हम दोनों पहली बार मिल रहे थे। इससे पहले तक व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर बातचीत होती रही थी। हमारे बीच हुआ हर ऑनलाइन संवाद किसी न किसी मक़सद से था। किसी न किसी काम से जुड़ा हुआ था। यह पहली बार था जब हम ऑफ़लाइन मिल रहे थे और वो भी बिना किसी मक़सद के। या शायद! मेरे पास उस रोज़ उससे मिलने का एक मक़सद तो था - उससे बार बार मिलने का मक़सद।
मैं मुंबई में बतौर इवेंट और आर्टिस्ट मैनेजर काम कर रहा था। और वो आर्टिस्ट थी। मैं उससे ज़िंदगी भर के लिये मैनेज होने का ख़ाब लिए उससे मिल रहा था।
वो मुझसे क्यों मिल रही थी? मैं नहीं जानता था। शायद! वैसे, जैसे कोई भी आर्टिस्ट किसी भी आर्टिस्ट मैनेजर से मिलता है। या शायद! वैसे, जैसे कोई भी किसी से ऑनलाइन मिलने के बाद एक बार उससे ऑफलाइन मिल लेना चाहता है।
हम दोनों शहर के एक नामी कैफ़े में कॉफ़ी पीने के बाद टहल रहे थे। कैफ़े के पीछे सड़कों का एक जाल सा था। उसी जाल में फँसी एक भटकी हुई सड़क पर हम दोनों साथ थे। पास नहीं। सिर्फ़ साथ।
“ग्लैड दैट वी मेट।” हमारे कदम साथ साथ आगे बढ़ रहे थे।
“वी वुड हैव मेट पहले ही। मगर आपका बीज़ी शेड्यूल दोस्त। मैं क्या ही कर सकता था।” मैं सड़क के दोनों तरफ़ लगे पेड़ों को निहारते हुए चल रहा था। मैं उसे निहारते हुए चलना चाहता था।
“अरे यार काफ़ी काम है आजकल। और फिर ऊपर से मेरे हेल्थ इशूज़।” वो अपनी काली ड्रेस को कुछ ठीक करते हुए आगे बढ़ रही थी। उसके काले लिबास से अधिक सफ़ेद उस वक़्त और कुछ नहीं था।
शाम ढल रही थी। सड़क कई कैफ़े और रेस्टोरेंट से घिरी हुई थी। सितंबर के आख़िरी दिन थे। बारिश नहीं थी मगर बारिश की गंध मौसम में बची हुई थी। आसपास एसी महक छाई थी जैसी पुराने घरों की दीवारें से उठती है। उनके सील जाने पर।
हरहराते पेड़ों के नीचे लैंप पोस्ट जल उठे थे। और एक के बाद एक सभी कैफ़े और रेस्टोरेंट लोगों की आमद से खिल रहे थे।
प्लेटों, चम्मचों, और गिलासों के टकराने की आवाज़ें आने लगी थीं। लोगों को हंसते हुए सुना जा सकता था।
“कैसे हेल्थ इशूज़?” मैंने कुछ हिचकिचाते हुए पूछा।
“कहानी है। लंबी है लेकिन।” उसने मुझे देखा।
“सुनाने वाली आप हो तो फिर लंबी से लंबी कहानी सुनी जा सकती है।” मैंने कहा। उसके साथ फ़्लर्ट करने का मेरा ये पहला अटेम्प्ट था।
वो मुस्कुराने लगी। मैं मन ही मन शर्माने लगा। फिर मुझे देखते हुए वो यकदम मेरे बग़ल से होते हुए सड़क किनारे एक कार के पास जाकर खड़ी हो गई। कार के ऊपर एक चितकबरी बिल्ली बैठी हुई थी। वो उसका सर सहलाने लगी। और फिर मैंने देखा कि वो उससे बात करने लगी है। वो लगभग पाँच मिनिट वहाँ रही। उसने अपने फ़ोन से उस बिल्ली की एक फ़ोटो ली और फिर वापस मेरे साथ आ गई। मेरे पास नहीं।
“टू क्यूट।” उसने अपना फ़ोन देखते हुए कहा।
“टू क्यूट।” मैंने उसे देखते हुआ सोचा।
वो अपने फ़ोन ही को देखते हुए आगे बढ़ रही थी। मैं ऊपर आकाश में किसी बातचीत का कोई सिरा तलाशते हुए चल रहा था।
शाम का बैंगनी आसमान धीरे-धीरे सियाह होने लगा था। पेड़ों के रास्ते हवा का आना-जाना चल रहा था।
बादलों के जो इक्के-दुक्के फ़ाये कुछ देर पहले तक आकाश में थे, अब वो अंधेरे में लोप हो गए थे। चाँद जो पहले से आसमान के शिखर पर था, रात के वहाँ फैल जाने से नुमाया होने लगा था। जैसे ब्लैकबोर्ड पर चॉक से बनी कोई आकृति हो।
क़तार में खड़ी लैंप पोस्ट्स का उजाला सड़क पर हावी था। अगर मेरा ध्यान आसमान पर न होता तो मुझे मालूम नहीं चलता कि वहाँ चाँद ने दस्तक दे दी है।
लगभग दो मिनिट तक चाँद का आने देखने के बाद जब मैंने वापस आँखें उसकी ओर कीं तो देखा कि अब उसकी आँखें आसमान में खोई हुई हैं। जब मैं आकाश में डूबा हुआ था, क्या तब उसकी आँखें मुझ पर लगी थीं? मैंने सोचा। और सोचते ही एक झुरझुरी मेरे शरीर में दौड़ गई।
“फ़ुल मून नाईट।” उसके होंठ बुदबुदा रहे थे। वो रात पूरे चाँद की थी।
“हैप्पी फ़ुल मून टू यू।” वो अपने फ़ोन से बिल्ली की तरह चाँद की भी तस्वीर निकालने लगी। पूरे चाँद को देखकर उसका चेहरा चाँद ही सा दमकने लगा। वो पूरे चाँद की पक्की वाली एडमायरर थी।
