Friday, 9 December 2016

तोहफ़ा।


कहानी माने कल्पनाओं की भूमि पर खिलता सत्यता का फूल।

-एक विचार




“बहुत जल्द, फिर आप जब चाहो फ़ोन लगा लेना, पहली आवाज़ हमेशा मेरी ही होगी.” कमलेश ने मुस्कुराते हुए कहा और फ़ोन काट दिया.

“हो गई माँ से बात, जा अब काम पे लग जा”, “माँ भोजनालय” के मालिक विनय ने अपना फ़ोन कमलेश से लेते हुए आदेश जारी किया.

कमलेश कुमावत उर्फ़ कल्लू पिछले डेढ़ साल से विनय कुशवाहा के भोजनालय में काम कर रहा था. श्याम रंग की शकल, बिखरे बाल, छोटा कद और दुबला सा तन. तेरह साल का कल्लू शहर में आया तो पढ़ने के इरादे से था मगर पिता के आकस्मात निधन, माँ की कमज़ोरी और घर की आर्थिक व्यवस्था को देखते हुए इरादों में परिवर्तन हुआ और शहर आने के ठीक 2 साल बाद से उसने भोजनालय में काम करना आरम्भ कर दिया. वक़्त गवाह है के हमेशा मजबूरियां इरादों पर भारी पड़ी हैं. हालांकि कुमावत परिवार में शिक्षा का अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ और कमलेश द्वारा छोड़े गए कार्य को उसकी आठ साल की बहन कला ने पूरा करने का निश्चय किया.
“माँ भोजनालय” के मालिक विनय कुशवाहा सिर्फ दो कामो में उस्ताद थे पहला हँसने और हँसाने में और दूसरा अपनी मटके समान तोंद को घुमाने में. उनकी इन दौनो आदतों के मेल को लोगों ने “थिरकन हँसी” नाम दिया था क्योंकिं जब भी किसी बात पर विनय भाई हँसते तो उनकी तोंद किसी नृत्यांगना की तरह थिरकती थी. पिछले डेढ़ साल में कल्लू और विनय भाई के अच्छे सम्बन्ध बन गए थे. कल्लू एक मेहनती लड़का था जिसकी वजह से विनय उसे बाकियों से अधिक पसंद करता था मगर सुलूक तो उसके साथ भी वैसा ही किया जाता था ( नौकरों वाला). कल्लू के पास अपना खुद का फ़ोन नहीं था इसलिए वो विनय के फ़ोन से ही घर पर बात किया करता था. कल्लू के गाँव में बिहारी चाचा के पास ही फ़ोन था और वे उसके घर के पड़ोस में ही रहते थे सो माँ उनके फ़ोन से बात किया करती थी.

“अरे साला! इसको हुक करना चाहिए था यार”, विनय भारत विरुद्ध दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट मैच का आनंद ले रहा था.

“इतना अच्छा जानते, समझते हैं तो खुद ही क्यों नहीं चले जाते मैदान में विनय मियां” भोजनालय के अन्दर प्रवेश करते हुए जावेद ने कहा.

“आइए आइए शायर साहब, अरे सिक्स, भाई सिक्स! शायर साहब आप तो नसीब लेकर आए हैं अपने साथ’, विनय ने अपनी ख़ुशी ज़ाहिर की.

“अरे उस बल्लेबाज़ की टाइमिंग अच्छी थी, हमारी तकदीर नहीं विनय मियां”, जावेद ने अपनी लेखन कला का नमूना पेश किया.

“हाहाहा! बेशक, बेशक” विनय ने अपनी थिरकती तोंद को सम्भाला.

“अरे कल्लू एक थाली लगाओ यार जल्दी”, जावेद ने अपना स्थान ग्रहण किया.

