेरा, एक परिवार है मेरा,
ये रातें सब मेरी, सवेरा है मेरा।।
इंसां चिल्ला के कह रहा,
ये मेरा, वो मेरा।।

एक दुनिया है मेरी, एक संसार मेरा,
जो मेरा है उस पर अधिकार मेरा।।
इंसां चिल्ला के कह रहा,
ये मेरा, वो मेरा।।

मज़हब है मेरा, एक खुदा भी है मेरा।
घर में कूड़ा पड़ा है वो कूड़ा भी मेरा।।
इंसां चिल्ला के कह रहा,
ये मेरा, वो मेरा।।

चल माना सब तेरा, सब कुछ है तेरा।
झूठा सही लेकिन ख्वाब है तेरा,
तो जा कर लोगों से कह दे के सो जाओ सारे,
ये आसमां में उड़ता आफताब है मेरा।।

तन भी तेरा और मन भी है तेरा।
जल जायेगा एक दिन वो रक्त है तेरा।।
जाके परिंदों से कह दे के उड़ जाओ सारे,
जिस दरख़्त पे हो बैठे, वो दरख़्त है मेरा।।

कम कुछ नहीं है, सब ज़्यादा है तेरा।
कितना तो है! क्या इरादा है तेरा?
क्या मैय्यत में खुदकी कह पाएगा तू?
चले जाओ सारे, ये जनाज़ा है मेरा?


Keep Visiting!

Wednesday, 2 November 2016

Three poems that made the difference.

Out of my very few English poems here are the three most liked, viewed and shared ones. These all are written in very simple language and are easy to read and understand. I hope you will like it.
Happy Reading!

First one is dedicated to my school and its memories, Titled "OH! SCHOOL I MISS YOU"

Oh! School I miss You

With curly hair and tiny wet eyes.
with short pants and a loose tie,
with a washy, pale and nervous face,
I entered into a scenic place.

Huge the entrance and the ground so wide,
my father brought me and left me aside.
what to do? how to do?
where to go? I can't decide.

I looked around and felt amazed,
but somewhere in mind, little afraid.
ups and downs and turns and twists,
each day was an exciting gift.

Like sand from hand, time flowed.
I learnt a lot, a lot bestowed.
new experiences, new thoughts on every step,
new hurdle, new coaches on every lap.

All were having varied views.
from everyone, I learnt something new,
a lot to gain, a lot to look.
school,a scrumptious chapter of life's book.

It was the cocktail of truth and lies.
was hard to say the last good by.
don't let these days be wasted in vain,
once gone, no gold can buy them back again.

Love for the place will never-ever faint.
gone the days but not the stains.
I wish I could come back to you.
oh! my school I miss you

The following poem was awarded 11th prize from team fagnum.com
and was shared more than 280 times on various social media platforms.
available here-

Second one is a scenic poem based on your mobile wallpapers 
where I compared wallpapers with our life. this poem is entitled as "WALLPAPERS"

Wallpapers

Behavior or the style.
Take a breath and wait a while
and check out your mobile.

At first glance what do you see?
a flower, a fountain or a sea.
a house, a hut or skyscraper.
it's all about your wallpapers. 

Can be a night, can be a day
all about you, what your wallpaper say.
Can be simple, can be strange
with the thoughts they get changed.

Can be faded, can be bright
shows your dreams and your sight.
when they are in funky ways
they describe your teenage days.

When there are Poems and Rhymes
It suggests your hardship times.
sometimes zoomed, sometimes cropped
But the journey never stops.

Soon with you, a new person arrives
its the beginning of a married life.
life gets filled with some new shades
from blue and green to pink and red.

Then it shows some baby pics
collage, posters or single clicks.
as new comes old gets burned
this is the truth and nothing absurd.

the world around you is huge and wide
your secrets, you can't hide.
walk carefully on your way
Because all about you, your wallpaper say.

the following poetry won 4th prize by fagnum.com
and was shared more than 178 times on various social media platforms.
available here-

Third and last one Is dedicated to my late grandmother 
and was widely read across the world. the poem is entitled "THE LADY"

The Lady

She tied the family
in a chain.
her blessings were
like sweet showers of rain.

She was perfect
as a mother,as a wife
she taught me lessons
throughout her life.

Love, affection was for all.
her heart was like a huge hall.
honoured past, and enjoyed present with zeal
her words,her voice I can feel.

A novel can be written
on her thoughts,on her life.
how she worked and
managed to strive.

She resolved the fights
dissolved the pains.
she has gone
but her stakes remain.

For me, she has done
many things
she was a goddess
not a human being

I am sad,but will
not cry and scream
I will try my best
to accomplish her dreams.

Her love,affection and blessings
don't have any cost.
the lady was my grandmother
whom I lost,I lost,I lost

the following poem was awarded with 3rd prize by fagnum.com
and was shared more than 564 times on various social media platforms.
available here-

Keep Visiting!

For Peace to Prevail, The Terror Must Die || American Manhunt: Osama Bin Laden

Freedom itself was attacked this morning by a faceless coward, and freedom will be defended. -George W. Bush Gulzar Sahab, in one of his int...