मुझे मालूम हो गया कि उसकी दिलचस्पी पूरे आसमान में नहीं। सिर्फ़ उसपर टंगे पूरे चाँद में थी। ठीक वैसे जैसे मेरी उसमें थी।
“जैसे जैसे रात की डेप्थ बढ़ती है। वैसे वैसे चाँद का शेप बढ़ता है। इट इस ऑनली दी डीपेस्ट नाईट, व्हेन वी कैन विटनेस दी ब्राइटेस्ट मून। फ़ुल मून। ब्यूटीफुल नो?” उसने मेरी आँखों में देखते हुए कहा।
फ़िल्म होती तो यही वो दृश्य होता जिसमें हीरो-हिरोइन एक दूसरे को किस करते। लेकिन फ़िल्म नहीं थी। यथार्थ था। यथार्थ में शायद हम दोनों हीरो-हिरोइन तो थे। लेकिन अपनी-अपनी कहानी के। हमारी कहानी एक नहीं थी।
मैंने हाँ में अपना सर हिलाया और उसके फ़ोन में चाँद की तस्वीरें देखने के लिये उसके कुछ और क़रीब चला गया।
हम फ़ोन में देखते हुए आगे चलने लगे। आसपास से लोगों का गुज़रना चलता रहा। सड़क के दोनों तरफ़ रात जगमगाने लगी।
“सो यू आर ए केट पर्सन?” मैंने उससे पूछा। मुझे लगा जैसे मैं इस तरह का सवाल किसी से भी पहली बार पूछ रहा हूँ। जिस परिवेश से मैं आता हूँ वहाँ ऐसे सवाल कोई किसी से नहीं करता।
“आय एम नॉट एक्चुअली।” उसने कुछ हैरानी से कहा। उसके बग़ल से घंटी बजाते हुए एक साइकिल वाला तेज़ी से निकल गया।
“तो फिर?” मैंने अपने दोनों हाथ अपनी जींस के जेबों में डाल रखे थे।
“मुझे डॉग्स ज़्यादा पसंद हैं। घर पर तीन हैं। और वो सब स्ट्रे डॉग्स हैं। हमने उन्हें पाल रखा है। पर हाँ बिल्लियाँ भी पसंद हैं मुझे।” उसके चेहरे पर लगातार चलते रहने से पसीना उभरने लगा था।
फ़िल्म होती तो मैं उसे अपना रूमाल दे रहा होता। मगर ये यथार्थ था। यथार्थ में न मेरे पास रूमाल था और न मैं वो हीरो था जिसके पास हालात के हिसाब से हर चीज़ रहती है।
“इंट्रेस्टिंग।” कहते हुए मैंने अपने सर को वर्टिकली हिलाया। कहने के अगले ही क्षण मैं जान गया कि वहाँ उस जगह उस शब्द का कोई मतलब नहीं था। लेकिन कुछ तो बोलना ही था। सो अंग्रेज़ी का एक आमफ़हम शब्द मैंने बोल दिया।
मैं जब भी किसी लड़की से बात करता हूँ, अंग्रेज़ी में बोलने लगता हूँ। - ये एक अजीब तरह का फ़ेनोमना है। जिसे मैं आए दिन जीता हूँ।
बारिश की गंध के बीच चलते हुए हमें मालूम ही नहीं चला कि कब हम बारिश के बीच चलने लगे। तेज़ हवा के साथ पानी का एक शॉवर सा गिरने लगा। भुट्टे और मूँगफली बेच रहे कुछ ठेले वाले जो वहीं किनारे पर एक के बाद एक खड़े थे। अपने ठेलों के चारों तरफ़ लगे डंडों पर मोमपप्पड़(प्लास्टिक शीट्स।) चढ़ाने लगे।
कारों पर बैठी बिल्लियाँ आसमान में देखने लगीं। मैंने उनकी आँखों में बारिश को गिरते देखे।
हम दोनों सड़क के कोने-कोने पेड़ों के नीचे चलने लगे। और तभी अचानक एकसाथ सभी लैंप पोस्ट्स बंद हो गयीं। हवा का वेग बढ़ गया। बारिश पहले की ही तरह मद्धम बरसती रही। लैंप पोस्ट्स बंद होते ही, आसमान के सिंहासन पर बैठा चाँद धरती पर आ गया। रात रूपहली हो गई। लगा जैसे सड़क पर चाँदी चढ़ा दी गई हो। पेड़ों पर गिर रहा बारिश का पानी चमकते हुए कारों पर गिरने लगा। हर दूसरी-तीसरी कार पर कोई भूरी, नारंगी, चितकबरी, या सफ़ेद बिल्ली दिखाई दे जाती थी।
बिल्लियों की इस लाइन में हमने देखा कि सबसे आख़िर में एक काली कार पर एक काली बिल्ली बैठी हुई है। हमें लगा जैसे दो हरी आँखें हवा मैं तैर रही हों। और जो तैरते हुए चाँद तक जाना चाहती हों।
वो इस दृश्य को छोड़ नहीं सकती थी। वो दबे पाँव किसी बिल्ली की ही तरह उस काली बिल्ली के पास पहुँची और बारिश की परवाह किए बिना अपने फ़ोन से बिल्ली और उसके ऊपर टंगे गेंद से चाँद की तस्वीरें लेने लगी। पेड़ों से रिस रहा पानी उसके उघड़े कंधों पर गिरता और फिर बाहों के सहारे उसकी मुड़ी हुई कोहनियों तक पहुँचकर नीचे गिर जाता।
मैं उसकी कोहनियों से हो रही बारिश को एकटक देख रहा था। और वो पूरे चाँद की मोहब्बत में मुब्तला थी। वो कुछ आगे निकल गई थी। मैं पीछे से ही उसे निहार रहा था।
“इधर आओ जल्दी।” उसने अपना फ़ोन अपने बैगनुमा पर्स में रख लिया और हाथ के इशारे से मुझे वहाँ बुलाने लगी जहां वो थी - काली बिल्ली के पास।