जावेद भोजनालय के पास ही एक रूम लेकर रहता था. वो पिछले दो सालों से विनय के यहाँ ही भोजन किया करता था और इसलिए विनय एवं कल्लू को अच्छी तरह से जानता था. उंचा कद, भूरे बाल, सूरत पर हर दम ठहरी हुई मुस्कान और सर पे टोपी पहने जावेद किसी हिंदी फिल्म के विलन से कम नहीं लगता था. जावेद शहर में प्रशासनिक सेवा अधिकारी बनने के इरादे से आया था और दिल से एक शायर था.

“नौश फरमाइए जनाब”, कल्लू ने थाली परोसते हुए कहा.

“इस हिंदी ज़ुबां पे अचानक उर्दू कैसे छा गई कल्लू खां साहब?”,अपना गिलास पानी से भरते हुए जावेद ने सवाल दागा.

“भाषा पर किसी का एकाधिकार नहीं होता शायर साहब”, कल्लू ने जीब पे रखे उत्तर को तुरंत पेश किया.

इससे पहले की जावेद कुछ कह पाता कल्लू अगला ऑर्डर लेने चला जाता है.

“विवशता ने रोक रखा है जमीं पे इसे वरना आसमान तो बेताब है ऐसे परिंदों के लिए”, जावेद मन ही मन बुदबुदाया.

जावेद कल्लू को अपने छोटे भाई सा मानता था और कभी भी उसे किसी नौकर की नज़र से नहीं देखता था. उन दोनों में गहन मित्रता थी इसलिए जावेद कल्लू की पूरी कहानी से वाखिफ था.

आफताब की किरणों ने शहर को ढँक लिया था, सड़कों पे कदमो की हलचल शुरू हो चुकी थी और वृक्षों पे बैठे पंछी उबासियाँ ले रहे थे.
हवा के झोके से कमरे की खिड़की का पर्दा बाजू होते ही सूरज की आभा कल्लू के सोते चेहरे पर पड़ी और वो झटपटा के खड़ा हुआ.

“खा जाएंगे विनय भिया तेरेको कल्लू, जल्दी निकल”, कल्लू बिना स्नान करे ही भोजनालय के लिए निकल गया.

“स्वागत है आपका सरकार, चाय लेंगे?’, विनय ने भोजनालय के अंदर प्रवेश करते कल्लू से व्यंगात्मक तौर पर कहा. गुस्सा उसके चेहरे पर साफ़ देखा जा सकता.

“माफ़ करना भिया, वो ज़रा आज थोड़ी देरी हो गई उठने में बिना नहाय ही चला आया मैं तो”, कल्लू ने बिना बोले ही बर्तन मांजना शुरू कर दिया.

“ओह! इतना बड़ा बलिदान, आपकी इस मेहेरबानी का बदला हम कैसे चुकाएंगे”, विनय ने एक बार फिर ताना मारा.

दोपहर हो गई थी, भोजनालय खाली हो चुका था. अपना सारा काम खत्म करके जब कल्लू ने विनय से फोन माँगा तो विनय ने साफ़ मना कर दिया. कल्लू का दिल बैठ गया मगर साथ ही साथ उसने निश्चय किया अब उसे जल्द से जल्द फोन लेना होगा.

आभा से भरी हुई सहर जल्द ही शाम में तब्दील हो गई.

जावेद शाम होते ही अपने घर से चाय पीने के लिए “माँ” के पास चल पड़ा. चलते-चलते उसे एहसास हुआ के कागज़ का एक टुकड़ा वो अपने साथ जेब में ही रख लाया है. उसे देखते ही उसकी नज़रें कचरे का डब्बा तलाशने लगीं और जल्द ही एक फुल्की के ठेले के पास उसे एक कुड़ादान दिखाई दिया. जावेद ने कागज़ को उस कूड़ेदान में डाला और आगे बढ़ गया. जावेद ने कदम बढाया ही था के एकाएक पीछे से आती आवाज़ ने उसे रोक लिया.

“समझदार हो?”, फुलकी वाले ने जावेद को बुलाते हुए पुछा.

