Friday, 22 September 2023

पूरे चाँद की Admirer || हिन्दी कहानी।



हम दोनों पहली बार मिल रहे थे। इससे पहले तक व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर बातचीत होती रही थी। हमारे बीच हुआ हर ऑनलाइन संवाद किसी न किसी मक़सद से था। किसी न किसी काम से जुड़ा हुआ था। यह पहली बार था जब हम ऑफ़लाइन मिल रहे थे और वो भी बिना किसी मक़सद के। या शायद! मेरे पास उस रोज़ उससे मिलने का एक मक़सद तो था - उससे बार बार मिलने का मक़सद।

मैं मुंबई में बतौर इवेंट और आर्टिस्ट मैनेजर काम कर रहा था। और वो आर्टिस्ट थी। मैं उससे ज़िंदगी भर के लिये मैनेज होने का ख़ाब लिए उससे मिल रहा था।

वो मुझसे क्यों मिल रही थी? मैं नहीं जानता था। शायद! वैसे, जैसे कोई भी आर्टिस्ट किसी भी आर्टिस्ट मैनेजर से मिलता है। या शायद! वैसे, जैसे कोई भी किसी से ऑनलाइन मिलने के बाद एक बार उससे ऑफलाइन मिल लेना चाहता है।

हम दोनों शहर के एक नामी कैफ़े में कॉफ़ी पीने के बाद टहल रहे थे। कैफ़े के पीछे सड़कों का एक जाल सा था। उसी जाल में फँसी एक भटकी हुई सड़क पर हम दोनों साथ थे। पास नहीं। सिर्फ़ साथ।

“ग्लैड दैट वी मेट।” हमारे कदम साथ साथ आगे बढ़ रहे थे।

“वी वुड हैव मेट पहले ही। मगर आपका बीज़ी शेड्यूल दोस्त। मैं क्या ही कर सकता था।” मैं सड़क के दोनों तरफ़ लगे पेड़ों को निहारते हुए चल रहा था। मैं उसे निहारते हुए चलना चाहता था।

“अरे यार काफ़ी काम है आजकल। और फिर ऊपर से मेरे हेल्थ इशूज़।” वो अपनी काली ड्रेस को कुछ ठीक करते हुए आगे बढ़ रही थी। उसके काले लिबास से अधिक सफ़ेद उस वक़्त और कुछ नहीं था।

शाम ढल रही थी। सड़क कई कैफ़े और रेस्टोरेंट से घिरी हुई थी। सितंबर के आख़िरी दिन थे। बारिश नहीं थी मगर बारिश की गंध मौसम में बची हुई थी। आसपास एसी महक छाई थी जैसी पुराने घरों की दीवारें से उठती है। उनके सील जाने पर।

हरहराते पेड़ों के नीचे लैंप पोस्ट जल उठे थे। और एक के बाद एक सभी कैफ़े और रेस्टोरेंट लोगों की आमद से खिल रहे थे।

प्लेटों, चम्मचों, और गिलासों के टकराने की आवाज़ें आने लगी थीं। लोगों को हंसते हुए सुना जा सकता था।

“कैसे हेल्थ इशूज़?” मैंने कुछ हिचकिचाते हुए पूछा।

“कहानी है। लंबी है लेकिन।” उसने मुझे देखा।

“सुनाने वाली आप हो तो फिर लंबी से लंबी कहानी सुनी जा सकती है।” मैंने कहा। उसके साथ फ़्लर्ट करने का मेरा ये पहला अटेम्प्ट था।

वो मुस्कुराने लगी। मैं मन ही मन शर्माने लगा। फिर मुझे देखते हुए वो यकदम मेरे बग़ल से होते हुए सड़क किनारे एक कार के पास जाकर खड़ी हो गई। कार के ऊपर एक चितकबरी बिल्ली बैठी हुई थी। वो उसका सर सहलाने लगी। और फिर मैंने देखा कि वो उससे बात करने लगी है। वो लगभग पाँच मिनिट वहाँ रही। उसने अपने फ़ोन से उस बिल्ली की एक फ़ोटो ली और फिर वापस मेरे साथ आ गई। मेरे पास नहीं।

“टू क्यूट।” उसने अपना फ़ोन देखते हुए कहा।

“टू क्यूट।” मैंने उसे देखते हुआ सोचा।

वो अपने फ़ोन ही को देखते हुए आगे बढ़ रही थी। मैं ऊपर आकाश में किसी बातचीत का कोई सिरा तलाशते हुए चल रहा था।

शाम का बैंगनी आसमान धीरे-धीरे सियाह होने लगा था। पेड़ों के रास्ते हवा का आना-जाना चल रहा था।

बादलों के जो इक्के-दुक्के फ़ाये कुछ देर पहले तक आकाश में थे, अब वो अंधेरे में लोप हो गए थे। चाँद जो पहले से आसमान के शिखर पर था, रात के वहाँ फैल जाने से नुमाया होने लगा था। जैसे ब्लैकबोर्ड पर चॉक से बनी कोई आकृति हो।

क़तार में खड़ी लैंप पोस्ट्स का उजाला सड़क पर हावी था। अगर मेरा ध्यान आसमान पर न होता तो मुझे मालूम नहीं चलता कि वहाँ चाँद ने दस्तक दे दी है।

लगभग दो मिनिट तक चाँद का आने देखने के बाद जब मैंने वापस आँखें उसकी ओर कीं तो देखा कि अब उसकी आँखें आसमान में खोई हुई हैं। जब मैं आकाश में डूबा हुआ था, क्या तब उसकी आँखें मुझ पर लगी थीं? मैंने सोचा। और सोचते ही एक झुरझुरी मेरे शरीर में दौड़ गई।

“फ़ुल मून नाईट।” उसके होंठ बुदबुदा रहे थे। वो रात पूरे चाँद की थी।

“हैप्पी फ़ुल मून टू यू।” वो अपने फ़ोन से बिल्ली की तरह चाँद की भी तस्वीर निकालने लगी। पूरे चाँद को देखकर उसका चेहरा चाँद ही सा दमकने लगा। वो पूरे चाँद की पक्की वाली एडमायरर थी।

मुझे मालूम हो गया कि उसकी दिलचस्पी पूरे आसमान में नहीं। सिर्फ़ उसपर टंगे पूरे चाँद में थी। ठीक वैसे जैसे मेरी उसमें थी।

“जैसे जैसे रात की डेप्थ बढ़ती है। वैसे वैसे चाँद का शेप बढ़ता है। इट इस ऑनली दी डीपेस्ट नाईट, व्हेन वी कैन विटनेस दी ब्राइटेस्ट मून। फ़ुल मून। ब्यूटीफुल नो?” उसने मेरी आँखों में देखते हुए कहा।

फ़िल्म होती तो यही वो दृश्य होता जिसमें हीरो-हिरोइन एक दूसरे को किस करते। लेकिन फ़िल्म नहीं थी। यथार्थ था। यथार्थ में शायद हम दोनों हीरो-हिरोइन तो थे। लेकिन अपनी-अपनी कहानी के। हमारी कहानी एक नहीं थी।

मैंने हाँ में अपना सर हिलाया और उसके फ़ोन में चाँद की तस्वीरें देखने के लिये उसके कुछ और क़रीब चला गया।

हम फ़ोन में देखते हुए आगे चलने लगे। आसपास से लोगों का गुज़रना चलता रहा। सड़क के दोनों तरफ़ रात जगमगाने लगी।

“सो यू आर ए केट पर्सन?” मैंने उससे पूछा। मुझे लगा जैसे मैं इस तरह का सवाल किसी से भी पहली बार पूछ रहा हूँ। जिस परिवेश से मैं आता हूँ वहाँ ऐसे सवाल कोई किसी से नहीं करता।

“आय एम नॉट एक्चुअली।” उसने कुछ हैरानी से कहा। उसके बग़ल से घंटी बजाते हुए एक साइकिल वाला तेज़ी से निकल गया।

“तो फिर?” मैंने अपने दोनों हाथ अपनी जींस के जेबों में डाल रखे थे।

“मुझे डॉग्स ज़्यादा पसंद हैं। घर पर तीन हैं। और वो सब स्ट्रे डॉग्स हैं। हमने उन्हें पाल रखा है। पर हाँ बिल्लियाँ भी पसंद हैं मुझे।” उसके चेहरे पर लगातार चलते रहने से पसीना उभरने लगा था।

फ़िल्म होती तो मैं उसे अपना रूमाल दे रहा होता। मगर ये यथार्थ था। यथार्थ में न मेरे पास रूमाल था और न मैं वो हीरो था जिसके पास हालात के हिसाब से हर चीज़ रहती है।

“इंट्रेस्टिंग।” कहते हुए मैंने अपने सर को वर्टिकली हिलाया। कहने के अगले ही क्षण मैं जान गया कि वहाँ उस जगह उस शब्द का कोई मतलब नहीं था। लेकिन कुछ तो बोलना ही था। सो अंग्रेज़ी का एक आमफ़हम शब्द मैंने बोल दिया। 

मैं जब भी किसी लड़की से बात करता हूँ, अंग्रेज़ी में बोलने लगता हूँ। - ये एक अजीब तरह का फ़ेनोमना है। जिसे मैं आए दिन जीता हूँ।

बारिश की गंध के बीच चलते हुए हमें मालूम ही नहीं चला कि कब हम बारिश के बीच चलने लगे। तेज़ हवा के साथ पानी का एक शॉवर सा गिरने लगा। भुट्टे और मूँगफली बेच रहे कुछ ठेले वाले जो वहीं किनारे पर एक के बाद एक खड़े थे। अपने ठेलों के चारों तरफ़ लगे डंडों पर मोमपप्पड़(प्लास्टिक शीट्स।) चढ़ाने लगे।

कारों पर बैठी बिल्लियाँ आसमान में देखने लगीं। मैंने उनकी आँखों में बारिश को गिरते देखे।

हम दोनों सड़क के कोने-कोने पेड़ों के नीचे चलने लगे। और तभी अचानक एकसाथ सभी लैंप पोस्ट्स बंद हो गयीं। हवा का वेग बढ़ गया। बारिश पहले की ही तरह मद्धम बरसती रही। लैंप पोस्ट्स बंद होते ही, आसमान के सिंहासन पर बैठा चाँद धरती पर आ गया। रात रूपहली हो गई। लगा जैसे सड़क पर चाँदी चढ़ा दी गई हो। पेड़ों पर गिर रहा बारिश का पानी चमकते हुए कारों पर गिरने लगा। हर दूसरी-तीसरी कार पर कोई भूरी, नारंगी, चितकबरी, या सफ़ेद बिल्ली दिखाई दे जाती थी।

बिल्लियों की इस लाइन में हमने देखा कि सबसे आख़िर में एक काली कार पर एक काली बिल्ली बैठी हुई है। हमें लगा जैसे दो हरी आँखें हवा मैं तैर रही हों। और जो तैरते हुए चाँद तक जाना चाहती हों।

वो इस दृश्य को छोड़ नहीं सकती थी। वो दबे पाँव किसी बिल्ली की ही तरह उस काली बिल्ली के पास पहुँची और बारिश की परवाह किए बिना अपने फ़ोन से बिल्ली और उसके ऊपर टंगे गेंद से चाँद की तस्वीरें लेने लगी। पेड़ों से रिस रहा पानी उसके उघड़े कंधों पर गिरता और फिर बाहों के सहारे उसकी मुड़ी हुई कोहनियों तक पहुँचकर नीचे गिर जाता।

मैं उसकी कोहनियों से हो रही बारिश को एकटक देख रहा था। और वो पूरे चाँद की मोहब्बत में मुब्तला थी। वो कुछ आगे निकल गई थी। मैं पीछे से ही उसे निहार रहा था।

“इधर आओ जल्दी।” उसने अपना फ़ोन अपने बैगनुमा पर्स में रख लिया और हाथ के इशारे से मुझे वहाँ बुलाने लगी जहां वो थी - काली बिल्ली के पास।

मैंने कुछ ही कदम बढ़ाये थे कि वो हरी आँखें वहाँ से ग़ायब हो गईं। “उन्हें चाँद मिले।” मैंने सोचा। और उसके बाजू में जाकर खड़ा हो गया।

“मेक ए विश।” उसने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा। और ख़ुद अपने दोनों हाथों को आपस में भींच कर चाँद की तरफ़ देखने लगी।

मैंने पहली बार किसी को टूटते तारों से नहीं। पूरे चाँद के आगे दुआ माँगते देखा था। मैं इस ख़याल की ख़ूबसूरती में इतना मसरूफ़ हो गया कि पूरे चाँद से कुछ नहीं माँग सका। उसने माँग लिया। मैं नहीं जानता क्या।

उसे पूरे चाँद के आगे प्रार्थना में खड़ा देख। मुझे कवि राजेश जोशी की एक कविता याद हो आई। जिसका शीर्षक है - कवि, चाँद और बिल्लियाँ।

मेरे पीछे कारों पर बिल्लियाँ थीं। मेरे ऊपर था पूरा चाँद। और मेरे सामने था उसका(कवि का) दमकता चेहरा। - दुआ में झुका हुआ।

“शुड वी वॉक मोर?” उसने चाँद से अपनी नज़रें हटा लीं। उसकी प्रार्थना पूरी हो गई थी।

“कुछ खा लें? फिर वॉक करते हैं। बारिश में।” मैंने अपने गीले बालों से उँगलियाँ गुज़ारते हुए कहा।

मैंने ये कहा और हठात् मेरे सामने से वुडी एलन की फ़िल्म “मिडनाइट इन पेरिस।” के कुछ दृश्य दौड़ गए।

लैंप पोस्ट्स बंद थे। लेकिन कैफ़े और रेस्टॉरेंट्स से आते उजाले ने फ़ुटपाथ्स को रौशन कर रखा था। हम जो अब तक सड़क की बायीं तरफ़ चल रहे थे, उसके दायीं और आ गए। और फ़ुटपाथ से होते हुए कोई रेस्टोरेंट तलाशने लगे।