मैंने कुछ ही कदम बढ़ाये थे कि वो हरी आँखें वहाँ से ग़ायब हो गईं। “उन्हें चाँद मिले।” मैंने सोचा। और उसके बाजू में जाकर खड़ा हो गया।
“मेक ए विश।” उसने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा। और ख़ुद अपने दोनों हाथों को आपस में भींच कर चाँद की तरफ़ देखने लगी।
मैंने पहली बार किसी को टूटते तारों से नहीं। पूरे चाँद के आगे दुआ माँगते देखा था। मैं इस ख़याल की ख़ूबसूरती में इतना मसरूफ़ हो गया कि पूरे चाँद से कुछ नहीं माँग सका। उसने माँग लिया। मैं नहीं जानता क्या।
उसे पूरे चाँद के आगे प्रार्थना में खड़ा देख। मुझे कवि राजेश जोशी की एक कविता याद हो आई। जिसका शीर्षक है - कवि, चाँद और बिल्लियाँ।
मेरे पीछे कारों पर बिल्लियाँ थीं। मेरे ऊपर था पूरा चाँद। और मेरे सामने था उसका(कवि का) दमकता चेहरा। - दुआ में झुका हुआ।
“शुड वी वॉक मोर?” उसने चाँद से अपनी नज़रें हटा लीं। उसकी प्रार्थना पूरी हो गई थी।
“कुछ खा लें? फिर वॉक करते हैं। बारिश में।” मैंने अपने गीले बालों से उँगलियाँ गुज़ारते हुए कहा।
मैंने ये कहा और हठात् मेरे सामने से वुडी एलन की फ़िल्म “मिडनाइट इन पेरिस।” के कुछ दृश्य दौड़ गए।
लैंप पोस्ट्स बंद थे। लेकिन कैफ़े और रेस्टॉरेंट्स से आते उजाले ने फ़ुटपाथ्स को रौशन कर रखा था। हम जो अब तक सड़क की बायीं तरफ़ चल रहे थे, उसके दायीं और आ गए। और फ़ुटपाथ से होते हुए कोई रेस्टोरेंट तलाशने लगे।
भुरभुरी बारिश अब भी हो रही थी। बहुत कम लोगों के हाथों में छाते नज़र आ रहे थे। एक छाता गुठनो के बल हमारी ओर चला आ रहा था। जिसे देख हम मुस्कुराए थे। उसने उसकी भी तस्वीर ले ली थी। - एक छोटा सा बच्चा जो अपने माता-पिता के साथ छाता लिए बारिश से बचता हुआ आगे बढ़ रहा था।
चलते हुए वो एक कैफ़े एंड रेस्टोरेंट के सामने रुक गई।
“यहाँ चलते हैं।” उसने मुझे देखा।
मैंने कुछ नहीं कहा। हम दोनों कैफ़े की ओर मुड़ गए। वो सड़क से अंदर दबा हुआ एक नन्हा कैफ़े था। अंदर दाखिल होते ही पहले एक छोटा सा पोर्च एरिया था और फिर तीन सीढ़ियाँ ऊपर कैफ़े का मैन ईटिंग एरिया। वहीं अंदर ऑर्डर एरिया और रिसेप्शन भी था। पोर्च में बहुत से अनाम पौधे सजे हुए थे। और छत से इलेक्ट्रिक लैंप लटक रहे थे।
बाहर से सीढ़ियों तक के रास्ते पर मिट्टी जैसे रंग की टाइल्स लगी हुई थीं। और सीढ़ियों के ठीक आगे मोटे काँच का एक दरवाज़ा था, जो हरे रंग से रंगी लकड़ियों में फ़्रेम्ड था।
भीतर चोकोर आकार में चार टेबल और उनके इर्द-गिर्द २-२ कुर्सियाँ रखी हुई थीं।
मैंने उसके लिए दरवाज़ा खोला और वो झुक कर अंदर चली गई। मैं उसके पीछे गया। हम दोनों के पीछे दरवाज़ा बंद हो गया।
हमने एक टेबल लिया और सामने-सामने बैठ गए।
बाहर लैंप पोस्ट्स फिर जल उठे। बारिश बंद हो गई। भुट्टे और मूँगफली बेच रहे लोगों के ठेलों से उठ रहा धुआँ चाँद तक रास्ता बनाने लगा। अंदर वो अपने चेहरे और बाहों पर जमे पानी को टिशू पेपर से पोंछने लगी। मैं उसे कॉपी करने लगा। और तब मुझे देखकर वो हँस पड़ी।
“व्हाट आर यू डूइंग?” उसने हंसते हुए कहा।
“ड्राइंग माइसेल्फ़। जस्ट लाइक यू।” मैं मुस्कुराया।
“व्हाई लाइक मी?” वेटर ने हमारे बीच पानी के दो गिलास और मिनरल वॉटर की एक बोतल रख दी। ठीक इसके बाद उसने वहाँ का मेन्यू भी टेबल पर एक सिमेट्री में रख दिया।
“व्हाई नॉट लाइक यू?” मैंने बोतल खोली और अपने पास रखे गिलास को भरकर पानी के दो-तीन घूँट लिए। पानी पीते हुए मुझे लगा कि क़ायदे से मुझे पहले उसे पानी ऑफ़र करना चाहिए था। ख़ुद कुर्सी पर बैठ जाने से पहले उसके लिए कुर्सी पीछे करनी चाहिए थी। उससे पूछना चाहिए था कि कहीं भीगते रहने की वजह से उसे ठंड तो नहीं लग रही। मुझे एक झटके में अपनी सभी ग़लतियों का एहसास हो गया।
हालाँकि हम दोनों की मुलाक़ात कोई डेट नहीं थी। मिलने की योजना बनाते हुए हम में से किसी ने भी “डेट” लफ़्ज़ का इस्तेमाल नहीं किया था। लेकिन सिर्फ़ डेट पर ही एक जेंटलमैन की तरह बर्ताव किया जाए - ऐसा कहाँ लिखा है?