“जी सूरत और सीरत दोनों से, आप बताएं क्या गफलत हो गई हमसे?”, जावेद ने आत्मविश्वास के साथ पुछा.

“जनाब जिस कचरे के डब्बे में आपने अपना कचरा डाला है ना वो हमारा है”, फुलकी वाले ने किसी सम्राट की भाँती कहा.

“अरे माफ़ करें हमे, गलती हो गई हमसे चलिए हम हमारा कचरा वापस निकाल लेते हैं”, जावेद मुस्कुराया.

“अब ये डब्बा खाली है, बिलकुल आपके दिमाग की तरह”, जावेद ने तंज कसा.

इससे पहले की फुलकी वाला कुछ कह पाता जावेद वहां से निकल जाता है.

“एक कड़क अदरक-चाय लाओ यार कल्लू”, जावेद ने कल्लू के कन्धों पर हाथ रखते हुए कहा.

“क्या बात है आज निराश नज़र आ रहे हैं शायर साहब”, विनय ने काउंटर पर हाथ रखते हुए कहा.

“कुछ नहीं आज एक मूर्ख से मुलाक़ात हो गई”, जावेद ने चाय की चुस्की लेते हुए अपनी निराशा का कारण स्पष्ट किया.

“चलिए फिर तो चाय पीजिए और तरो-ताज़ा हो जाइए”, विनय ने टीवी चालू कर ली.

“यहाँ आइए अग्निपथ के अमिताब”, जावेद ने कांच में अपनी शकल निहारते कल्लू से कहा.

“माँ से बात हुई की नहीं आज?”

“आप आज की बात कर रहे हैं एक महीना होने को आया. माँ भी इंतज़ार करती होगी”, कल्लू का चेहरा लटक गया.

“तो जाइए बात कर आइये, लीजिये हमारा फोन”, जावेद ने मुस्कुराते हुए कल्लू को अपना फोन दे दिया.

कल्लू ने धन्यवाद, शुक्रिया कहने की औपचारिकता को नज़रंदाज़ कर फ़ोन ले लिया और बिहारी चाचा का नंबर लगाया.

“हेल्लो! कौन?”, बिहारी चाचा ने मुँह से पान थूकते हुए कहा.

“हम हैं हम”

“माफ़ करना भैया हम किसी "हम" को नहीं जानते, रांग नंबर मिलाय हो तुम”, बिहारी ने स्पष्ट किया.

“अरे चाचा पगला गए हो का. हम हैं भाई, हम माने कमलेश”, कल्लू ने अपना परिचय दिया.

“अरे कमलेश!, केसन बा मोड़ा, जानत हैं माँ से बात करने खातिर फ़ोन लगाए हो मगर ऊ ना बाज़ार गई है तुम रात को लगाओ बात कराते हैं”, चाचा ने पूरी बात एक सांस में कह डाली.

“अच्छा और........कमलेश! ऐ कमलेश!, अबे काट दिए क्या???” चाचा ने फ़ोन को निहारते हुए एक और पान मुँह में ठूंस लिया.

“लीजिये आज भी बात नहीं हो सकी”, कल्लू ने जावेद को फ़ोन देते हुए कहा.

“तुम नया फ़ोन ले ही लो कल्लू”, जावेद ने फ़ोन जेब में रखते हुए कहा.

“बस इस दिवाली घर लाएंगे खुशियाँ”, कल्लू मुस्कुराया
जावेद भी हँस पड़ा.