भुरभुरी बारिश अब भी हो रही थी। बहुत कम लोगों के हाथों में छाते नज़र आ रहे थे। एक छाता गुठनो के बल हमारी ओर चला आ रहा था। जिसे देख हम मुस्कुराए थे। उसने उसकी भी तस्वीर ले ली थी। - एक छोटा सा बच्चा जो अपने माता-पिता के साथ छाता लिए बारिश से बचता हुआ आगे बढ़ रहा था।

चलते हुए वो एक कैफ़े एंड रेस्टोरेंट के सामने रुक गई।

“यहाँ चलते हैं।” उसने मुझे देखा।

मैंने कुछ नहीं कहा। हम दोनों कैफ़े की ओर मुड़ गए। वो सड़क से अंदर दबा हुआ एक नन्हा कैफ़े था। अंदर दाखिल होते ही पहले एक छोटा सा पोर्च एरिया था और फिर तीन सीढ़ियाँ ऊपर कैफ़े का मैन ईटिंग एरिया। वहीं अंदर ऑर्डर एरिया और रिसेप्शन भी था। पोर्च में बहुत से अनाम पौधे सजे हुए थे। और छत से इलेक्ट्रिक लैंप लटक रहे थे।

बाहर से सीढ़ियों तक के रास्ते पर मिट्टी जैसे रंग की टाइल्स लगी हुई थीं। और सीढ़ियों के ठीक आगे मोटे काँच का एक दरवाज़ा था, जो हरे रंग से रंगी लकड़ियों में फ़्रेम्ड था।

भीतर चोकोर आकार में चार टेबल और उनके इर्द-गिर्द २-२ कुर्सियाँ रखी हुई थीं। 

मैंने उसके लिए दरवाज़ा खोला और वो झुक कर अंदर चली गई। मैं उसके पीछे गया। हम दोनों के पीछे दरवाज़ा बंद हो गया।

हमने एक टेबल लिया और सामने-सामने बैठ गए। 

बाहर लैंप पोस्ट्स फिर जल उठे। बारिश बंद हो गई। भुट्टे और मूँगफली बेच रहे लोगों के ठेलों से उठ रहा धुआँ चाँद तक रास्ता बनाने लगा। अंदर वो अपने चेहरे और बाहों पर जमे पानी को टिशू पेपर से पोंछने लगी। मैं उसे कॉपी करने लगा। और तब मुझे देखकर वो हँस पड़ी।

“व्हाट आर यू डूइंग?” उसने हंसते हुए कहा।

“ड्राइंग माइसेल्फ़। जस्ट लाइक यू।” मैं मुस्कुराया।

“व्हाई लाइक मी?” वेटर ने हमारे बीच पानी के दो गिलास और मिनरल वॉटर की एक बोतल रख दी। ठीक इसके बाद उसने वहाँ का मेन्यू भी टेबल पर एक सिमेट्री में रख दिया।

“व्हाई नॉट लाइक यू?” मैंने बोतल खोली और अपने पास रखे गिलास को भरकर पानी के दो-तीन घूँट लिए। पानी पीते हुए मुझे लगा कि क़ायदे से मुझे पहले उसे पानी ऑफ़र करना चाहिए था। ख़ुद कुर्सी पर बैठ जाने से पहले उसके लिए कुर्सी पीछे करनी चाहिए थी। उससे पूछना चाहिए था कि कहीं भीगते रहने की वजह से उसे ठंड तो नहीं लग रही। मुझे एक झटके में अपनी सभी ग़लतियों का एहसास हो गया।

हालाँकि हम दोनों की मुलाक़ात कोई डेट नहीं थी। मिलने की योजना बनाते हुए हम में से किसी ने भी “डेट” लफ़्ज़ का इस्तेमाल नहीं किया था। लेकिन सिर्फ़ डेट पर ही एक जेंटलमैन की तरह बर्ताव किया जाए - ऐसा कहाँ लिखा है?

मैं उस क्षण मन ही मन पछताने लगा। और मुझे मालूम हो गया कि लड़कियों के साथ पेश आने के मामले में उत्तर भारतीय लड़कों के बेसिक्स ही हिले हुए हैं।

“प्लेइंग विथ वर्ड्स एंड ऑल। ऑफ़कोर्स यू आर ए पोएट। नाउ आई कैन सी इट वैरी क्लियरली।” उसने भी अपना गिलास भरा और पानी पीने लगी।

“देन! व्हाट विल यू हेव सर?” उसने मेन्यू अपने हाथ में ले लिया।

“दोस्त मुझे तो ये फैंसी मेन्यू समझ ही नहीं आते। तुम जो चाहो मँगवा लो।”

मेन्यू का कवर देख कर ही मैं समझ गया था कि उसके अंदर इस्तेमाल की गई भाषा मेरे पल्ले नहीं पड़ेगी। मैं ऐसे मेन्यू पहले देख चुका था जिनमें लिखी चीज़ों को पढ़कर ये बताया नहीं जा सकता था कि उनमें खाने की आख़िर कौनसी चीज़ आएगी।

“फ़ूड शुड लुक गुड। टेस्ट इस सेकेंडरी।” - इस देश के लगभग सभी आलीशान रेस्टोरेंट इसी कथन पर चल रहे हैं।

“आई विल हैव रिज़ोटो। यू हैव लज़ानिया?” उसकी आँखें मेन्यू पर गढ़ी हुई थीं।

“श्योर।” मैंने लज़ानिया का नाम तो सुन रखा था। लेकिन उस रात पहली बार उसे खाया।

“ओके! लेट्स ऑर्डर अवर इटैलियन डिनर।” उसने वेटर को हमारा ऑर्डर लिखवाया और फिर अपनी कुर्सी पर थोड़ा आगे सरक आई। अपने दोनों हाथ उसने एक के ऊपर एक टेबल पर रख दिये। और मुझे देखते हुए अपनी दोनों बोहें उचकाईं।

“कुछ कहो।” उसने इशारे से कहा।

“तो तुम्हें कुत्ते पसंद हैं?” मैंने पूछा। कुछ निश्चित जगहों पर कुछ शब्दों का उपयोग उनके अंग्रेज़ी अनुवाद में ही किया जाये तो बेहतर। पूछ लेने के बाद मुझे लगा।

“हाँ। हैदराबाद में तीन हैं हमारे पास। बताया था मैंने शायद?” उसकी आवाज़ पूरे कैफ़े में गूंज गई। वहाँ उस वक़्त हम दोनों के अलावा सिर्फ़ वहाँ का स्टाफ़ था।

“यस यू टोल्ड मी अभी बाहर ही। वैसे मेरे पापा की एक थ्योरी है कुत्तों को लेकर। बुरा न मानों तो बताऊँ। बेसिकली इट्स ऐन अनपॉपुलर ओपिनियन।” मैंने थोड़ा झेंपते हुए कहा।

उसने एक गहरी साँस ली। मैंने कैफ़े की सफ़ेद दीवार के आगे उसकी काली ड्रेस को साँस लेते हुए देखा।

“गो ऑन। बताओ क्या है तुम्हारा अनपॉपुलर ओपिनियन।” उसने हल्की हंसी के साथ कहा। वो मेरे डर को समझ रही थी। उसकी हंसी में मेरे लिए सहानुभूति थी।

“देखो दुनिया का हर पालतू जानवर अपने मालिक के प्रति वफ़ादार रहता है। मेरे और मेरे पिताजी के ख़याल से कुत्ते वफ़ादार से ज़्यादा चापलूस होते हैं। हमेशा मलिक के आगे-पीछे दुम हिलाये, जीभ निकाले घूमते रहते हैं। मालिक चाहे जो करे - चापलूस कुत्तों की नज़र में सब सही ही होता है। और इसलिए वो हमेशा उसकी जय-जयकार में भौंकते नज़र आते हैं। बदले में वो मालिक का प्यार, दुलार,लाड़, संरक्षण पाते हैं। और साथ ही उन्हें मिलता है अपनी चापलूसी का इनाम जैसे दूध-बिस्किट, ब्रेड, मछली, मीट इत्यादि इत्यादि। जितनी आला चापलूसी उतना आला इनाम।

कोई हैरानी नहीं कि इस देश के लगभग हर नेता, अभिनेता, उद्योगपति के पास चापलूस कुत्ते हैं। किसी के पास एक, किसी के पास दो, किसी के पास दो सौ, किसी के पास दो हज़ार और कहीं कहीं तो इससे भी ज़्यादा।

समाज के हर संपन्न व्यक्ति को ये भ्रम होता है कि वही सर्वश्रेष्ठ है, वह सब जानता है, उसे हर कोई मानता है। उससे बेहतर कोई नहीं, उसके ऊपर कोई नहीं। - उसके आसपास मौजूद कुत्तों की चापलूसी उसके इसी भ्रम को पौषित करती है। और बदले में वो कुत्तों के पौषण का ध्यान रखता है। ये एक तरह का बारटार सिस्टम है जो युग-युगांतर से चला आ रहा है। और इस सृष्टि के विनाश तक चलता रहेगा।”

मैंने अपनी बात को किसी स्पीच की तरह कह डाला। और फिर पानी के तीन-चार घूँट लिए। मुझे लगा जैसे मैंने संसद में कोई भाषण दिया हो और अब मेरे साथी सांसद मेरे लिये मेज़ थपथपायेंगे।

“ओके! आई मीन नेवर थॉट अबाउट इट देट वे। बट स्टिल आई लव डॉग्स। एंड नॉट जस्ट मी, माय होल फ़ैमिली लव्ज़ देम। तुम्हारी इस स्पीच से मेरी सोच नहीं बदलने वाली। समझे न।” उसने लगभग चेतावनी के स्वर में कहा।

“मैं तुम्हारी सोच बदलना भी नहीं चाहता दोस्त। कहा था न - बस एक अनपॉपुलर ओपिनियन है।” मुझे उसके चेहरे पर झीना सा लालपन नज़र आया। कैफ़े की उजली पीली रौशनी में मैं उसके गालों को खिलते हुए देख रहा था। कि तभी टेबलों के बीच से जगह बनाते हुए वेटर हमारे पास पहुँच गया।

उसका रिज़ोटो और मेरा लज़ानिया सर्व हो चुका था। मगर खाना शुरू करने से पहले शायद वो कुछ कहना चाहती थी।

वो सामने देख रही थी। मगर सामने मौजूद किसी चीज़, या किसी शख़्स को नहीं। निस्संग अपनी सोच में या तो वो अपने अतीत की यादों में झांक रही थी या फिर भविष्य की कल्पनाओं में।

उस वक़्त उसकी आँखों में जैसे समय के तीनों डायमेंशन एक साथ उतर आए थे। वो कहीं भी आ-जा सकती थी। और किसी को कुछ पता नहीं चलने वाला था।

“एनीथिंग एल्स सर?” वेटर ने मुझसे पूछा। उसने कटलरी के दो सेट हमारी टेबल पर रख दिये।

“दिस वुड बी ऑल।” मैंने कहा।

वो सुदूर समय से लौट आई। उसकी आँखें अब वर्तमान में थीं। अपने रिज़ोटो पर।

“व्हाट वर यू थिंकिंग?” मैंने उसे जिज्ञासा से देखा।

“डॉग्स। अपने तीनों प्यारे कुत्तों के बारे में सोच रही थी। हैदराबाद में पापा-मम्मी एक सरकारी कॉटेज में रहते हैं। मैं यहाँ इस शहर में हूँ। मेरा भाई बैंगलोर में है। सुबह जब पापा कॉलेज निकल जाते हैं - तो मम्मी के साथ हमारे तीनों कुत्ते ही रहते हैं। उन्हें खिलाना, पिलाना, बाहर घुमाना, उनका ध्यान रखना - सब मेरी मम्मी करती हैं। और यही सब वो भी करते हैं - मम्मी के लिए।

तुम्हें पता है? कुत्ते इंसान का सुख और दुख दोनों सूंघ लेते हैं। तुम्हारी ख़ुशी में वो बच्चों से उछलते-कूदते हैं, भौंकते हैं, लौटते हैं, तुम पर चढ़ जाते हैं, तुम्हें चाटते हैं। और तुम्हारे दुख में? वो तुम्हारे साथ चुपचाप बैठे रहते हैं। एक आवाज़। एक आवाज़ भी नहीं करते। ऐसे सियाह, गमगीन सन्नाटे में जब तुम उनकी आँखों में देखोगे तो महसूस करोगे कि अगर कुछ और देर तुम दुखी रहे, तो तुम्हारे साथ बैठे कुत्ते बोल पड़ेंगे। बोल पड़ेंगे कि - हम हैं।” उसकी पलकों पर आँसू ऐसे ठहर गए जैसे पत्तियों पर ओस की बूँदें ठहर जाया करती हैं। उसका चेहरा पहले से अधिक लाल हो गया।

मेरी स्पीच पर किसी ने मेज़ नहीं थपथपाई थी। मगर उसकी काउंटर-स्पीच पर मैंने मेज़ को धीरे से थपथपा दिया।

“लाँग लिव दी डॉग्स, मैम।” मैंने रिज़ोटो की प्लेट उसके और पास सरका दी।

“यू लॉस्ट दी डिबेट।” अपने आंसुओं को टिशूपेपर से पोंछते हुए वो हंसी।

“हंड्रेड परसेंट। आई एक्सेप्ट माई डिफ़ीट।” मैंने उसकी ओर हाथ बढ़ाया। हमने हाथ मिलाया और आख़िरकार डिनर करना शुरू किया।

मैं उसे खाते हुए देख रहा था। और सोच रहा था कि अगर मैं उसकी मोहब्बत जीत सका। तो ऐसी अनगिनत हारें मुझे क़ुबूल होंगी।

रात गहराने लगी थी। चाँद के आसपास उड़ रहे काले बादल छट चुके थे। लगता था जैसे गहराती रात में कोई सुनार चाँदी भर रहा हो।

कैफ़े के ट्रांसपेरेंट दरवाज़े से उसने बाहर देखा। चाँद जैसे पोर्च में उतर आया हो और उसे बुला रहा हो। - अपनी एडमायरर को अपने पास।