मैं उस क्षण मन ही मन पछताने लगा। और मुझे मालूम हो गया कि लड़कियों के साथ पेश आने के मामले में उत्तर भारतीय लड़कों के बेसिक्स ही हिले हुए हैं।
“प्लेइंग विथ वर्ड्स एंड ऑल। ऑफ़कोर्स यू आर ए पोएट। नाउ आई कैन सी इट वैरी क्लियरली।” उसने भी अपना गिलास भरा और पानी पीने लगी।
“देन! व्हाट विल यू हेव सर?” उसने मेन्यू अपने हाथ में ले लिया।
“दोस्त मुझे तो ये फैंसी मेन्यू समझ ही नहीं आते। तुम जो चाहो मँगवा लो।”
मेन्यू का कवर देख कर ही मैं समझ गया था कि उसके अंदर इस्तेमाल की गई भाषा मेरे पल्ले नहीं पड़ेगी। मैं ऐसे मेन्यू पहले देख चुका था जिनमें लिखी चीज़ों को पढ़कर ये बताया नहीं जा सकता था कि उनमें खाने की आख़िर कौनसी चीज़ आएगी।
“फ़ूड शुड लुक गुड। टेस्ट इस सेकेंडरी।” - इस देश के लगभग सभी आलीशान रेस्टोरेंट इसी कथन पर चल रहे हैं।
“आई विल हैव रिज़ोटो। यू हैव लज़ानिया?” उसकी आँखें मेन्यू पर गढ़ी हुई थीं।
“श्योर।” मैंने लज़ानिया का नाम तो सुन रखा था। लेकिन उस रात पहली बार उसे खाया।
“ओके! लेट्स ऑर्डर अवर इटैलियन डिनर।” उसने वेटर को हमारा ऑर्डर लिखवाया और फिर अपनी कुर्सी पर थोड़ा आगे सरक आई। अपने दोनों हाथ उसने एक के ऊपर एक टेबल पर रख दिये। और मुझे देखते हुए अपनी दोनों बोहें उचकाईं।
“कुछ कहो।” उसने इशारे से कहा।
“तो तुम्हें कुत्ते पसंद हैं?” मैंने पूछा। कुछ निश्चित जगहों पर कुछ शब्दों का उपयोग उनके अंग्रेज़ी अनुवाद में ही किया जाये तो बेहतर। पूछ लेने के बाद मुझे लगा।
“हाँ। हैदराबाद में तीन हैं हमारे पास। बताया था मैंने शायद?” उसकी आवाज़ पूरे कैफ़े में गूंज गई। वहाँ उस वक़्त हम दोनों के अलावा सिर्फ़ वहाँ का स्टाफ़ था।
“यस यू टोल्ड मी अभी बाहर ही। वैसे मेरे पापा की एक थ्योरी है कुत्तों को लेकर। बुरा न मानों तो बताऊँ। बेसिकली इट्स ऐन अनपॉपुलर ओपिनियन।” मैंने थोड़ा झेंपते हुए कहा।
उसने एक गहरी साँस ली। मैंने कैफ़े की सफ़ेद दीवार के आगे उसकी काली ड्रेस को साँस लेते हुए देखा।
“गो ऑन। बताओ क्या है तुम्हारा अनपॉपुलर ओपिनियन।” उसने हल्की हंसी के साथ कहा। वो मेरे डर को समझ रही थी। उसकी हंसी में मेरे लिए सहानुभूति थी।
“देखो दुनिया का हर पालतू जानवर अपने मालिक के प्रति वफ़ादार रहता है। मेरे और मेरे पिताजी के ख़याल से कुत्ते वफ़ादार से ज़्यादा चापलूस होते हैं। हमेशा मलिक के आगे-पीछे दुम हिलाये, जीभ निकाले घूमते रहते हैं। मालिक चाहे जो करे - चापलूस कुत्तों की नज़र में सब सही ही होता है। और इसलिए वो हमेशा उसकी जय-जयकार में भौंकते नज़र आते हैं। बदले में वो मालिक का प्यार, दुलार,लाड़, संरक्षण पाते हैं। और साथ ही उन्हें मिलता है अपनी चापलूसी का इनाम जैसे दूध-बिस्किट, ब्रेड, मछली, मीट इत्यादि इत्यादि। जितनी आला चापलूसी उतना आला इनाम।
कोई हैरानी नहीं कि इस देश के लगभग हर नेता, अभिनेता, उद्योगपति के पास चापलूस कुत्ते हैं। किसी के पास एक, किसी के पास दो, किसी के पास दो सौ, किसी के पास दो हज़ार और कहीं कहीं तो इससे भी ज़्यादा।
समाज के हर संपन्न व्यक्ति को ये भ्रम होता है कि वही सर्वश्रेष्ठ है, वह सब जानता है, उसे हर कोई मानता है। उससे बेहतर कोई नहीं, उसके ऊपर कोई नहीं। - उसके आसपास मौजूद कुत्तों की चापलूसी उसके इसी भ्रम को पौषित करती है। और बदले में वो कुत्तों के पौषण का ध्यान रखता है। ये एक तरह का बारटार सिस्टम है जो युग-युगांतर से चला आ रहा है। और इस सृष्टि के विनाश तक चलता रहेगा।”