पल भर में माहोल बदल देने की क्षमता कल्लू में कूट-कूट कर भरी थी.
जावेद और कल्लू में बातों, विचारों, विवादों का सिलसिला सतत चलता रहा. 
और आखिर वो वक़्त भी आया जिसका इंतज़ार कल्लू को बेसब्री से था. दिवाली, हिन्दुओं का सबसे बड़ा त्यौहार। रोशनी, वैभव और यश का उत्सव। त्यौहार महीने की आखरी तारीक यानि 31 अक्टूबर को था और विनय ने अपने सभी कर्मचारियों को तनख्वा के साथ-साथ दिवाली बोनस माह की शुरुआत में ही देने का फैसला किया था. सो कल्लू को पगार और बोनस मिला कर कुल आठ हजार रूपए मिले जिसमे से पांच हजार उसने गाँव भेज दिए ताकि घर पर दिवाली की खरीददारी हो सके.
घर का भाड़ा और अपने बाकी खर्चे काटने के बाद कल्लू के पास मात्र 500 रूपए रह गए. वो बेहद निराश हो गया. फ़ोन लेने का उसका सपना शायद इस वर्ष भी अधूरा रहने वाला था.

दिवाली को मात्र दस दिन शेष रह गए थे, कल्लू भोजनालय में अपना काम कर रहा था के तभी जावेद ने उसे एक चाय लाने को कहा.

“ये रही आपकी चाय शायर साहब”, कल्लू ने कहा, उसके चेहरे पर निराशा बिखरी पड़ी थी.

“तो फ़ोन कब आ रहा है कल्लू मियां”, जावेद ने चाय लेते हुए कहा.

“शायद अगले साल”, कल्लू ने अपने दुःख को मुस्कराहट के परदे से ढ़कते हुए कहा और बात पूरी किये बिना ही वहां से चला गया.

जावेद ने भी कल्लू को वापस नहीं बुलाया वो उसकी निराशा का कारण समझ गया था.

दिवाली के पांच दिन पूर्व.....

“ज़रा ऊपर आओ कल्लू, कुछ काम है तुमसे”, अपने रूम की खिड़की से नीचे झांकते जावेद ने स्टेशनरी में चाय देते कल्लू से कहा.

“क्या हो गया शायर साहब आपकी चाय भी यही ला दूँ?”, कल्लू ने सवाल किया.

“वो सब छोड़ो और ये बताओ गाँव नहीं गए दिवाली के लिए?’ जावेद ने उसे बैठते हुए कहा.

“बस आज शाम को”, कल्लू ने कहा.

“चलो फिर ये लो तुम्हारा दिवाली का नज़राना”, जावेद ने कल्लू को रंगीन पन्नी में लपटा हुआ एक डब्बा देते हुए कहा.

“ये किस लिए, इसे मैं नहीं ले सकता”, कल्लू हिचकिचाया.

“अरे बड़े भाई ने छोटे को दिया है, मैं कुछ नहीं सुनूंगा तुम्हे इसे रखना ही होगा”, जावेद ने कल्लू को समझाया.

“मगर! मगर आप तो दिवाली मनाते ही नहीं हैं, फिर दिवाली का तोहफा?, कल्लू ने मासूमियत से पुछा.

“तुम छोटे हो अभी, समझ नहीं सकोगे, फिलहाल के लिए इसे दिवाली का तोहफा नहीं ईद की ईदी समझ के रख लो”, जावेद ने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा.

“और हाँ इसे अपने गाँव जाकर ही खोलना, समझे”, जावेद ने चेताया.

कल्लू मुस्कुराते हुए वहाँ से निकल आया और शाम को अपने गाँव के लिए निकल गया. रास्ते में उसने कई दफा तोहफे को खोलने की कोशिश की मगर जावेद की बात ने बार-बार उसे ऐसा करने से रोका.

कल्लू के घर पहुँचते ही, माँ ने उसे गले से लगा लिया और बहन कला ख़ुशी के मारे नाचने लगी.

कल्लू से इंतज़ार नहीं हो रहा था, माँ से कुछ पल बात करने के बाद उसने झट से जावेद द्वारा दिए गए तोहफे को खोला.
“नया फ़ोन!!”, कला ने अचंभित होते हुए चिल्लाया.

“हाँ, नया फ़ोन”, कल्लू ने कला को गले लगाते हुए कहा और अपनी भीगी हुई पलकों को बंद कर लिया।


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