उसने अपना रिज़ोटो ख़त्म किया और वेटर को इशारे से बिल दे देने को कहा। मैं अब तक अपना लज़ानिया नहीं खा सका था। मैंने उसे छोड़ देना ठीक समझा। और खाना बंद कर दिया।

“आई एम फ़ुल।” मैंने अपने सीने पर हाथ रखा और अपनी गर्दन को पीछे की ओर मोड़ते हुए एक गहरी साँस ली।

“यू आर गॉना लीव देट?” उसके माथे पर लकीरें खिंच आईं।

“यस! आई एम डन।” मैंने अपने गिलास को पानी से भरते हुए कहा।

“डोंट! गेट इट पैक्ड। घर पर खा लेना।” उसने मुझे समझाते हुए कहा।

“घर है ही कहाँ। फ्लैट है यहाँ तो।” मैं कुछ ज़ोर से बोल पड़ा। 

कभी-कभी किसी बातचीत के बीच अचानक हम कुछ ऐसा बोल जाते हैं, जिसका संबंध उस बातचीत नहीं होता। लेकिन हमारे मन को चुभ रही उस टीस से होता है, जिसके बारे में हम कभी किसी से बात नहीं करते।

“तो फ़्लैट में खा लेना सर!” वो नहीं चाहती थी कि किसी भी तरह खाने की बर्बादी हो।

“मुझे अब भूख नहीं। और फ़्लैट पर फ्रिज नहीं है। सुबह तक वैसे भी ख़राब हो जाएगा। फेंकना ही पड़ेगा। मैं फेकूँगा या ये फेंकेंगे।” वेटर हमारी टेबल के पास आया और बिल वहाँ रख कर चला गया।

इससे पहले कि वो देखे भी, मैंने बिल ले लिया। और पेमेंट कर दी। उत्तर भारतीय लड़कों के दिमाग़ में पत्थर सी स्थापित एक और आदत को मैंने उस रोज़ पहचाना।

हम दोनों टेबल से उठे और दरवाज़े की ओर बढ़ गए। वो आगे, मैं पीछे। दरवाज़ा खोलते हुए उसने एक बार टेबल पर रखे लज़ानिया को देखा। और फिर मुड़कर मुझे।

“वैरी बैड हैबिट दिस इस। खाने को इस तरह वेस्ट करना।” उसने दरवाज़ा खोला और सीढ़ियों से होते हुए नीचे कैफ़े के पोर्च में पहुँच गई। उसकी नज़रों ने मुझे एक अपराधी बना दिया था।

वो पोर्च में भी नहीं रुकी और सीधे कैफ़े के बाहर फ़ुटपाथ पर जाकर खड़ी हो गई। उस रात का पूरा चाँद वहाँ उसका इंतज़ार कर रहा था।

मैं कैफ़े की सीढ़ियों पर ही ठिठक गया। और उसे देखने लगा। - चाँद को देखते हुए। चाँद के पीछे वो, उसके पीछे मैं।

पोर्च की छत से हो चुकी बारिश का पानी सिप-सिप नीचे टपक रहा था। वहाँ रखे गमलों से पौधों की सब्ज़ ख़ुशबू उठ रही थी। कैफ़े की सीढ़ियों से फ़ुटपाथ तक का रास्ता रूपहली चाँदनी में चमक रहा था। और उसी रास्ते के अंत पर वो खड़ी थी। - अपने फ़ोन से पूरे चाँद की तस्वीरें लेते हुए। मैं वहीं उसके साथ जाकर खड़ा हो गया।

“कुछ एक ऐब तो सब में होते हैं। क्या तुम्हें कोई बुरी आदत नहीं?” मैंने उससे पूछा। वो अपलक चाँद को देखे जा रही थी।

“मम्म….नहीं।” उसने सिर्फ़ इतना कहा और ऊपर आसमान में देखते देखते ही फ़ुटपाथ से नीचे सड़क पर उतर गई।

मैंने भी फ़ुटपाथ छोड़ दी। और हम दोनों बारिश से बने चहबचों से बचते हुए, लैंप पोस्ट के उजास में चुपचाप चलने लगे। 

“तुम्हारी पहली बुरी आदत मैं होना चाहूँगा।” मैंने चलते हुए सोचा। पर बोला नहीं।

चाँद अब अपने उरूज़ पर था। सड़क किनारे लगे पेड़ ऐसे दमक रहे थे मानों हर एक की शाख़ों से कोई छोटा चाँद उभर रहा हो। हवा का बहाव थमा हुआ था। ज़मीन से उमस उठ रही थी। और हम चल रहे थे - लगभग निर्जन हो चुकी सड़क पर, पूरे चाँद की निगरानी में।

“इट्स लेट।” उसने हमारे बीच चल रहे चुप को हल्के से पीछे धकेलते हुए कहा।

“इज़ इट?” मैं दूर सड़क के अंत को देख रहा था।

“हाँ भाई! काफ़ी रात हो चुकी है। वी शुड हेड होम नाउ।” उसने निर्णायक स्वर में कहा।

“होम है ही कहाँ, फ़्लैट है। बताया तो था। घर जाने का समय हुआ करता है। फ़्लैट पर जाने का कोई समय नहीं होता।जाना है जाओ, नहीं जाना मत जाओ। किसी को क्या फ़र्क़ पड़ता है।” मैं अब अपने पाँवों को चलते हुए देख रहा था।

“तो क्या मेरे घर चलोगे?” वो रुक गई।

“चलूँ क्या?” मैं ठहर गया।

“चलोगे?” वो रुकी रही।

“चलूँगा।” मैं ठहरा रहा।

और प्रसिद्ध गीत के अनुसार ज़मीं का चलना मुझे महसूस हुआ।

हम दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कुराए। और फिर आगे बढ़कर उसने एक टैक्सी रुकवा ली। टैक्सी वाला वहाँ जाने को तैयार हो गया जहां हमें जाना था। - उसके घर।

उसने टैक्सी का गेट खोला और फिर एक झलक पूरे चाँद को देखा। मैंने टैक्सी का दूसरा गेट खोला और एक क्षण को उस मौन संवाद को सुनने की कोशिश कि जो उसके और पूरे चाँद के बीच चल रहा था।

हम दोनों एक साथ अंदर बैठे। और टैक्सी चल पड़ी।

मैंने पीछे मुड़कर एक बार उस सड़क को देखा जिसपर हम चले थे। सुनसान, निश्चल - चलते पैरों के इंतज़ार में।

मैंने देखा कि सड़क पर गहराए चहबचों में कई चाँद चमक रहे हैं। और हर चाँद के पास एक बिल्ली है। जो उसमें अपने प्रतिबिंब को देख रही है।

जैसे-जैसे हमारी टैक्सी आगे बढ़ती जाती। वैसे-वैसे पीछे छूटती सड़क पर अंधकार बढ़ता जाता। पूरा चाँद हमारे पीछे हो लिया था। और हम उसकी आगवानी कर रहे थे।

हम दोनों अपनी-अपनी खिड़कियों से बाहर देख रहे थे। सकरी सड़कों के जाल से निकलकर टैक्सी अब हाईवे पर दौड़ रही थी। 

मैं फ़लकबोस इमारतों को आसमान के तल से टकराते देख रहा था। कि यकायक एक दचके से मेरा ध्यान टैक्सी में लौट आया। मैंने उसकी ओर देखा। वह खिड़की के शीशे से सर टिकाए चाँद को देख रही थी। उसके चेहरे पर ग़ज़ब का ठहराव था। मैं जिस में रह जाना चाहता था।

“बाई दी वे। मैं तुम्हारे घर तक चल रहा हूँ। तुम्हारे घर में नहीं। राइट?” वो अब भी शीशे से बाहर देख रही थी।

“राइट!” उसने म्लान सी मुस्कान के साथ कहा। उसका ध्यान भी अब टैक्सी के अंदर था।

“अगर मैंने ये सवाल न पूछा होता। तो शायद! आज मैं उसके घर में जाता, सिर्फ़ घर तक नहीं।” मैंने सोचा।

हम दोनों सामने टैक्सी की विंडशील्ड को देख रहे थे। खिड़कियाँ हम दोनों को देख रही थीं।

“आपने कहा आप हेल्थ इशूज़ की वजह से मिल नहीं पा रही थीं। और जब मैंने उनके बारे में पूछा तो आपका जवाब था कि - लंबी कहानी है। क्या है वो कहानी?” मुझे लगा मैंने कुछ ऐसा पूछ लिया है जिसका उत्तर देने में वो सहज नहीं होगी।

“लाँग बैक। आई मीन व्हेन आई वॉज़ लाइक थर्टीन-फ़ोर्टीन। वी मेट विथ ऐन एक्सीडेंट।”

“वी?” मैं कुछ घबरा गया।

“मी, माय पैरेंट्स, भाई और एक कज़िन। हम सब कार से देहरादून जा रहे थे। वी यूज्ड टू लिव इन UP उस वक़्त। उसी जर्नी के दौरान हमारी कार डिसबैलेंस होकर रोड से उतर गई। और एक पेड़ में जाके क्रैश हो गई।” वो दृश्य ब दृश्य मुझे सब बताने लगी। जैसे उसके साथ वो सबकुछ फिर घट रहा हो, जिसे वह संभवतः भुला देना चाहती है।

उसे सुनते हुए मैं उसका हाथ थामकर बैठना चाहता था। मगर मैं अपनी साँसें थामकर बैठा रहा।

“उस एक्सीडेंट में सबको चोटें आईं। सिर्फ़ मुझे नहीं। सबको लगा कि आई एम ब्लेस्ड ऑर लकी। लेकिन इन्सिडेन्स के दस-पंद्रह दिन बाद मेरे जॉज़, और सर में दर्द शुरू हुआ। वी वेंट टू ए डॉक्टर एंड गॉट टू नो दैट आई हेव माइनर फ़्रैक्चर्स। तब से अब तक आई कीप ऑन गेटिंग ट्रीटमेंट्स एंड थेरेपी सेशंस। दी पेन समटाइम्स इस अनबियरेबल” वो कुछ देर के लिये एकदम चुप हो गई। और हाथ में हाथ डाले मेरे पीछे खिड़की से बाहर देखने लगी।

“वही चोट सबसे गहरी और दर्दनाक होती है, जो नंगी आँखों से दिखाई नहीं देती।” मैं उस क्षण उसके दोनों हाथ अपने हाथ में लेना चाहता था। उसके माथे पर अपना माथा रखना चाहता था। और उससे कहना चाहता था कि - मैं हूँ। मगर क्या वो ये सुनना चाहती थी? मैं नहीं जानता।

हम उसके घर के क़रीब पहुँच गये थे। टैक्सी फिर से तंग गलियों के एक जाल में प्रवेश कर गई थी।

“क्या कहानी ख़त्म हो गई?” मैंने और सुनने की आशा में पूछा।

“घर तक के लिये इतनी ही है।” उसने अपना मुँह टैक्सी ड्राइवर की ओर कर दिया। और उससे रुक जाने को कहा। उसका घर आ गया था।

टैक्सी रिहायशी इमारतों से घिरी एक निर्जन सड़क के किनारे खड़ी हो गई। हम नीचे उतर आए और वो टैक्सी वाले को रुपये देने के लिए आगे बढ़ी।

“वेट। मैं इसी से अपने रूम तक चला जाऊँगा। वहीं आई विल पे हिम।” मैंने उसे रोकते हुए कहा।

“ओके।” उसने नज़र उठाकर चाँद को देखा - जो अब तक आसमान को आलोकित कर रहा था। और फिर उसकी निगाह एक बिल्डिंग पर ठहर गई। हम उसकी सोसाइटी के बाहर खड़े हुए थे।

“ज़रा रुकना भाई। हमें अभी और आगे जाना है।” मैंने टैक्सी वाले से कहा।

मैं उस तक पहुँचा और फिर हम उसकी सोसाइटी के गेट तक साथ चले। - चुपचाप। उस रात की तरह।

गेट पर पहुँचकर हम दोनों एक दूसरे के आमने-सामने हुए। वो मुझसे गले लगने के लिए आगे बढ़ी और मैंने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। अजीब दृश्य था। कुछ बचकाना, कुछ मासूम। हम दोनों असमंजस में पड़ गए। और फिर बस मुस्कुराकर रह गए। हमें सिर्फ़ चाँद ने देखा। और किसी ने नहीं।

वो मुड़कर अपनी सोसाइटी में जाने लगी। मैं वहीं खड़ा रहा, जहां तक हम साथ चले थे।

“व्हेन विल वी मीट अगेन?” मैंने उसके कुछ आगे चले जाने के बाद पूछा।

“आई डोंट नो।” उसने पलटकर मुझे एक झलक देखा। और चाँद के आलोक में दमकती हुई भीतर चली गई।

इसी बीच टैक्सी मेरे ठीक पीछे आकर खड़ी हो गई। मैं उसमें बैठा, और अपने फ़्लैट की जानिब जाने लगा।

बादलों की आमद से आकाश में अंधेरा घिरने लगा था। सारी रात साथ चला चाँद अब दिखाई नहीं दे रहा था। जैसे उसके इंतज़ार में वहीं सोसाइटी के गेट पर ठिठक गया हो।

सड़क किनारे खड़ी गुमठियों की कच्ची छतें हवा में हिल रही थीं। पानी की बूँदें टैक्सी की छत पर उतरकर शीशों के रास्ते नीचे आ रही थीं। और मैं ये सब देखते हुए उसे सोच रहा था। - अपने पास। अपने साथ।

किसी के साथ की झूठी उम्मीद इंसान को बहुत अकेला कर देती है। मैं अचानक बहुत अकेला महसूस कर रहा था। यथार्थ में शुरू हुई एक और कहानी को पूरा करने का ज़िम्मा मेरी कल्पनाओं पर आ गया था।

मैंने खिड़की का शीशा नीचे किया और अपना सर बाहर हवा में दे दिया। मेरे बाल हवा से उलझने लगे और बारिश को चेहरे ने थाम लिया। स्ट्रीट लाइट की सफ़ेद रौशनी में मैंने उस संवाद को फिर सुना जिसका गवाह चाँद का आलोक था।

“व्हेन विल वी मीट अगेन?”