मैंने अपनी बात को किसी स्पीच की तरह कह डाला। और फिर पानी के तीन-चार घूँट लिए। मुझे लगा जैसे मैंने संसद में कोई भाषण दिया हो और अब मेरे साथी सांसद मेरे लिये मेज़ थपथपायेंगे।
“ओके! आई मीन नेवर थॉट अबाउट इट देट वे। बट स्टिल आई लव डॉग्स। एंड नॉट जस्ट मी, माय होल फ़ैमिली लव्ज़ देम। तुम्हारी इस स्पीच से मेरी सोच नहीं बदलने वाली। समझे न।” उसने लगभग चेतावनी के स्वर में कहा।
“मैं तुम्हारी सोच बदलना भी नहीं चाहता दोस्त। कहा था न - बस एक अनपॉपुलर ओपिनियन है।” मुझे उसके चेहरे पर झीना सा लालपन नज़र आया। कैफ़े की उजली पीली रौशनी में मैं उसके गालों को खिलते हुए देख रहा था। कि तभी टेबलों के बीच से जगह बनाते हुए वेटर हमारे पास पहुँच गया।
उसका रिज़ोटो और मेरा लज़ानिया सर्व हो चुका था। मगर खाना शुरू करने से पहले शायद वो कुछ कहना चाहती थी।
वो सामने देख रही थी। मगर सामने मौजूद किसी चीज़, या किसी शख़्स को नहीं। निस्संग अपनी सोच में या तो वो अपने अतीत की यादों में झांक रही थी या फिर भविष्य की कल्पनाओं में।
उस वक़्त उसकी आँखों में जैसे समय के तीनों डायमेंशन एक साथ उतर आए थे। वो कहीं भी आ-जा सकती थी। और किसी को कुछ पता नहीं चलने वाला था।
“एनीथिंग एल्स सर?” वेटर ने मुझसे पूछा। उसने कटलरी के दो सेट हमारी टेबल पर रख दिये।
“दिस वुड बी ऑल।” मैंने कहा।
वो सुदूर समय से लौट आई। उसकी आँखें अब वर्तमान में थीं। अपने रिज़ोटो पर।
“व्हाट वर यू थिंकिंग?” मैंने उसे जिज्ञासा से देखा।
“डॉग्स। अपने तीनों प्यारे कुत्तों के बारे में सोच रही थी। हैदराबाद में पापा-मम्मी एक सरकारी कॉटेज में रहते हैं। मैं यहाँ इस शहर में हूँ। मेरा भाई बैंगलोर में है। सुबह जब पापा कॉलेज निकल जाते हैं - तो मम्मी के साथ हमारे तीनों कुत्ते ही रहते हैं। उन्हें खिलाना, पिलाना, बाहर घुमाना, उनका ध्यान रखना - सब मेरी मम्मी करती हैं। और यही सब वो भी करते हैं - मम्मी के लिए।
तुम्हें पता है? कुत्ते इंसान का सुख और दुख दोनों सूंघ लेते हैं। तुम्हारी ख़ुशी में वो बच्चों से उछलते-कूदते हैं, भौंकते हैं, लौटते हैं, तुम पर चढ़ जाते हैं, तुम्हें चाटते हैं। और तुम्हारे दुख में? वो तुम्हारे साथ चुपचाप बैठे रहते हैं। एक आवाज़। एक आवाज़ भी नहीं करते। ऐसे सियाह, गमगीन सन्नाटे में जब तुम उनकी आँखों में देखोगे तो महसूस करोगे कि अगर कुछ और देर तुम दुखी रहे, तो तुम्हारे साथ बैठे कुत्ते बोल पड़ेंगे। बोल पड़ेंगे कि - हम हैं।” उसकी पलकों पर आँसू ऐसे ठहर गए जैसे पत्तियों पर ओस की बूँदें ठहर जाया करती हैं। उसका चेहरा पहले से अधिक लाल हो गया।
मेरी स्पीच पर किसी ने मेज़ नहीं थपथपाई थी। मगर उसकी काउंटर-स्पीच पर मैंने मेज़ को धीरे से थपथपा दिया।
“लाँग लिव दी डॉग्स, मैम।” मैंने रिज़ोटो की प्लेट उसके और पास सरका दी।
“यू लॉस्ट दी डिबेट।” अपने आंसुओं को टिशूपेपर से पोंछते हुए वो हंसी।
“हंड्रेड परसेंट। आई एक्सेप्ट माई डिफ़ीट।” मैंने उसकी ओर हाथ बढ़ाया। हमने हाथ मिलाया और आख़िरकार डिनर करना शुरू किया।
मैं उसे खाते हुए देख रहा था। और सोच रहा था कि अगर मैं उसकी मोहब्बत जीत सका। तो ऐसी अनगिनत हारें मुझे क़ुबूल होंगी।
रात गहराने लगी थी। चाँद के आसपास उड़ रहे काले बादल छट चुके थे। लगता था जैसे गहराती रात में कोई सुनार चाँदी भर रहा हो।
कैफ़े के ट्रांसपेरेंट दरवाज़े से उसने बाहर देखा। चाँद जैसे पोर्च में उतर आया हो और उसे बुला रहा हो। - अपनी एडमायरर को अपने पास।
