Wednesday, 23 May 2018

मिसरा : ऊला या सानी।



पिछले कुछ सालों से शायरी पढ़ने और करने के मेरे शौक में जो इज़ाफ़ा हुआ है उसे बयाँ करना थोड़ा
मुश्क़िल ज़रूर होगा लेकिन फिर भी एक मुख़्तलिफ़ किस्से के ज़रिये इस इज़ाफ़े की तफ़्सील दिए देता हूँ। इस अफ़साने या कहानी को पढ़ने से पहले जान लें कि ग़ज़ल के पहले शेर को मतला कहते हैं और ग़ज़ल की हर वाहिद सफ़ यानि कि इंडिविजुअल लाइन को मिसरा। मतले के पहले मिसरे को ऊला कहते हैं और दूसरे को सानी। जी हां अब आप तैयार हैं। अपनी सोच ओ समझ का इत्र लगाइए और जाइये, पढ़िए।

हुआ यूँ की सुबह की चाय और पोहे के बाद, सुबह की बस में बैठ कर मैं सुबह की क्लास अटेंड करने के लिए सुबह सुबह यूनिवर्सिटी पहुँचा। यूनिवर्सिटी के अंदर मौजूद आई-सी-एच अर्थात इन्डियन कॉफी हाउस के सामने से गुज़रते हुए एक जनाब ठीक मेरे सामने आ कर रुक गए।

इससे पहले कि मैं आपको उनके साथ हुई गुफ़्तगू की तफ़्सीर दूँ। आप ये जान लें कि जिस आई.सी.एच की बात मैंने कुछ सफ़ पहले की है वहां की चाय और कॉफ़ी दोनों ही निहायत बेकार, घटिया और महंगी हैं। इडली-डोसा खाने की इच्छा होने पर ही आप वहां जाए। वैसे नवरत्न-पुलाव भी खाने लायक है। अब इससे पहले कि आप पुलाव की लज़्ज़त अपनी ज़ुबाँ पर महसूस करने लगें एक स्वार्थी लेखक होने के नाते मैं आपको अपनी कहानी पर वापस ले जाना चाहूँगा। ठीक वहीँ जहाँ हमने छोड़ा था। छोड़े हुए अफ़सानों को पकड़ना सहल नहीं होता। ठीक किरदारों की तरह। जो छूट गए सो छूट गए।

हाँ तो हम कहाँ थे? क्या कहा -"याद नहीं"। वल्लाह! आप तो बड़े बे-हुदा इंसान निकले। एक आदमी यहाँ अफ़साना कह रहा है और आप नवरत्न पुलाव के नव रत्न खोजने में लगे हुए हैं। यह सलीका नहीं है और ना ही तरीका है। वैसे सलीका और तरीका लफ़्ज़ों के मानी एक ही हैं। अपने फ़साने की लंबाई बढ़ाने के लिए मैंने दोनो का इस्तमाल किया है। अब आप मुझे बे-हुदा कह रहे होंगे। कहिये-कहिये अच्छा है बदला पूरा हुआ। बदला माने इंतक़ाम, उर्दू में। नहीं मतलब फिर आप सोचें कि उर्दू की बातें करने वाला सो-कॉल्ड शायर अपनी कहानी में उर्दू लफ़्ज़ का तो इस्तेमाल ही नहीं कर रहा। वैसे यह बताना मेरा फ़र्ज़ है कि पर्यायवाची शब्दों का उपयोग करके अपनी तहरीर या अपने लेखन की लंबाई बढ़ाने का काम लगभग हर लेखक करता है। इस प्रक्रिया में वह पाठक को यह भी बताता है कि देख कितना इल्म है हमारे पास। करते सब हैं, मानता कोई नहीं।

ख़ैर आपका नसीब अच्छा है कि आप आज उस लेखक का अफ़साना पढ़ रहे हैं जो यह कहने का भी माद्दा रखता है। "आप हँस रहे हैं?" हँसिये नहीं जनाब, ताली बजाइये। क्या कहा? अरे! नहीं-नहीं, मेरे लिए नहीं, सच कहने की मेरी हिम्मत के लिए तालियां बजाइये। अपने लिए दाद की चाहत ना मुझे है और ना ही आपसे अपेक्षित है।