“आई डोंट नो।”

बादलों की गर्जना बढ़ने लगी। बारिश बोछार की जगह आबशार सी गिरने लगी। और तब मैंने अपना सर अंदर कर लिया। शीशा बंद किया और टैक्सी में वहाँ देखा जहां कुछ वक़्त पहले तक वो बैठी हुई थी।

उसे देखने के लिए मैंने अपना फ़ोन निकाला और उसकी इंस्टाग्राम प्रोफ़ाइल खोली। उसने एक नई स्टोरी अपलोड की थी। -

बारिश, हवा में झूलते पेड़, रूपहले आसमान पर पूरा चाँद, और ज़मीन पर बिल्लियाँ। उसकी स्टोरी में जैसे हमारी पूरी मुलाक़ात थी। बस! एक मैं था - जो नहीं था।

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Thursday, 6 July 2023

बहते पानी की Eye-Witness || हिन्दी कहानी।



उन्हें बहता पानी देखना पसंद था। - नदियों, नहरों, समंदरों का। वैसे जैसे मुझे मछलियों, गायों और कछुओं को खाना खाते देखना पसंद है।  मैं उन्हें पानी को देखते देखता और ख़ुद पानी हो जाने के ख़ाब देखने लगता। पानी का कोई रिप्लेसमेंट क्या कभी हो सकता है?

वो उस शाम डूबते सूरज की लाल रौशनी में खड़ी थीं। उनके चारों ओर से कल-कल पानी बह रहा था। पाँव के पंजे पानी में डूबे थे और आँखें आसमान में। वो आसमान को पानी करना चाहती थीं। - ऐसा लग रहा था। हाथ आगे बंधे हुए थे, बाल एक जूड़े में क़ैद - स्वच्छंद होने को आतुर थे। उनके चश्में के काँचों में सूरज डूब रहा था।

किसी झरने से गिरकर कुछ दूर बहने के बाद पानी वहाँ पहुँच रहा था, जहां वो खड़ी थीं। एक बहुत बड़ा स्ट्रेच्ड लैंडस्केप - जहां ज़मीन में जड़े पत्थर थे, उनपर से दौड़ता, उनके नीचे से जगह बनाता, उनसे टकराता, पकड़म-पकड़ाई खेलता पानी था। पानी में कहीं-कहीं बिजली सी गुज़रती मछलियाँ थीं, पनीले पौधों के झुरमुट थे, लाल गेंद सा सूरज था जो दिन का अपना आख़िरी टप्पा ले रहा था, दूर क्षितिज का हाथ थामे एक झरना था, क्षितिज से ही निकलता आसमान था। और उस आसमान को पानी की तरह बहते देखती वो थीं। मैं भी था - इन सब से बहुत पीछे ठहरा हुआ।

वो जिस सिनेमा की नायिका थीं। मैं उसका नायक नहीं था। मैं बस था। शायद! किसी चरित्र भूमिका में।

कॉलेज के शुरुआती दिन थे। फ़र्स्ट ईयर। जून-जुलाई का वक़्त। उस सुबह अंधियारी छाई थी। कम ही लोग कॉलेज आए थे। आर्ट्स स्ट्रीम के कॉलेज में वैसे भी कोई रोज़-रोज़ नहीं आता। यूनिवर्सिटी के बीच पूरे विश्वविद्यालय की सबसे अलहदा बिल्डिंग हमारे कॉलेज की थी। लगभग चार फ्लोर की इमारत थी। जिसकी सीढ़ियों के घुमाओ उसके सामने बिल्कुल बीच में दिखाई देते थे। वो दूर से ही दिख जाते थे, और हर फ़्लोर पर ग्रुप में बैठे स्टूडेंट्स भी नज़र आ जाया करते थे। बाहर एक छोटा सा गार्डन, उससे लगी व्हीकल पार्किंग और उसके बग़ल में स्कूल ऑफ़ बायोटेक्नोलॉजी था। घुमावदार सीढ़ियों पर बैठे स्टूडेंट्स जब सामने की ओर देखते तो उन्हें दूर शहर के आईटी पार्क तक बिछा हुआ मैदान दिखाई देता। मैदान जो अपने सीधे हाथ की तरफ़ यूनिवर्सिटी ऑडिटोरियम तक फैला हुआ था। और अपने उल्टे हाथ तरफ़ इण्डियन कॉफ़ी हाउस तक। कॉलेज की दूसरी तरफ़ से एक पतली सड़क यूनिवर्सिटी कैंटीन को जाती थी। और उस सड़क के आगे स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स था।

बायोटेक्नोलॉजी और इकोनॉमिक्स के बीच में था - स्कूल ऑफ़ जर्नलिज़्म एंड मास कम्यूनिकेशन(मीडिया भवन)

मीडिया भवन में ही उस सुबह बहुत कम स्टूडेंट्स आए थे। सब कॉलेज के पोर्च में बैठे गप्प मार रहे थे। इस दुनिया के सभी आर्ट कॉलेज गप्पेबाज़ों के गढ़ हैं। कल्पनाओं के बीच, यथार्थ से दूर बसे ये कॉलेज या तो आर्टिस्ट पैदा करते हैं, या फिर सिनिक। कलाकार भी यहीं से निकलते हैं। और कलाकार होने की होड़ में आलोचक बन बैठे लोग भी यहीं की जाये हैं।

मैं कॉलेज के बड़े से दरवाज़े के सामने पहुँचा। और वहीं से अपनी क्लास के कुछ लोगों को देख उनकी ओर बढ़ गया। नीचे टाइल्स पे पुते हल्के पीले और मरून रंग बारिश में भीगकर गाढ़े हो गए थे। कुहासा सा छाया हुआ था। बारिश बंद थी। मैं बाहर गार्डन के बग़ल से चलता हुआ पोर्च में दाखिल हो रहा था जब मैं ने उन्हें देखा। उन्हीं को जिन्हें बहता हुआ पानी देखना पसंद था। वो मेरी क्लास के कुछ स्टूडेंट्स के साथ बैठी थीं। सफ़ेद और हरी पट्टियों वाली एक टीशर्ट और एड़ियों तक की नीली जींस में। उस दिन प्रकृति को जो रंग सबसे गहरे और सबसे उजले थे। वो उनके कपड़ों पर थे।

पोर्च के एक तरफ़ कॉलेज में जाने का रास्ता खुलता था। और एक तरफ़ से पोर्च में आने का मार्ग था। यही रास्ता गार्डन और पार्किंग में जाने के लिए भी था। बाक़ी दोनों तरफ़ ईंट-सीमेंट के बेंच नुमा ओटले थे। वो वहीं उसी पर बैठी थीं। अपने सीधे पाँव पर अपने उल्टे पाँव को रखा हुआ था। हाथ आगे थे। एक दूसरे में गुत्थमगुथ। चश्मा एकदम ऊपर बोहों दे लग रहा था। होंटों पर मुस्कान चमक रही थी। मैं उन्हें देखता हुआ सीधी रेखा में वहाँ पहुंचा और उनसे कुछ दूर उनके बग़ल में बैठ गया।

उन्होंने मुझे आते हुए नहीं देखा था। बैठते हुए देख लिया। “फ़र्स्ट ईयर?” उन्होंने पूछा। बोलने का ढंग कैसे एक-दो शब्दों को ही प्रश्न बना देता है। “हाँ।” मैंने उन्हें देखते हुए कहा और गर्दन हाँ में हिलाता रहा। “आप?” मैं ने पूछा। “सेकेंड ईयर।” वो नीचे अपने पैरों को देख रही थीं। उन्होंने अपनी चप्पलों को नीचे गिरा दिया था। और उन्हें अपने पैरों की उँगलियों से उठाने के प्रयास कर रही थीं। एक तरह का खेल जो वो अकेले खेल रही थीं।

मैं अपनी उँगलियों से उनकी चप्पलों को उठाकर उनके पाँवों में पहना देने के ख़यालात में गुम गया था।

“यहीं से हो?” उनका खेल जारी था।

“मतलब?” मेरा उन्हें खेलते देखना जारी था।

“इसी शहर से हो?” उनकी गर्दन मेरी तरफ़ ऊपर की ओर उठ गई। मेरी उनकी चप्पलों पर टिकी रहीं। मैं ने हठात् उन्हें वहाँ से हटाया और उनसे मुख़ातिब होते हुए कहा -

“नहीं। मैं होशंगाबाद से हूँ।”

“मैं इसी शहर से हूँ।” उन्होंने मेरा सवाल भाँप लिया था।

क्या मैं इतना प्रिडिक्टेबल हूँ? - मैं ख़ुद पर खीज गया।

वो अपनी जगह से उठ गयीं बिना कुछ बोले। चप्पलों को पाँवों में डाल लिया। और दो-तीन कदम आगे चलीं। फिर रुक गईं। जैसे उनका मन कोई फ़ैसला ले रहा हो। कोई डिसिज़न। मैं वहीं बैठा रहा। आसमान में जो अंधियारी छाई थी - वो बरस पड़ी। बदल गरज उठे और तेज़ बारिश होने लगी। वो जीतने कदम आगे चली थीं उतने ही कदम पीछे आकर फिर वहीं बैठ गयीं - बेंचनुमा ओटले पर मेरे बग़ल में।

पोर्च में बात कर रहे लोगों के स्वर ऊँचे हो गए। जैसे किसी बारात में गाजे-बाजे के बीच चल रहे लोगों के स्वर हो जाते हैं।

मैं उनका नाम पूछना चाहता था। लेकिन नहीं पूछा। उन्होंने भी मरा नाम जानना नहीं चाहा। या शायद चाहा हो? मगर पूछा नहीं?

बारिश कुछ मद्धी हो गई। वो हमारे पीछे किसी शॉवर सी बरसती रही। वहाँ हमारे पीछे एक छोटा सा ख़ाली एरिया था। जहां कुछ पुरानी बेंचें, कुछ डेस्क, गमले और कॉलेज के चौकीदार की साइकिल रखी हुई थी। शॉवर में उन सब का नहाना हो रहा था। अचानक अपनी सिलेटी यूनिफ़ॉर्म में चौकीदार दादा वहाँ आ गए। और एक मोटी दरी सी पन्नी भीग रही बेंचों और डेस्क पर डाल दी। उन्होंने अपनी साइकिल उठाई और पीछे से ही उसे बाहर की तरफ़ ले गए। कॉलेज के बाहरी इलाक़े में यहाँ वहाँ भटकता एक भूरा कुत्ता फ़र्नीचर पर डली पन्नी के अंदर घुस गया। काली चीटियों का एक क्रम भी पन्नी के नीचे जाता दिखाई दिया। चौकीदार दादा अपनी साइकिल पर सवार हो गए। एक हाथ से उन्होंने उसका हैंडल सम्भाला और दूसरे हाथ में छाता। वो मैन गेट से होते हुए आईसीएच की ओर मुड़ गए। बेंचनुमा ओटलों से सटकर रखे छोटे-छोटे अनाम पौधे अब भी अपनी पत्तियों पर बारिश की छोटी बूँदों को सम्भाल रहे थे। पोर्च में मौजूद लोगों के स्वर मेरे लिए कब के म्यूट हो गए थे।

यकायक मुझे उनका ख़्याल आया और सब कुछ फिर अनम्यूट हो गया। वो अब भी वहीं बैठी थीं। मेरे बग़ल में। मैंने उनकी नज़रों की रेखा मैं चलना शुरू किया और देखा - ज़मीन पर बरसा पानी कॉलेज के मैन गेट से बहते हुए पोर्च के बाजू से एक सकरे नाले में जा रहा था। पोर्च के आगे मैदान में जो पानी चौड़ी नदी सा बहकर आता, वो पोर्च के बग़ल में आते ही नहर की पतली धार सा बन जाता था। और फिर नाले में विलुप्त हो जाता था। वो पानी के बदलते आकार को देख रही थीं। उन्हें बहता पानी देखना पसंद था।

“आप क्या सोच रही हो?” मैं जिस रेखा पर चलकर बहते पानी तक गया था उसी पर उल्टे पाँव चलकर वापस उनके पास आ गया था।

“कुछ नहीं।” उन्होंने कहा।

“बहुत कुछ।” मैंने सुना।

वो अचानक उठीं और तेज़ कदमों से कॉलेज के अंदर चली गयीं। “सी यू।” उन्होंने कहा। उन्होंने सी को कॉलेज के अंदर ले जाते हुए यू को वहीं दहलीज़ पर छोड़ दिया। कुछ देर पहले वो जिस डिसिज़न को लेकर एकदम खड़ी हो गई थीं। शायद उन्होंने वो डिसिज़न ले लिया था।

उनके जाते ही मैं अपनी बैच के लड़के-लड़कियों के साथ जाकर खड़ा हो गया। मैं उनमें शामिल नहीं हुआ। फ़िज़िकली प्रेजेंट, मेंटली एबसेंट। मेंटली में अब भी उनके साथ था, जिन्हें बहता पानी देखना पसंद था।

बारिश थम गई। कुछ ऐसे जैसे बादल पूरी तरह से निचोड़ दिये गए हों। वे रीफ़िलिंग के लिए अलग-अलग दिशाओं में चले गए। साफ़, धुला आसमान खुल गया। नीले आसमान पर कहीं-कहीं बड़े बादलों से छूटे कुछ सफ़ेद फ़ाये दिखाई देने लगे। छितरे हुए सफ़ेद बादल।

बारिश के एक्ट पर धूप का झीना पर्दा गिर आया था। और मैं अपनी क्लास की बेंच पर बैठा “उनके साथ बैठने” को सोच रहा था।

कोई लेक्चर नहीं लग रहा था। तीन-तीन, चार-चार के ग्रुप में लोग क्लास के अलग अलग कोनों में बैठे बतिया रहे थे। क्लास के ऊपरी शेल्फ़ में कबूतरों के कुछ ग्रुप भी बैठे बातें कर रहे थे। उन्हें सोचते हुए मैं खिड़की से बाहर यूनिवर्सिटी के मैदान को देख रहा था। सूखता हुआ मैदान। किसी चीज़ को देखने भर से नहीं। उसे बार-बार सोचने से आप उसे चाहने लगते हैं।