उसने अपना रिज़ोटो ख़त्म किया और वेटर को इशारे से बिल दे देने को कहा। मैं अब तक अपना लज़ानिया नहीं खा सका था। मैंने उसे छोड़ देना ठीक समझा। और खाना बंद कर दिया।
“आई एम फ़ुल।” मैंने अपने सीने पर हाथ रखा और अपनी गर्दन को पीछे की ओर मोड़ते हुए एक गहरी साँस ली।
“यू आर गॉना लीव देट?” उसके माथे पर लकीरें खिंच आईं।
“यस! आई एम डन।” मैंने अपने गिलास को पानी से भरते हुए कहा।
“डोंट! गेट इट पैक्ड। घर पर खा लेना।” उसने मुझे समझाते हुए कहा।
“घर है ही कहाँ। फ्लैट है यहाँ तो।” मैं कुछ ज़ोर से बोल पड़ा।
कभी-कभी किसी बातचीत के बीच अचानक हम कुछ ऐसा बोल जाते हैं, जिसका संबंध उस बातचीत नहीं होता। लेकिन हमारे मन को चुभ रही उस टीस से होता है, जिसके बारे में हम कभी किसी से बात नहीं करते।
“तो फ़्लैट में खा लेना सर!” वो नहीं चाहती थी कि किसी भी तरह खाने की बर्बादी हो।
“मुझे अब भूख नहीं। और फ़्लैट पर फ्रिज नहीं है। सुबह तक वैसे भी ख़राब हो जाएगा। फेंकना ही पड़ेगा। मैं फेकूँगा या ये फेंकेंगे।” वेटर हमारी टेबल के पास आया और बिल वहाँ रख कर चला गया।
इससे पहले कि वो देखे भी, मैंने बिल ले लिया। और पेमेंट कर दी। उत्तर भारतीय लड़कों के दिमाग़ में पत्थर सी स्थापित एक और आदत को मैंने उस रोज़ पहचाना।
हम दोनों टेबल से उठे और दरवाज़े की ओर बढ़ गए। वो आगे, मैं पीछे। दरवाज़ा खोलते हुए उसने एक बार टेबल पर रखे लज़ानिया को देखा। और फिर मुड़कर मुझे।
“वैरी बैड हैबिट दिस इस। खाने को इस तरह वेस्ट करना।” उसने दरवाज़ा खोला और सीढ़ियों से होते हुए नीचे कैफ़े के पोर्च में पहुँच गई। उसकी नज़रों ने मुझे एक अपराधी बना दिया था।
वो पोर्च में भी नहीं रुकी और सीधे कैफ़े के बाहर फ़ुटपाथ पर जाकर खड़ी हो गई। उस रात का पूरा चाँद वहाँ उसका इंतज़ार कर रहा था।
मैं कैफ़े की सीढ़ियों पर ही ठिठक गया। और उसे देखने लगा। - चाँद को देखते हुए। चाँद के पीछे वो, उसके पीछे मैं।
पोर्च की छत से हो चुकी बारिश का पानी सिप-सिप नीचे टपक रहा था। वहाँ रखे गमलों से पौधों की सब्ज़ ख़ुशबू उठ रही थी। कैफ़े की सीढ़ियों से फ़ुटपाथ तक का रास्ता रूपहली चाँदनी में चमक रहा था। और उसी रास्ते के अंत पर वो खड़ी थी। - अपने फ़ोन से पूरे चाँद की तस्वीरें लेते हुए। मैं वहीं उसके साथ जाकर खड़ा हो गया।
“कुछ एक ऐब तो सब में होते हैं। क्या तुम्हें कोई बुरी आदत नहीं?” मैंने उससे पूछा। वो अपलक चाँद को देखे जा रही थी।
“मम्म….नहीं।” उसने सिर्फ़ इतना कहा और ऊपर आसमान में देखते देखते ही फ़ुटपाथ से नीचे सड़क पर उतर गई।
मैंने भी फ़ुटपाथ छोड़ दी। और हम दोनों बारिश से बने चहबचों से बचते हुए, लैंप पोस्ट के उजास में चुपचाप चलने लगे।
“तुम्हारी पहली बुरी आदत मैं होना चाहूँगा।” मैंने चलते हुए सोचा। पर बोला नहीं।
चाँद अब अपने उरूज़ पर था। सड़क किनारे लगे पेड़ ऐसे दमक रहे थे मानों हर एक की शाख़ों से कोई छोटा चाँद उभर रहा हो। हवा का बहाव थमा हुआ था। ज़मीन से उमस उठ रही थी। और हम चल रहे थे - लगभग निर्जन हो चुकी सड़क पर, पूरे चाँद की निगरानी में।
“इट्स लेट।” उसने हमारे बीच चल रहे चुप को हल्के से पीछे धकेलते हुए कहा।
“इज़ इट?” मैं दूर सड़क के अंत को देख रहा था।
“हाँ भाई! काफ़ी रात हो चुकी है। वी शुड हेड होम नाउ।” उसने निर्णायक स्वर में कहा।