अब चूँकि आपको ये याद ही नहीं के आई.सी.एच की बात करने से पहले हम कहाँ थे तो इसलिए एक और बार सुनिये। इस बार ध्यान से गौर करना दौबारा नहीं बताऊंगा। लिखने में मेहनत लगती है भाई और स्याही भी ख़त्म होती है। अब आप सोच रहे होंगे की दो रूपए के पेन और उसकी पचास पैसे की स्याही के लिए कितने मनहोने ले रहा है। तो भाईसाहब वो आप होंगे जो दो रूपए के पेन में पचास वाली स्याही भर कर लिखते हैं। हम नहीं, हमारे पास पाँच वाला है और वो भी बॉल नहीं, जेल।

तो सुनिये - सुबह की चाय और पोहे के बाद, सुबह की बस में बैठकर मैं सुबह की क्लास अटेंड करने के लिए सुबह-सुबह यूनिवर्सिटी पहुँचा। आई.सी.एच के पिछले गेट से अंदर घुसते ही मेरा पाँव कल्पना में अटक गया और मैं गिर पड़ा। कल्पना माने तसव्वुर। लेखक मैं उर्दू का हूँ, याद रहे। यहाँ मैं गिरा और वहाँ मेरे ठीक पीछे आ रही लड़कियां हँस पड़ीं। महिला-सशक्तिकरण के ख़्याल ने मेरे गुस्से को काबू में कर लिया और मैं उठकर एक तरफ खड़ा हो गया। अपनी पेंट साफ़ करके मैंने अपने सीने का वो हिस्सा सहलाया जहाँ से दिल धकड़ने की आवाज़ें आती हैं। यदि आप गिर जाएं तो हाथ-पैर आहात होते हैं लेकिन अगर आप गिरें और लड़कियां हँस दें तो दिल आहात हो जाता है। डरिये नहीं यह बहुत आम बात है। यह लड़का-प्रवत्ति है। अब मुझे एहसास हो रहा है कि पिछली दफ़ा अफ़साने का यह हिस्सा छूट गया था। इस दफ़ा सामने आ गया। चलिए बढ़िया ही हुआ अधूरा अफ़साना, अधूरे ज्ञान की तरह ही घातक है। ज्ञान माने इल्म, आप एक उर्दू लेखक की तख़लीक़ पढ़ रहे हैं। याद है ना?

अपने दिल को सहलाने के बाद मैं आई सी एच के मुख्य द्वार से बाहर आ गया और अपने रास्ते चलने लगा। अचानक एक यकसर आदमी मेरे सामने आ कर खड़ा हो गया। और मुझे देख मुस्कुराया। अब मैं तो गिरा हुआ था, मेरा मतलब गिरकर आ रहा था सो मैंने लगभग एक्सप्रेशनलेस होकर उसे देखा। 

"आपका नाम?" उसने पूछा। 

"वही जो पिता जी ने रखा था और माँ ने अप्रूव किया था" मैंने उसे संदेह भरी नज़रों से देखा। सन्देह भरी नज़रें माने मशकूक चश्म। मुसन्निफ़ हैं हम, लेखक नहीं।

उन्होंने ज़ोर का ठहाका लगाया और बोले -

"मैं मिसरा हूँ"

"कौनसा मिसरा? ऊला या सानी?" मैं मुस्कुराया और तब से अब तक उस घटना पर मुस्कुरा रहा हूँ। ना-जाने मैंने उस शख्स से ऐसा क्यों कहा। शायद शायरी के कारण, ग़ज़ल और नज़्मों के कारण, अदब के कारण कारण क्या था साफ़-साफ़ नहीं कह सकता क्योंकि जानता ही नहीं हूँ। जानता हूँ तो सिर्फ इतना के कारण को उर्दू में सबब कहते हैं।

ख़ुदा-हाफ़िज़।

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