मैं उस दृश्य को सोच रहा था जब उन्होंने अपनी चप्पलों से खेलते हुए अचानक मुझे देखा था। मुझे लगा था जैसे प्रकृति ने मेरी ओर अपना मुँह कर लिया हो।

उस दृश्य से मेरा ध्यान तब ओझल हो गया जब सेकंड और थर्ड ईयर के सीनियर्स का एक बड़ा सा समूह हमारी क्लास में आ धमका। सीनियर्स हमेशा ऐसे ही आते हैं - बिना कहे, बिना बुलाए, एकदम, अचानक।

लगभग पंद्रह-बीस लोग हमारी क्लास में आए और जगह-जगह स्प्रेड हो गए। जैसे कंचे हो जाते हैं। ऊपर से फेंक दो तो टप्पे खाते, उछलते-कूदते, धीरे-धीरे सैटल होते हैं।

मुझे लगा जैसे मेरी कल्पनाओं में ग़ैर-ज़रूरी यथार्थ का आक्रमण हुआ हो।

कोई सबसे आगे डेस्क पर पालती मारकर बैठ गया तो किसी ने खिड़कियों की शेल्फ पर डेरा जमाया। कोई हमारे साथ बेंचों पर बैठ गया। कुछ लोग बोर्ड के आगे खड़े हो गए। उनमें से एक जिसका क़द वहाँ मौजूद सभी लोगों में सबसे ऊँचा था और जिसने एक काली भारी सी रेग्ज़ीन की जैकेट पहन रखी थी ने डाइस के पीछे खड़े होकर बोलना शुरू किया। उसके एक हाथ में हेलमेट था जिसे उसने बोलना शुरू करने से पहले अपने बाजू में खड़े एक दूसरे सीनियर को दे दिया था।

“आज बारिश हुई है।” उसने कहा। वह आगे बोलता इससे पहले ही आख़िर की बेंच पर बैठे एक सीनियर ने ज़ोर से कहा -

“दिख रहा है।” क्लास हंस पड़ी।

डाइस के पीछे खड़ा सीनियर मुस्कुराया और फिर आगे बोला -

“आज बारिश हुई है इसलिए कोई भी लेक्चर नहीं लगेगा। थर्ड ईयर और सेकेंड ईयर के कुछ स्टूडेंट्स टिंचा फ़ॉल जा रहे हैं। और फर्स्ट ईयर इन्वाइटेड है।” 

“सीनियर्स-जूनियर्स की बॉण्डिंग के लिये ये ट्रिप अच्छी रहेगी दोस्तों। चलिए।” एक सीनियर जो सबसे आगे की डेस्क पर किसी सरपंच सी बैठी थी ने कहा।

“अब इनसे कौन बॉण्डिंग करे।” मैं सोच ही रहा था कि एक क़तार में खड़े सीनियर्स के पीछे से होते हुए वो आईं और मेरी रो से लगी एक खिड़की की शेल्फ पर बैठ गयीं। उन्होंने अपनी चप्पलें नीचे गिरा दीं। और फिर वही खेल शुरू कर दिया - पाँवों की उँगलियों पर चप्पलों को सँभालने वाला खेल।

“इनके साथ टिंचा फ़ॉल तो क्या धरती के आख़िरी फ़ॉल तक भी चल देंगे।” मैं खुश था।

धूप के धागे उनके बालों में घुल-मिल गए थे। हरी-सफ़ेद पट्टियों वाली उनकी टीशर्ट  सूरज की शुआओं से मिलकर क्रीम या लाइट पिंक सी दिखाई दे रही थीं। मैं उनकी नुमूद(एपीरेंस) में खो गया था। उन्हें देखते हुए मैं सुंदर लग रहा होऊँगा - मैं इस बात को दावे के साथ कह सकता हूँ।

जब-जब कोई किसी से प्रेम करता है, दुनिया को रहने के लिए बेहतर करता जाता है।

डाइस के पीछे खड़े सीनियर की आवाज़ अब भी मेरी कानों में पड़ रही थी। मैंने सिर्फ़ अपनी आँखें उनपर बिछा रखी थीं। कान अब भी सब सुन रहे थे। उस सीनियर ने इच्छुक लोगों को आधे घंटे में कॉलेज पार्किंग में आने को कहा और हमारी क्लास से बाहर हो गया। उसके पीछे बाक़ी के सारे सीनियर्स भी बाहर हो लिये। जैसे सोश्यल मीडिया पर लोग किसी ट्रेंड के पीछे हो लेते हैं।

वो किसी ट्रेंड को कभी फॉलो नहीं करती थीं। उनका विश्वास ही इसमें नहीं था। अपनी क्लास के सभी स्टूडेंट्स के बाहर चले जाने के बाद भी वो काफ़ी देर तक वहीं खिड़की पर बैठी रहीं। वो अपनी चप्पलों से खेल रही थीं। और खिड़की से आती ठंडी ब्रीज़ उनके बालों से।

मैं उनके पास जाकर उनसे हुई बातचीत को रिज्यूम करना चाहता था। लेकिन आसपास इतने लोग थे कि मेरी हिम्मत ही नहीं बंध रही थी।

प्रेम हिम्मत माँगता है। और मेरे पास वो नहीं थी। हौसला जुटाकर मैं अपनी बेंच से उठ ही रहा था कि वो खिड़की से उठ गयीं। शेल्फ से नीचे उतरी और अपनी चप्पलें पैरों में डालकर बाहर की ओर चलीं। मैं आधा खड़ा हुआ था। आधा बैठा था। उस ही अवस्था में उन्होंने मुझे देखा और पूछा -

“चल रहे हो?”

मैं चुप उन्हें देखता रहा। वो मेरा जवाब सुने बिना चली गयीं। उन्होंने मुझसे उत्तर की अपेक्षा नहीं रखी। मैं पूरी तरह अपनी जगह पर बैठ गया। और कुछ ही देर पहले की अपनी स्मृति से वो क्षण निकाला जिसमें उन्होंने मुझसे पूछा था -

“चल रहे हो?”

और फिर उत्तर दिया - “हाँ! चलते हैं।”

जैसा कि तय था। आधे घंटे बाद पार्किंग एरिया में हर बैच के स्टूडेंट्स जमा होना शुरू हो गए। धूप सेंकते पेड़ धीमी ठंडी हवा में डोल रहे थे। कॉलेज की बाउंड्री की दीवारों पर केंचुए चलते दिखाई दे रहे थे। मुख़्तलिफ़ बैचेस के स्टूडेंट्स की आपसी बातचीत में झींगुरों की दबी हुई आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। बातचीत को देख कर साफ़ कहा जा सकता था कि कौन किससे बॉण्डिंग करना चाह रहा है। वो कॉलेज ही क्या जहां पाँच-छह पॉपुलर कपल्स न हों।

मैं कॉलेज से बाहर निकलने वालों में सबसे आख़िरी था शायद। ऑफ़िस में बैठे इक्का-दुक्का लोगों की आवाज़ें गूंज रहे थीं। कबूतरों का स्वर हर तरफ़ सुनाई दे रहा था। हर फ्लोर को आपस में जोड़ती सीढ़ियों के घुमाओ पर लोहे की बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ थीं। जैसे महलों में हुआ करती हैं। उन खिड़कियों से साँय-साँय करती हवा पूरे कॉलेज में दौड़ रही थी। दौड़ती हवाओं और गूंजती आवाज़ों के बीच में सीढ़ियाँ उतर रहा था। या तो वो मेरे आगे सीढ़ियाँ उतर चुकी हैं, या फिर मेरे पीछे उतरेंगी। - मैं सोच रहा था।

नीचे कॉरिडोर में चलते हुए मैं उन्हें ढूँढ़ता रहा। मगर वो कहीं दिखाई नहीं दीं। बाहर  दोपहर छिपी बैठी थी। कुछ ही देर में निकल जाने को आतुर। वहाँ पहुँचा तो सामने चौकीदार दादा नज़र आए। अपनी कुर्सी पर ऊँघते हुआ। नींद पूरी करते - पिछली या अगली रात की।

उनका छाता कुर्सी के पीछे बेंचनुमा ओटले से टिका हुआ था। वहीं पास ही उनकी धुली साइकिल रखी हुई थी। उनसे कुछ दूर पोर्च में ही अपने चारों पाँव समेटे वो कुत्ता सो रहा था जिसे मैंने सुबह देखा था पन्नी के अंदर घुसते हुए। उसके पीछे जो चीटियाँ गई थीं वो कहीं दिखाई नहीं दीं।

मैं चौकीदार दादा को कुर्सी पर ऊँघता हुआ देख रहा था। लेकिन उन्हें उनकी साइकिल पर एक हाथ में छाता और दूसरे में साइकिल का हैंडल सम्भाले पोर्च में आते हुए सोच रहा था। मैं कुत्ते को पन्नी की ओट से बाहर आते सोच रहा था।

हो चुके को सोचना। - एक ज़िद्दी आदत।

मैं पोर्च से निकला और गार्डन के बाजू से होते हुए पार्किंग एरिया की ओर बढ़ने लगा। मैं दूर से ही उन्हें तलाशने लगा। मुझे लगा जैसे वो पार्किंग एरिया के एक कोने में पड़े कटे पेड़ पर बैठी हैं। और अपना वही चप्पलों वाला खेल खेल रही हैं। मगर वो वहाँ नहीं थीं। वो मेरे बग़ल में कुछ दूरी पर गार्डन के अंदर से होते हुए पार्किंग एरिया की तरफ़ चल रही थीं। अपने एक हाथ में अपनी चप्पलें उठाए वो धीरे धीरे कदम बढ़ा रही थीं। घास पर जमी पानी की बूँदों में धूप रेनबो सी दिखाई दे रही थी। कई छोटे-छोटे रेनबोज़ के बीच उनके सफ़ेद पाँव संगमरमर से दमक रहे थे।

मैं उनके आसपास गिलहरी, गौरैया, तितलियाँ, और मिट्ठू देख रहा था। और सोच रहा था - ख़ुद को उनके साथ में। घास पर चलते हुए।

हम एक साथ पार्किंग एरिया में पहुँचे। और एक दूसरे को क्रॉस करते हुए अपनी अपनी बैच के लोगों के साथ खड़े हो गए। 

अंदाज़न पंद्रह मिनिट तक इस बात की मैथमेटिक्स चलती रही कि हम सभी के पास कुल मिलाकर कितनी गाड़ियाँ हैं। और उनपर सवार होने की इच्छा रखने वाले लोग कितने हैं। गणित ठीक बैठते ही हम लोग कॉलेज के पार्किंग साइड वाले गेट से यूनिवर्सिटी की सड़कों पर आ गए। मैं अपने दो बैचमेट्स के साथ एक सफ़ेद स्कूटी पर सबसे पीछे बैठ गया। और वो अपनी काली स्कूटी पर सबसे आगे हैंडल सम्भालती नज़र आईं।

गाड़ियों पर पीछे बैठने वाले लड़कों को अक्सर हैंडल सँभालने वाली लड़कियाँ आकर्षित करती हैं।

हम सब यूनिवर्सिटी की सड़कों पर ऐसे बढ़े जैसे किसी राजनीतिक दल की बाइक-रैली निकल रही हो। सड़कों पर ख़ुद आए खड्ड में भरे पानी को उछालते हुए हमारी गाड़ियाँ आगे बढ़ रही थीं। बुलट, अपाचे, ऐक्टिवा, अवेंजर - हमारी रैली में शामिल थीं। वातावरण पर धूप की पतली चादर बिछी हुई थी जो कभी-कभी हवा से उड़ जाती थी।

हम यूनिवर्सिटी कैंटीन और सेंट्रल लाइब्रेरी के रास्ते यूनिवर्सिटी से बाहर निकल आए और टिंचा फ़ॉल्स की ओर बढ़ चले।

नहाई हुई सड़कें हल्की धूप में उबासी ले रही थीं। बारिशों में सड़के देर से उठती हैं। और देर तक जागती हैं। - ऐसा मुझे लगा।

गाड़ी पर मेरे आगे बैठे दोनों साथी आपस में बातचीत करने लगे। उनकी बातों से मालूम हुआ कि मेरी तरह वो दोनों भी दूसरे शहरों से यूनिवर्सिटी में पढ़ने आए हैं। एक मध्यप्रदेश के छतरपुर से था और दूसरा टीकमगढ़ से। दोनों बुंदेलखंडी। 

मुझे उस दोपहर मालूम चला कि अगर दो बुंदेलखंडी मिल जाएँ तो उन्हें किसी तीसरे के साथ की ज़रूरत नहीं पड़ती। लगभग पूरे रास्ता वो दोनों “हम जा के रए / तुम का के रए?” करते रहे। और मैं उनकी भाषा पर मोहित होता रहा। भाषा की सुंदरता उसकी विविधता में है। उसकी महानता उसके इस गुण में है कि वो अपने आप को क्षेत्रीय ढाँचों में ढालना जानती है। भाषा पानी है। बहती रहती है। भाषा और पानी - दोनों का कोई रिप्लेसमेंट नहीं है।

कुछ वक़्त में हम शहर के बाहर आ गए। सड़क के अगल-बगल में अब झोपड़ सरी के घर दिखाई देने लगे। फ़ुटपाथ कीचड़ भरी पगडंडियों में बदल गईं। हम पेड़ों के एक सेमी-केप्सूल में प्रवेश कर गए। और उनसे सिप-सिप टपकती पानी की बूँदों से बचते-बचाते आगे बढ़ते रहे। सड़क पर कहीं-कहीं धूप किसी लेज़र सी सीधी रेखा में गिर रही थी। मोर झाड़ों पर लुका-छिपी खेल रहे थे। सड़क पर गिरा पानी मिट्टी की तलाश में पगडंडियों की तरफ़ बह रहा था। बहते पानी को देखकर मुझे वो याद हो आईं। उनसे बात करते रहने की मेरी इच्छा मुझ में फिर उठ आई। और पेड़ों की छत के ऊपर बादल घिरने लगे। सेमी-कैप्सूल से बाहर निकलते ही उनकी गाड़ी हमारी गाड़ी के ठीक बाजू में दिखाई दी। उन्होंने अपनी हेलमेट का काँच उठाते हुए हमसे कहा -