“होम है ही कहाँ, फ़्लैट है। बताया तो था। घर जाने का समय हुआ करता है। फ़्लैट पर जाने का कोई समय नहीं होता।जाना है जाओ, नहीं जाना मत जाओ। किसी को क्या फ़र्क़ पड़ता है।” मैं अब अपने पाँवों को चलते हुए देख रहा था।
“तो क्या मेरे घर चलोगे?” वो रुक गई।
“चलूँ क्या?” मैं ठहर गया।
“चलोगे?” वो रुकी रही।
“चलूँगा।” मैं ठहरा रहा।
और प्रसिद्ध गीत के अनुसार ज़मीं का चलना मुझे महसूस हुआ।
हम दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कुराए। और फिर आगे बढ़कर उसने एक टैक्सी रुकवा ली। टैक्सी वाला वहाँ जाने को तैयार हो गया जहां हमें जाना था। - उसके घर।
उसने टैक्सी का गेट खोला और फिर एक झलक पूरे चाँद को देखा। मैंने टैक्सी का दूसरा गेट खोला और एक क्षण को उस मौन संवाद को सुनने की कोशिश कि जो उसके और पूरे चाँद के बीच चल रहा था।
हम दोनों एक साथ अंदर बैठे। और टैक्सी चल पड़ी।
मैंने पीछे मुड़कर एक बार उस सड़क को देखा जिसपर हम चले थे। सुनसान, निश्चल - चलते पैरों के इंतज़ार में।
मैंने देखा कि सड़क पर गहराए चहबचों में कई चाँद चमक रहे हैं। और हर चाँद के पास एक बिल्ली है। जो उसमें अपने प्रतिबिंब को देख रही है।
जैसे-जैसे हमारी टैक्सी आगे बढ़ती जाती। वैसे-वैसे पीछे छूटती सड़क पर अंधकार बढ़ता जाता। पूरा चाँद हमारे पीछे हो लिया था। और हम उसकी आगवानी कर रहे थे।
हम दोनों अपनी-अपनी खिड़कियों से बाहर देख रहे थे। सकरी सड़कों के जाल से निकलकर टैक्सी अब हाईवे पर दौड़ रही थी।
मैं फ़लकबोस इमारतों को आसमान के तल से टकराते देख रहा था। कि यकायक एक दचके से मेरा ध्यान टैक्सी में लौट आया। मैंने उसकी ओर देखा। वह खिड़की के शीशे से सर टिकाए चाँद को देख रही थी। उसके चेहरे पर ग़ज़ब का ठहराव था। मैं जिस में रह जाना चाहता था।
“बाई दी वे। मैं तुम्हारे घर तक चल रहा हूँ। तुम्हारे घर में नहीं। राइट?” वो अब भी शीशे से बाहर देख रही थी।
“राइट!” उसने म्लान सी मुस्कान के साथ कहा। उसका ध्यान भी अब टैक्सी के अंदर था।
“अगर मैंने ये सवाल न पूछा होता। तो शायद! आज मैं उसके घर में जाता, सिर्फ़ घर तक नहीं।” मैंने सोचा।
हम दोनों सामने टैक्सी की विंडशील्ड को देख रहे थे। खिड़कियाँ हम दोनों को देख रही थीं।
“आपने कहा आप हेल्थ इशूज़ की वजह से मिल नहीं पा रही थीं। और जब मैंने उनके बारे में पूछा तो आपका जवाब था कि - लंबी कहानी है। क्या है वो कहानी?” मुझे लगा मैंने कुछ ऐसा पूछ लिया है जिसका उत्तर देने में वो सहज नहीं होगी।
“लाँग बैक। आई मीन व्हेन आई वॉज़ लाइक थर्टीन-फ़ोर्टीन। वी मेट विथ ऐन एक्सीडेंट।”
“वी?” मैं कुछ घबरा गया।
“मी, माय पैरेंट्स, भाई और एक कज़िन। हम सब कार से देहरादून जा रहे थे। वी यूज्ड टू लिव इन UP उस वक़्त। उसी जर्नी के दौरान हमारी कार डिसबैलेंस होकर रोड से उतर गई। और एक पेड़ में जाके क्रैश हो गई।” वो दृश्य ब दृश्य मुझे सब बताने लगी। जैसे उसके साथ वो सबकुछ फिर घट रहा हो, जिसे वह संभवतः भुला देना चाहती है।
उसे सुनते हुए मैं उसका हाथ थामकर बैठना चाहता था। मगर मैं अपनी साँसें थामकर बैठा रहा।
“उस एक्सीडेंट में सबको चोटें आईं। सिर्फ़ मुझे नहीं। सबको लगा कि आई एम ब्लेस्ड ऑर लकी। लेकिन इन्सिडेन्स के दस-पंद्रह दिन बाद मेरे जॉज़, और सर में दर्द शुरू हुआ। वी वेंट टू ए डॉक्टर एंड गॉट टू नो दैट आई हेव माइनर फ़्रैक्चर्स। तब से अब तक आई कीप ऑन गेटिंग ट्रीटमेंट्स एंड थेरेपी सेशंस। दी पेन समटाइम्स इस अनबियरेबल” वो कुछ देर के लिये एकदम चुप हो गई। और हाथ में हाथ डाले मेरे पीछे खिड़की से बाहर देखने लगी।
“वही चोट सबसे गहरी और दर्दनाक होती है, जो नंगी आँखों से दिखाई नहीं देती।” मैं उस क्षण उसके दोनों हाथ अपने हाथ में लेना चाहता था। उसके माथे पर अपना माथा रखना चाहता था। और उससे कहना चाहता था कि - मैं हूँ। मगर क्या वो ये सुनना चाहती थी? मैं नहीं जानता।
हम उसके घर के क़रीब पहुँच गये थे। टैक्सी फिर से तंग गलियों के एक जाल में प्रवेश कर गई थी।
“क्या कहानी ख़त्म हो गई?” मैंने और सुनने की आशा में पूछा।
“घर तक के लिये इतनी ही है।” उसने अपना मुँह टैक्सी ड्राइवर की ओर कर दिया। और उससे रुक जाने को कहा। उसका घर आ गया था।
टैक्सी रिहायशी इमारतों से घिरी एक निर्जन सड़क के किनारे खड़ी हो गई। हम नीचे उतर आए और वो टैक्सी वाले को रुपये देने के लिए आगे बढ़ी।
“वेट। मैं इसी से अपने रूम तक चला जाऊँगा। वहीं आई विल पे हिम।” मैंने उसे रोकते हुए कहा।
“ओके।” उसने नज़र उठाकर चाँद को देखा - जो अब तक आसमान को आलोकित कर रहा था। और फिर उसकी निगाह एक बिल्डिंग पर ठहर गई। हम उसकी सोसाइटी के बाहर खड़े हुए थे।
“ज़रा रुकना भाई। हमें अभी और आगे जाना है।” मैंने टैक्सी वाले से कहा।
मैं उस तक पहुँचा और फिर हम उसकी सोसाइटी के गेट तक साथ चले। - चुपचाप। उस रात की तरह।
गेट पर पहुँचकर हम दोनों एक दूसरे के आमने-सामने हुए। वो मुझसे गले लगने के लिए आगे बढ़ी और मैंने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। अजीब दृश्य था। कुछ बचकाना, कुछ मासूम। हम दोनों असमंजस में पड़ गए। और फिर बस मुस्कुराकर रह गए। हमें सिर्फ़ चाँद ने देखा। और किसी ने नहीं।
वो मुड़कर अपनी सोसाइटी में जाने लगी। मैं वहीं खड़ा रहा, जहां तक हम साथ चले थे।
“व्हेन विल वी मीट अगेन?” मैंने उसके कुछ आगे चले जाने के बाद पूछा।
“आई डोंट नो।” उसने पलटकर मुझे एक झलक देखा। और चाँद के आलोक में दमकती हुई भीतर चली गई।
इसी बीच टैक्सी मेरे ठीक पीछे आकर खड़ी हो गई। मैं उसमें बैठा, और अपने फ़्लैट की जानिब जाने लगा।
बादलों की आमद से आकाश में अंधेरा घिरने लगा था। सारी रात साथ चला चाँद अब दिखाई नहीं दे रहा था। जैसे उसके इंतज़ार में वहीं सोसाइटी के गेट पर ठिठक गया हो।
सड़क किनारे खड़ी गुमठियों की कच्ची छतें हवा में हिल रही थीं। पानी की बूँदें टैक्सी की छत पर उतरकर शीशों के रास्ते नीचे आ रही थीं। और मैं ये सब देखते हुए उसे सोच रहा था। - अपने पास। अपने साथ।
किसी के साथ की झूठी उम्मीद इंसान को बहुत अकेला कर देती है। मैं अचानक बहुत अकेला महसूस कर रहा था। यथार्थ में शुरू हुई एक और कहानी को पूरा करने का ज़िम्मा मेरी कल्पनाओं पर आ गया था।
मैंने खिड़की का शीशा नीचे किया और अपना सर बाहर हवा में दे दिया। मेरे बाल हवा से उलझने लगे और बारिश को चेहरे ने थाम लिया। स्ट्रीट लाइट की सफ़ेद रौशनी में मैंने उस संवाद को फिर सुना जिसका गवाह चाँद का आलोक था।
“व्हेन विल वी मीट अगेन?”
“आई डोंट नो।”
बादलों की गर्जना बढ़ने लगी। बारिश बोछार की जगह आबशार सी गिरने लगी। और तब मैंने अपना सर अंदर कर लिया। शीशा बंद किया और टैक्सी में वहाँ देखा जहां कुछ वक़्त पहले तक वो बैठी हुई थी।
उसे देखने के लिए मैंने अपना फ़ोन निकाला और उसकी इंस्टाग्राम प्रोफ़ाइल खोली। उसने एक नई स्टोरी अपलोड की थी। -
बारिश, हवा में झूलते पेड़, रूपहले आसमान पर पूरा चाँद, और ज़मीन पर बिल्लियाँ। उसकी स्टोरी में जैसे हमारी पूरी मुलाक़ात थी। बस! एक मैं था - जो नहीं था।