“वी शुड स्टॉप समवेयर। एंड टेक शेड।”

“यस वी शुड।” टीकमगढ़ वाला मेरा दोस्त मुस्कुराया। मैं अकेला नहीं था जो उनसे बात करते रहना चाहता था।

पेड़ों की छत से निकलकर हम खेतों के बीच आ गए। बादलों की झक्क काली शैडो में धूप गायब हो गई। आसमान सड़क से अधिक सियाह हो गया। बिजली तड़कने लगी। और हवा दौड़ते हुए एक खेत से दूसरे खेत में जाने के लिए सड़क क्रॉस करने लगी। हम सब किसी छत की तलाश में जुट गए।

कुछ ही दूर चले थे कि हमारा रास्ता एक छोटे से कस्बे में दाखिल हुआ। उम्मीद जगी कि यहाँ ठहर कर बारिश से बचा जा सकता है। कोई किसी दुकान की ओट में चला गया, तो किसी ने ख़ाली पड़े बस-स्टॉप के नीचे आसरा ले लिया। कुछ लोग एक मंदिर के पोर्च में टीन की छत के नीचे जा खड़े हुए। उन्होंने अपनी गाड़ी गाँव में थोड़ा अंदर जाकर एक नर्सरी के भीतर मोड़ ली। और हम उनके पीछे मुड़ लिए।

नर्सरी एक सकरे नाले के उस पार थी। इस पार की कच्ची सड़क से उस पार जाने के लिए लोहे के एक जंग-आलूद पुल को क्रॉस करना होता था। उन्होंने बड़ी तेज़ी से अपनी गाड़ी उस पर से दौड़ाई और नर्सरी के भीतर चली गईं। हम उनके पीछे थे। और हम भी उसी तेज़ी के साथ पुल को पार करना चाहते थे जिस तेज़ी से उन्होंने उसे पार किया था।

छतरपुर वाले मेरे दोस्त ने पूरे आत्मविश्वास के साथ गाड़ी को पुल पर मोड़ा। और एक नैनो-सेकेंड में गाड़ी पुल के पैरेलल होकर गिर पड़ी। एक क्षण के लिए गाड़ी पुल के और हम तीनों एक-दूसरे के पैरेलल हो गए। ग़नीमत से हम नाले में नहीं गिरे। हमारी गाड़ी स्लिप होते हुए सीधे उस तरफ़ नर्सरी के गेट को जा लगी।

नर्सरी के अंदर उल्टे हाथ तरफ़ एक आउटहाउस था। वो गेट से लगभग बीस मीटर की दूरी पर था। एक बुज़ुर्ग आदमी उससे बाहर निकला और सीढ़ियों तक आकार वापस भीतर चला गया। कुछ ही देर में वो हाथ में छाता लिए वापस आया और नर्सरी के गेट की तरफ़ बढ़ा।

इस बीच हम तीनों लँगड़ाते हुए खड़े हुए। टीकमगढ़ वाले दोस्त ने गाड़ी उठाई और उसे साइड स्टैंड पर खड़ा कर दिया।

बुज़ुर्ग आदमी ने गेट खोला। वह हम तक आया और कुछ देर चुप खड़े रहने के बाद बोला -

“कौन चला रहा था?”

मैंने और टीकमगढ़ वाले दोस्त ने छतरपुर वाले दोस्त की ओर इशारा कर दिया। हम अभी इतने अच्छे दोस्त नहीं हुए थे कि दूसरे का ब्लेम ख़ुद पर ले लें। या संगठन की शक्ति दिखाएं।

“चलो अंदर। पट्टी करनी पड़ेगी।” बुज़ुर्ग मुड़कर वापस आउटहाउस की तरफ़ रेंगने लगे।

वो नर्सरी के कहीं अंदर से एकदम बाहर दिखाई दीं। उन्होंने हमें मिट्टी में सना और पूरी तरह से भीगे हुए देखा। वो लगभग भागकर हमारे पास आईं।

“अरे! क्या हुआ?” हम गाड़ी सहित नर्सरी के अंदर आ गए।

“वही जो दिख रहा है।” मैंने कहा।

“यहाँ कैसे गिर गए तुम लोग?” पानी बरस रहा था। बूँदें उनके चेहरे पर सामान्य से अधिक देर तक ठहर रही थीं।

“यहाँ नहीं वहाँ गिरे हम लोग। वहाँ से यहाँ तक तो घिसटते हुए आए हैं।” मैंने पुल के उस पार देखते हुए कहा। एक म्लान सी हँसी सभी के चेहरों से गुज़र गई।

“आओ। पट्टी करनी पड़ेगी।” बुजुर्ग ने आउटहाउस की सीढ़ियों से आवाज़ दी।

“हम में से किसी को पट्टी की ज़रूरत तो नहीं।” मैंने सभी से कहा। हम फिर भी आउटहाउस की तरफ़ चल दिए। गाड़ी वहीं गेट के पास खड़ी भीगती रही।

नर्सरी के अंदर की कच्ची सड़क पर गिट्टी और मुरम फैली हुई थी। चारों तरफ़ काली पन्नी के मर्तबानों में अलग-अलग तरह के पौधे रखे हुए थे। आम, जाम, जामुन, आँवला, नीम, अशोक, और भी कई सारे। कई जिनके नाम न मुझे पता थे, न मुझे पता हैं। हम जिस बारिश से बचने के लिए नर्सरी में गिरते-पड़ते प्रवेश कर गए थे, वो बारिश अब सिर्फ़ एक बहुत मद्धम शॉवर की तरह बरस रही थी। मिट्टी, पानी और पौधों की एक मिली-जुली गंध धरती से ऊपर की तरफ़ उठ रही थी।

हम जैसे उस गंध पर चलकर आउटहाउस के बाहर पहुँचे। और सीढ़ियाँ चढ़ते हुए सामने खुले फाटक के अंदर देखने लगे। लकड़ी का एक टेबल, उसके पीछे लकड़ी की ही एक कुर्सी और उसके पीछे लोहे की रेक में पौधे - काली पन्नी के मर्तबानों में। हम सीढ़ियाँ चढ़कर पोर्च में पहुँचे और वहाँ फाटक के दाहिने हाथ तरफ़ रखी बेंच पर बैठ गए। हम तीन बैठे। वो खड़ी रहीं। उन्हें खड़ा देख मैं भी खड़ा हो गया। उन्होंने मुझे देखा, मैंने उन्हें। हमें एक-दूसरे को देखते किसने देखा? - मेरे दोस्तों ने? बुजुर्ग ने? आउटहाउस और उसकी सीढ़ियों ने? मिट्टी ने? बारिश ने? पौधों ने?

“अंदर आ जाओ” बुजुर्ग अचानक कुर्सी पर प्रगट हो आया।

हम तीन लोग अंदर गए। वो दरवाज़े से पलटकर सीढ़ियों तक गईं। और वहीं पोर्च में, शेड के नीचे खड़ी रहीं। सीढ़ियों के आरंभ पर। मैंने एक बार मुड़कर उन्हें देखा। उनकी पीठ को। वो बहता पानी तलाश रही होंगी - मैंने सोचा।

हम आउटहाउस के अंदर पहुँचे। लगा जैसे ये किसी बड़े मकान का पहला कमरा है। और इसके अग़ल-बग़ल बहुत से दूसरे कमरे हैं - जिनमें जाना आम लोगों के लिए निषेध है। जैसा संग्रहालयों या ऐतिहासिक इमारतों में होता है। हर हिस्सा सभी के लिये खुला नहीं होता। क्या ऐसे नियम हमारे निजी घरों या मनों के लिए भी होते हैं?

कमरे की दीवारों में सीढ़न बैठ गई थी। एक वनैली गंध थी जो खिड़कियों के रास्ते अंदर आ गई थी। लोहे की रेक पर छत से गल रहा पानी गिर रहा था। हम तीनों, बुजुर्ग के पास जाकर खड़े हो गए। वो अपनी कुर्सी पर बैठे हुए थे।

“हम में से किसी को पट्टी की ज़रूरत नहीं है दादा।” मैंने कहा।

“अपनी पैंट ऊपर करो।” बुजुर्ग ने छतरपुर वाले दोस्त को देखते हुए कहा।

उसने एक पाँव से अपनी पैंट ऊपर करी।

उसका गुठना और नीचे का कुछ हिस्सा बुरी तरह छिल गया था। जमा हुआ खून पैंट ऊपर करते ही रिसने लगा। ज़ख़्म देखकर मालूम चला कि चोट लगी है।

“पट्टी करनी पड़ेगी।” बुजुर्ग ने कहा। और उठकर लोहे की रेक की ओर बढ़ गया। वहाँ एक खाने में से उसने एक पुराना सा टीन का बक्सा उठाया और आकर उसे टेबल पर रख दिया। वो आदिम वक़्त का फ़र्स्ट-ऐड बॉक्स लगता था।

मैं और टीकमगढ़ वाला दोस्त बाहर गए और वहाँ रखी बेंच को अंदर लाने के लिए उठाने लगे। बेंच उठाते हुए मैंने देखा कि वो अब वहाँ नहीं हैं। पोर्च में शेड के नीचे सीढ़ियों के आरंभ पर जहां वो खड़ी थीं - वहाँ छोटी-छोटी हरी-पीली तितलियों का एक समूह उड़ रहा था।

हमने बेंच अंदर बुजुर्ग की कुर्सी के बग़ल में रख दी। छतरपुर वाला दोस्त उसपर बैठ गया। बुजुर्ग ने उसकी मरहम-पट्टी शुरू करी। उसके कंधे पर हाथ रखे टीकमगढ़ वाला दोस्त भी वहीं बेंच पर बैठ गया। मैं खड़ा रहा।

“मैं उन्हें देख कर आता हूँ।” मैंने कहा। और बिना किसी के उत्तर की प्रतीक्षा करे आउटहाउस से बाहर चला आया। हम अभी तक इतने अच्छे दोस्त नहीं हुए थे कि मैं वहाँ उसकी मरहम-पट्टी के लिये रुका रहता। और वैसे भी दो बुंदेलखंडी साथ थे। उन्हें किसी तीसरे की ज़रूरत नहीं थी। 

मैं सुबह से उनसे बात करना चाहता था, उन्हें जानना चाहता था। और वही करने जा रहा था। कोई किसी को कितनी मुलाक़ातों में पूरी तरह से जान पाता है? अनगिनत में भी नहीं। शायद!

मैं बाहर निकला और सीढ़ियों के अंत पर खड़ा होकर उन्हें खोजने लगा। मेरे सामने गिट्टी और मुरम की भीगी हुई सड़क थी। मैंने उस सड़क को पकड़ा और आउटहाउस से आगे नर्सरी के और अंदर बढ़ने लगा। बारिश पूरी तरह रुक चुकी थी। आसमान साफ़ नीला हो गया था। एक जमा हुआ चुप था जो मेरे जूतों की आवाज़ से टूटता जाता था। लगता था जैसे सड़क पर चुप मेरे आगे-आगे चल रहा हो। किसी गाइड की तरह।

चलते हुए मैं एक ऐसे पॉइंट पर आ कर ठिठक गया जहां से आगे दो रास्ते खुलते थे। नर्सरी अधिक घनी दिखाई देने लगी थी। एक रास्ता पेड़ों से ढँका हुआ था और दूसरे पर ट्रांसलुसेंट फ़ैब्रिक की चादर चढ़ी हुई थी। दोनों पर बारिश से टूट कर गिरे फल, फूल और पत्ते बिखरे हुए थे।

मेरे सामने एक छोटा तालाब था जिसमें कँवल के कुछ कुम्हलाए हुए फूल तैर रहे थे। वातावरण में प्रकृति की मांसल गंध छितरी हुई थी। वो किस रास्ते गई होंगी? - मैं सोच रहा था।

ट्रांसलुसेंट छत से ढँकी सड़क की तरफ़ से मुझे कुछ अस्पष्ट आवाज़ें आती सुनाई दीं। मैंने उस ओर देखा तो अपनी पैंट गुठनो तक चढ़ाए दो लोग आते दिखाई दिये। वो वहाँ एकदम प्रगट हो आए थे, जहां से सड़क मुड़कर किसी और दिशा में घूम रही थी। उनके पैरों में मिट्टी लगी चप्पलें थीं और उन्होंने पैंट के ऊपर सिर्फ़ बनियान पहन रखी थी। उनमें से एक हाथ में गेती(सिकल) थी जिसे वह रह रहकर हवा में चला देता था। दूसरा अपने माथे पर गमछा बांधे और अपने ख़ाली हाथ हिलाते चला आ रहा था। दोनों नर्सरी के कर्मचारी मालूम हो रहे थे।

वह दोनों धीमे स्वर में लगातार बातें करते हुए उस पॉइंट की ओर बढ़ रहे थे जहां मैं खड़ा था। मेरे क़रीब आते ही वो दोनों जैसे शब्दहीन हो गए हों। मुझे देखते हुए ब-ग़ैर कुछ बोले वो दोनों मेरे बाजू से मुड़े और आउटहाउस की तरफ़ जाने लगे। मैंने उन्हें पलटकर देखा। उन्होंने नहीं।

मुड़कर मैंने पेड़ से ढँकी सड़क को देखा। और वहाँ चुप को खड़ा पाया। “चुप” जो मुझे एक गाइड की तरह इस पॉइंट तक ले आया था। मैंने उसे फॉलो करने का निश्चय किया और उनकी तलाश में पेड़ों से ढँकी कच्ची सड़क पर चलने लगा। आगे-आगे चुप, पीछे-पीछे मैं।

ठंडी हवा में मेरी शर्ट फड़फड़ा रही थी। बारिश बंद थी लेकिन पेड़ों की टहनियों पर से पानी गिर रहा था। सड़क से लगभग लगकर काली पन्नी के मर्तबानों में रखे पौधे हवा के बहने की दिशा बता रहे थे। कुछ पौधों को देखकर लगता था जैसे वो आँखें उठाए ऊँचे पेड़ों को देख रहे हों। - पेड़ हो जाने की आशा में।

हर पौधे की तमन्ना पेड़ हो जाना है। मगर हर पौधे की तक़दीर वो नहीं।

मेरी तमन्ना उनसे मिलने, उन्हें जानने, उनसे बात करने की थी। मैं उन्हें ढूँढते हुए आगे बढ़ रहा था। जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता, सड़क आगे से उठती जाती। मुझे मालूम ही नहीं चला कि मैं कब एक सीधी-सपाट सड़क पर चलते हुए, एक पहाड़ी ट्रेल की चढ़ाई करने लगा।

यहाँ पहले कोई पहाड़ या कोई छोटी पहाड़ी रही होगी। - मैंने सोचा। जहां आज पहाड़ हैं, वहाँ सदियों पहले समंदर रहे होंगे। जिन नदी के तटों पर आज घाट तने हुए हैं, वहाँ कभी गहरे-घने जंगल रहे होंगे। - मैं पहाड़ी रास्ते पर एकदम ठिठक गया। वो सामने थीं।

सड़क पर एक तरफ़ बैठी हुई। उनके पाँव एड़ी तक बहते हुए पानी में डूबे थे। बारिश का बरसा हुआ पानी सड़क के किनारे-किनारे नीचे बह रहा था। उनके पाँव उसी में डूबे हुए थे। चप्पलें एक बग़ल रखी हुई थीं। वो अपने पाँवों की उँगलियों में छोटे-छोटे पत्थरों को फँसाने की कोशिश कर रही थीं। चप्पलों का उनका खेल, पत्थरों के खेल में बदल गया था। बहता पानी उनके पाँवों से टकराकर अपनी राह नहीं बदल रहा था। वह उनके ऊपर और नीचे से बस बहे जा रहा था। वो पानी को जगह दे रही थीं और पानी उन्हें। लगता था जैसे - प्रकृति और उनके बीच किसी तरह का संघर्ष नहीं है। वे दोनों परस्पर साथ रहने के लिए ही बने हैं।

मैं उनकी ओर लगा। और धीरे-धीरे मुझे उनके इर्द-गिर्द तितली, गिलहरी, गौरैया और मिट्ठू दिखाई देने लगे। मैं उनके पास जाकर बैठ गया। पाँव पानी में डुबो दिए। - एड़ी तक।

उन्होंने मेरा आना नहीं देखा। मेरा बैठना देख लिया।

“अरे! कैसे ढूँढा?” उन्होंने अपनी हल्की गीली हो चुकी जींस को गुठनो तक चढ़ा लिया। सुबह से पॉज़्ड हमारी बातचीत आख़िरकार रिज्यूम हुई।

“ढूँढा नहीं। बस! आप मिल गए।” मैंने भी अपनी जींस ऊपर कर ली।

हम दोनों की बातचीत के बीच कभी बहते पानी के स्वर सुनाई दे जाते। तो कभी कोयलों की कूक।

“वो तुम्हारा दोस्त कैसा है? ज़्यादा चोट आई है क्या?” वो कंकरों से खेलते हुए बात कर रही थीं।

“वो दादा जो आउटहाउस में थे? वो उसकी पट्टी कर रहे हैं। थोड़ा छिल गया है पैर। और कुछ नहीं।” पेड़ों से गिरे पत्तों को मैं सड़क से उठाकर पानी में बहा रहा था।

“ओह! गुड।” उन्होंने गहरी साँस ली।

वो ऊपर पेड़ों की टहनियों को देखने लगीं। उनके पाँव अब भी कंकरों से खेल रहे थे।

“आपको जर्नलिस्ट ही बनना है?” मैं ऊपर देखती उनकी नज़रों को देख रहा था।

“शायद!” उन्होंने मुझे देखा।

“मतलब कुछ डिसाइडेड नहीं है अभी तक?” मैंने उन्हें देखा।

उन्होंने ना में सर हिला दिया। कुछ नहीं बोलीं। वो अब भी मुझे देख रही थीं।

“मैंने जिस दिन इस कॉलेज में एडमिशन लिया था। उस दिन मैं घर जाकर बहुत रोया था।” मैं अब भी उन्हें देख रहा था।

“क्यों?” वो कुछ हैरानी से मेरे पास सरक आईं।

“एडमिशन लेने के बाद जब मैं उसी दिन पहली बार कॉलेज पहुँचा। तो चौकीदार दादा मुझे देख कर हंसे थे। मैं अपनी बैच का वो पहले स्टूडेंट था जिसने काउंसलिंग में इस कॉलेज को चुना था।” मेरे माथे पर शिकन उभरने लगी।

“क्या? तुम्हारी रैंक क्या थी?” वो मुझसे यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट की रैंक पूछ रही थीं।

“123” मैंने डरते हुए कहा।

“व्हाट! यू स्टुपिड। इतनी अच्छी रैंक में ये कॉलेज कौन लेता है पागल।” ऐसा लगा जैसे वो मुझसे बेहद नाराज़ हैं।

“सॉरी! वो मुझे मालूम ही नहीं था। मुझे जर्नलिज़्म करना था और यूनिवर्सिटी के इसी कॉलेज में पत्रकारिता का कोर्स था।” मैं उनके सामने किसी अपराधी सा सर झुकाए बैठा था।

“रिसर्च करके आना चाहिए न। क्या यार तुम भी।” उन्होंने मुझसे नज़रें फेर लीं।

मैंने अपने जिस फ़ैसले पर कुछ दिन पहले ही पछताना बंद किया था। अब मैं उस पर फिर पछता रहा था। अंत में हम सब अपने फ़ैसलों का परिणाम होते हैं, अपनी प्रतिभाओं का नहीं।

“यहाँ नहीं आता तो आपसे कैसे मिलता?” मैंने कहना चाहा। कहा नहीं।

वो उठ खड़ी हुईं। उन्होंने अपनी चप्पलें पहन लीं। 

“चलें वापस?” उन्होंने मुझ से कहा। और सड़क पर नीचे उतरने लगीं।

“मैम, आपका नाम?” मैंने अपनी जींस झटकते हुए कहा। और उठ खड़ा हुआ।

“कूँउउ।” उन्होंने नीचे उतरते हुए अपना जो नाम बताया वो कोयल की कूक में कहीं खो गया। उन्होंने मुझसे मेरा नाम नहीं पूछा।

मैं उनके साथ चलने लगा। मैं उनके बारे में और बहुत कुछ जानना चाहता था। लेकिन फिर कुछ और पूछ नहीं पाया। कुछ लोग होते हैं जिन्हें हम चाहकर भी कभी पूरी तरह नहीं जान पाते। जानने की कोशिश में एक दिन उनसे हर तरह की बातचीत बंद हो जाती है। लेकिन उन्हें जानने की इच्छा बंद नहीं होती। वो जीवन सी खुली रहती है - मृत्यु तक।

हम सड़क से नीचे उतर आउटहाउस की तरफ़ मुड़े और सामने ही उन्हें देखा। - छतरपुर और टीकमगढ़ वाले मेरे दोस्तों को। वो दोनों स्कूटी पर बैठे हुए थे।

“जल्दी आओ। बाक़ी सब आगे निकल गए हैं।” टीकमगढ़ वाले दोस्त ने दूर से ही चिल्लाया।

वो आउटहाउस के पीछे कहीं लोप हो गई। और मैं अपने दोस्तों की दिशा में चलने लगा। आउटहाउस के सामने से गुज़रते हुए मैंने भीतर देखा - बुज़ुर्ग दादा अपनी कुर्सी पर बैठे हुए थे। वो ऊँघते हुए बिल्कुल हमारे कॉलेज के चौकीदार दादा से दिख रहे थे।

टीकमगढ़ वाले दोस्त ने स्कूटी का हैंडल सम्भाल लिया। उसके पीछे मैं और छतरपुर वाला मेरा दोस्त बैठ गए। वो आउटहाउस के पीछे से अपनी स्कूटी सहित निकलीं। हम सब पुल पार करके कच्ची सड़क पर आ गए। और फिर क़स्बे की गलियों से होते हुए टिंचा फ़ॉल्स की ओर बढ़ चले।

सभी हम से आगे निकल चुके थे। रास्ते में कोई दिखाई नहीं दे रहा था। क़स्बे से बाहर निकल हम घुमावदार पहाड़ी सड़कों पर पहुँचे और कुछ धीमी गति से आगे बढ़ने लगे। हमारे एक तरफ़ लाल पत्थरों के घाट दिखाई पड़ रहे थे और दूसरी तरफ़ हरे-भरे जंगल। आसमान में धुली हुई धूप भर आई थी। इतनी कि छलक कर ज़मीन पर गिर रही थी। घाट के बीच कहीं-कहीं गंदले पानी के चहबच्चे बन आए थे। धूप उनमें तारों सी चमक रही थी।

हम घाट पार करके कच्ची भुरभुरी सड़क पर उतर आए। टिंचा फ़ॉल्स पास ही था। हमारे आस-पास अब और गाड़ियाँ प्रकट हो गई थीं। बढ़ते हुए हम एक पथरीले लैंडस्केप के पास आकर ठिठक गए। गाड़ियाँ वहाँ से आगे नहीं जा सकती थीं। वहाँ खड़ी सैकड़ों बाइक, कारें, स्कूटी इस बात का सुबूत थीं।

हमने भी अपनी गाड़ियाँ वहीं पार्क कीं और आगे चल पड़े। एक पथरीला मैदान जहां हमारे सिवा और कई लोग चल रहे थे। दिनभर हुई बारिश से पत्थरों पर फिसलन उतर आई थी। इसलिए उनपर चलना मुश्किल हो रहा था। हम बहुत धीरे आगे बढ़ रहे थे। सूरज डूबने को था। आसमान में हल्का नारंगी रंग खिंच आया था।

“सनसेट निकल जाएगा दोस्तों। जल्दी।” टीकमगढ़ वाला मेरा दोस्त हम सब की अपेक्षा कुछ तेज़ी से चल रहा था। उसे सूरज को डूबते और ऊगते देखना बहुत पसंद था। - ये मैंने उस दिन जाना।

वह हम से आगे-आगे लगभग दौड़ रहा था। छतरपुर वाला मेरा दोस्त जिसके पाँव में पट्टी थी - किसी स्नेल की तरह सबसे पीछे चल रहा था। मैं उनके साथ बीच में था। हम फिसलन भरे पत्थरों से बचते-बचाते आगे बढ़ रहे थे। वो अगर कहीं लड़खड़ा जातीं तो उन्हें सँभालने के लिये मैं था।

पथरीले मैदान के आख़िर में एक ढलान उतर रही थी। जहां अनगिनत अनाम पौधे ऊग आए थे। - पत्थरों के बीच से उन्हें काटते हुए।

हम पथरीले मैदान के अंत और ढलान के आरंभ पर कुछ देर रुके रहे। हम ने वहीं से टिंचा फ़ॉल्स को अपने विराट स्वरूप में देखा। ऊँचे पर्वत से गिरता हुआ एक दूधिया मदमस्त झरना। जिसका एक हाथ क्षितिज को पकड़े हुए था। और जिसका सर आसमान से टकरा रहा था।

हम सब दूर खड़े उस झरने को देख रहे थे। कि तभी अचानक उन्होंने ढलान उतरनी शुरू कर दी। वो उतरीं और रेतीले किनारे को पार करते हुए एक छिछली नदी के पास पहुँच गईं। झरने का पानी नीचे गिरकर इसी नदी के रास्ते आगे बह रहा था।

किनारे पर बहुत आगे हमारे बाक़ी के साथी भी नज़र आ रहे थे। वो सब शायद झरने को और क़रीब से देखना चाहते थे।

वो सामने थीं - नदी में बढ़ती हुई। और बाक़ी के सब साथी सीधे हाथ की तरफ़ - झरने की ओर कुदड़ाते हुए।

टीकमगढ़ वाला दोस्त सनसेट के इंतज़ार में ढलान पर ही बैठ गया। और छतरपुर वाला दोस्त कहीं दिखाई नहीं पड़ा। वह थक कर किसी पत्थर पर दम ले रहा होगा। शायद!

“कहाँ जाऊँ?” सोचते हुए मैं ढलान उतरा और नदी के पास पहुँचने से पहले ही ठहर गया। सामने के एक दृश्य ने जैसे मुझे पीछे से पकड़ लिया हो।

आकाश में डैने फैलाए पक्षी अपने घरों को लौट रहे थे। डूबते सूरज की लालिमा आसमान में फैल गई थी। मैं लाल पर्दे पर पंछियों की काली शैडो देख रहा था।

नीचे नदी में वह दिखाई दे रही थीं। बहते पानी के बीच सूरज की लाल रौशनी में खड़ी थीं। उनके चारों ओर से कल-कल पानी बह रहा था। पाँव के पंजे पानी में डूबे थे और आँखें आसमान में। वो आसमान को पानी करना चाहती थीं। - ऐसा लग रहा था। हाथ आगे बंधे हुए थे, बाल एक जूड़े में क़ैद - स्वच्छंद होने को आतुर थे। उनके चश्में के काँचों में सूरज डूब रहा था।

मैं एक बहुत बड़ा स्ट्रेच्ड लैंडस्केप देख रहा था - जहां ज़मीन में जड़े पत्थर थे, उनपर से दौड़ता, उनके नीचे से जगह बनाता, उनसे टकराता, पकड़म-पकड़ाई खेलता पानी था। पानी में कहीं-कहीं बिजली सी गुज़रती मछलियाँ थीं, पनीले पौधों के झुरमुट थे, लाल गेंद सा सूरज था जो दिन का अपना आख़िरी टप्पा ले रहा था, दूर क्षितिज का हाथ थामे एक झरना था, क्षितिज से ही निकलता आसमान था। और उस आसमान को पानी की तरह बहते देखती वो थीं। मैं भी था - इन सब से बहुत पीछे ठहरा हुआ।

वो जिस सिनेमा की नायिका थीं। मैं उसका नायक नहीं था। और न कभी बन सका। मैं बस था। शायद! किसी चरित्र भूमिका में।

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Monday, 3 April 2023

सपनों की Brand Ambassador || हिन्दी कहानी।



मैं उस से सालों बाद मिल रहा था। कोविड की दोनों लहरें गुज़र चुकी थीं। देश लॉकडाउन की गिरफ़्त से बाहर आ चुका था। और अपनों को खो देने के ग़म से, कुछ न कर पाने की बेबसी से बाहर आ रहा था।

मैं मुंबई लौट आया था। और उस से मिल रहा था। सालों बाद।

उस शाम मलाड के उस कैफ़े में कम ही लोग थे। वह मुंबई के सबसे व्यस्त चौराहों में से एक के कोने में बना कैफ़े था। छोटा और अंदर की ओर दबा हुआ। उसके सामने से रोज़ाना हज़ारों लोग आते-जाते, लेकिन कुछ दर्जन भर लोगों की ही नज़र उस तक जाती। जिसकी जाती वो आमंत्रित सा महसूस करता।

मैंने बस नंबर 622 की बड़ी से खिड़की से उसे देखा था। उस कैफ़े को। मैंने उसके गेट से देखी थी वो सीढ़ी जो ऊपर की तरफ़ जाती थी। और आँखों से ही उस पर चढ़कर ऊपर पहुँच गया था। वहाँ तीन विंडो टेबल थे। जिनके आमने-सामने कुर्सियाँ रखी थीं। मैं उसी वक़्त जानता था कि मैं उस से मिलूँगा। वह आमने होगी, और मैं सामने।

और एक शाम बस नंबर 622 की खिड़की से देखा ख़ाब पूरा हुआ। शाम अगस्त की थी और आसमान में बदली छाई हुई थी। सड़कें भीगी हुई थीं और तेज़ बारिश से कॉनक्रीट की कथित मज़बूत सड़कें उखड़ गई थीं। लगता था जैसे सड़क कोई गंदली और छिछली नदी है - जिसपर सीमेंट के काले टापू उभर आए हैं।

जैसा कि तय था मैं कैफ़े के पहले माले पर रखे तीन विंडो टेबलों में से एक के क़रीब खड़ा था। मैं खिड़की से बाहर उस ओर देख रहा था, जहां से उसका आना निश्चित था। वह कहीं से भी आ सकती थी। लेकिन मैं उस एक दिशा में इतनी देर से दिल गढ़ाए हुए था कि मुझे उसका आना सिर्फ़ वहीं से दिख रहा था।

बस, ऑटो, कोई बाइक या स्कूटी - मैं सबको बारी-बारी देख रहा था। कुछ छूट ना जाए। मैं उसका आना मिस ना कर दूँ। किसी किसी की आमद उनके आ जाने से अधिक, बहुत अधिक खूबसूरत होती है। उसकी भी थी। मैं घंटों उसे आता देख सकता था।

पिछले बीस मिनिट से मैं कैफ़े के एक विंडो टेबल पर हाथ रखे बाहर देख रहा था। एक क्षण को लगा जैसे वहाँ मौजूद हर टेबल पर कोई खड़ा था। और बाहर देख रहा था - किसी की राह।

सभी विंडो टेबल एक लाइन में रखे थे। लाइन - जिसका एक छोर नीचे जाती सीढ़ी से लगता था। और दूसरा कैफ़े के ऑर्डर एरिया से। एक बड़ा सा प्लेटफ़ार्म जिसपर कैफ़े के कुछ मेन्यू, पेमेंट क्यू आर कोड और ऑर्डर लेने वाली दो लड़कियों के हाथ रखे हुए थे। हाथों के पीछे दोनों लड़कियाँ थीं और उनके आसपास कैफ़े का तमाम सामान था। ऑर्डर एरिया के पीछे किचन होगा। वह हमेशा वहीं होता है। 

किचन से एक आदमी बाहर निकला, ऑर्डर एरिया में आया और वहाँ से विंडो टेबल्स की सीधी लाइन पर चलता हुआ मेरे क़रीब आ गया। उसके आते ही बाक़ी टेबलों पर हाथ रखे बाहर देख रहे लोग चले गए। सिर्फ़ मैं रह गया। कितनी भी कोशिश करें कल्पनाएँ चली ही जाती हैं, पीछे सिर्फ़ यथार्थ रह जाता है।

उसने अपने एक हाथ में ट्रे पकड़ी हुई थी। ट्रे पर पानी का एक जग और दो गिलास थे। उसके दूसरे हाथ में एक कपड़ा था जिसे वह ग़ालिबन टेबल साफ़ करने के लिए ले आया था। उसका तीसरा हाथ होता तो वह मेरे कंधे पर हाथ रख कर पूछता कि मुझे क्या चाहिए। लेकिन तीसरा हाथ नहीं था। उसने मेरे कंधे पर बस अपनी आवाज़ रखी। “सर! ऑर्डर।” उसने पूछा।

मैं उसकी ओर मुड़ा। “विल हैव सम वॉटर।” मैंने कहा। और कुर्सी पर बैठ गया। मैं सामने बैठा। और आमने को उसके लिए ख़ाली रखा।

वेटर ने टेबल साफ़ की। उस पर दो ग्लास रखे और उन दोनों को पानी से भर दिया। मैंने अपना फ़ोन देखा। उसका व्हाट्सएप मेसेज था - “ऑन माय वे।”

वेटर लौट गया। उस ने मुझ से नहीं पूछा कि मैं पानी के आगे क्या लूँगा। उसने नहीं पूछा कि क्या मैं वहाँ अकेला आया हूँ? उसने सवाल नहीं किया कि क्या मैं किसी का इंतज़ार कर रहा हूँ? फिर भी वह पानी के दो ग्लास रख गया।

मुझे तब कुछ देर के लिए लगा कि इस दुनिया के सभी वेटर “वेटिंग।” की कैफ़ियत को बहुत अच्छी तरह समझते हैं।

उस कैफ़े के उस विंडो टेबल पर किसी का इंतज़ार करने वाला मैं कोई पहला शख़्स नहीं था। और न ही आख़िरी होने वाला था।

कैफ़े नब्बे फ़ीसदी ख़ाली था। ऑर्डर एरिया के उल्टे हाथ तरफ़ एक लड़का अपने लैपटॉप में व्यस्त था। उसकी कॉफ़ी मेरे आने के पहले से वहाँ रखी थी। वह कैफ़े में कॉफ़ी पीने नहीं आया था। जो करने आया था, वो कर रहा था।

उसके बग़ल में एक टेबल छोड़कर वो दोनों बैठे थे जो न जाने कब भीतर चले आए थे। मैंने उन्हें आते नहीं देखा था। वे एक दूसरे में व्यस्त थे। उन्हें आपस में हंसते-मुस्कुराते देख मैं समझ गया कि वो एक कपल हैं। उनके हाथ एक-दूजे में गुँथे हुए थे। आँखें चमक रही थीं, चेहरे दमक रहे थे। उनकी चाय जो उन दोनों के बीच रखी थी - ज़रा सी भी पी नहीं गई थी। दोनों कप ऊपर तक भरे हुए थे। वे दोनों वहाँ चाय पीने नहीं आए थे। जो करने आए थे, वो कर रहे थे - प्रेम।

उन्हें चंद मिनट देख कर मैं ने अपनी निगाहें अपने फ़ोन पर गिरा दीं। वह टेबल पर रखा हुआ था। मैंने उसे ऑन किया और उसका वही मेसेज फिर पड़ा - “ऑन माय वे।” मैंने फ़ोन ऑफ़ कर दिया। और उसमें अपने ही शिथिल पड़ती शक्ल देखने लगा। मैं अपनी बायीं ओर मुड़कर उस कपल को फिर से देखना चाहता था। मुझे प्रेम में डूबे लोगों को देखना पसंद है। मैं उन्हें वैसे देखता हूँ जैसे मैं मछलियों को खाना खाते देखता हूँ। एकदम चुपचाप, मोशनलेस होकर।

मगर मैंने नहीं देखा। मैंने अपनी गर्दन दायीं ओर मोड़ दी और खिड़की के बाहर देखने लगा। कैफ़े में अब हम तीन थे - जो किसी के इंतज़ार में थे। कॉफ़ी, चाय, और मैं।

तेज़ बारिश होने लगी थी। सड़क पर गाड़ियों की चाल भी तेज़ हो गई थी। सब वहाँ जल्द से जल्द पहुँच जाना चाहते थे, जहां के लिये वे निकले थे। वो जहां कहीं भी थी शायद! यही सोच रही थी। सड़क के दोनों किनारे बनी फ़ुटपाथ ख़ाली हो गईं। लोग किनारों पर बनीं दुकानों की बाहर निकलती छतों के नीचे छिप गए। वे जिनके पास छाते थे वे भी। छाते हमें हर बारिश से नहीं बचा सकते। कुछ बारिशें ऐसी होती हैं कि या तो कहीं किसी ओट के नीचे रुक कर उनसे बचा जा सकता है, या उनमें भीगते हुए आगे बढ़ा जा सकता है।

पूरी सड़क पानी के डबरों से पटी पड़ी थी। छोटे-बड़े चहबच्चे मटमैले पानी से लबालब भर गए थे। और उन पर से छपाके मारते हुए गाड़ियाँ यहाँ-वहाँ जा रही थीं।

सड़क के उस तरफ़। कैफ़े के एकदम अपोज़िट वाली ख़ाली फ़ुटपाथ यकायक उस वक़्त झूम उठी जब छोटे-छोटे बच्चों की एक टोली वहाँ आ गई और भीगते हुए उछल-कूद करने लगी। एक बच्ची जो कुछ दस साल की रही होगी फुटपाथ के एकदम कोने पर खड़ी हो गई और झुक कर, पीछे से आ रही एक कार को देखने लगी। कुछ देर देखकर वह झट से पीछे हो गई। कार उसके बहुत क़रीब से एक पानी के डबरे से होकर गुज़र गई। और डबरे का पानी उछलकर लड़की के ऊपर जा गिरा। वह भीग गई और हंसते हुए वापस टोली में शामिल हो गई। उसके बाद एक-एक करके तीन और बच्चों ने ऐसा किया। चौथा आगे बढ़ता उससे पहले ही वहाँ एक हवलदार आ पहुँचा और उसने बच्चों को वहाँ से भागा दिया। वे सब दौड़ गए। और आगे से मुड़कर किसी दूसरी सड़क पर चले गए। किसी और फुटपाथ के झूमाने।

तेज़ बारिश हल्की झापुट में बदल गई। और छाता लिए लोग फिर से फुटपाथों पर चलने लगे। कुछ खड़े होकर बसों का इंतज़ार करने लगे, तो कुछ हाथ आगे बढ़ा बढ़ाकर ऑटो रोकने लगे।

हाथ बहुत थे। लेकिन एक भी ऑटो नहीं रुक रहा था। लोग हाथ बदल बदल कर अपने छातों को सम्भाल रहे थे। तभी कई लोगों के बीच एक ऑटो रुका। सभी हाथ नीचे हो गए। और सभी पैर उस एक ऑटो की तरफ़ बढ़े। लोगों की एक छोटी भीड़ सी लग गई। उनके मुँह शायद अपने-अपने गंतव्य के एड्रेस बता रहे थे। उन सब में से किसको उस ऑटो की सवारी नसीब होगी मैं ये सोच रहा था। एक तरह की रिडल थी। जिसे मैं सॉल्व करना चाहता था। तभी ऑटो में से वह बाहर निकल कर आई। उसके पास कोई छाता नहीं था। उसने अपनी आँखें उठाईं और कैफ़े की तरफ़ देखा। उसने मुझे नहीं देखा। मैंने उसे देखा। उसने फुटपाथ से नीचे अपना पहला क़दम रखा। और फिर रुकी नहीं। वह गंदले पानी से भरी सड़क पर उभर आए कॉनक्रीट के टापुओं पर से होते हुए कैफ़े के सामने आ पहुँची। उसने आती-जाती गाड़ियों को आसानी से डॉज कर दिया। और सड़क ऐसे पार कर ली जैसे स्किपिंग स्टोंस का खेल खेल रही हो।

वह आ चुकी थी। मैंने उसे आते देखा था। मन ख़ुश था। और अब मैं खिड़की से बाहर देखना बंद कर चुका था। मैं उस रिडल को पूरी तरह भूल गया था जिसमें मुझे ये पता लगाना था कि आख़िर वो ऑटो वाला इतने सारे लोगों में से किस को उसकी मंज़िल तक ले जाएगा।

मेरे पास सॉल्व करने के लिए अब एक दूसरी और ज़रूरी रिडल थी। - वह।

मैं अपनी कुर्सी से उठ गया। वह मेरे पीछे सीढ़ियों से ऊपर आई और अपना पर्स टेबल पर रखते हुए मुस्कुराई। उसके बाल कुछ गीले हो गए थे। और कंधों पर पानी की बूँदें ठहरी हुईं मालूम होती थीं। वह सफ़ेद और गुलाबी कपड़ों में थी। मैं उसे देख कुछ देर निश्चल खड़ा रहा।

“हाए दोस्त।” उसने कहा और वह मेरी ओर बढ़ी। हम गले लगे और फिर टेबल पर बैठ गए। विंडो टेबल पर।

वो आमने बैठी और मैं उसके सामने। उसने अपने भीगे वालों को पीछे बांध लिया। और एक गहरी साँस लेकर अपने दोनों हाथों को टेबल पर रख दिया। उसके ऐसा करते ही कंधे पर ठहरी बूँदें नीचे गिर गईं। और मिट गईं। उससे दूर रहना - मिट जाना है। मैंने सोचा।

मैं काफ़ी वक़्त से उसके इंतज़ार में था। तीस-चालीस मिनट से नहीं। बीते दो सालों से। इंतज़ार के दौरान मैंने अनगिनत चीज़ें सोची थीं जो मुझे उसे बतानी थीं। मेरे ज़हन में उन बातों की पूरी फ़ेहरिस्त थी जिन्हें उससे कहा जाना था। लेकिन उसके सामने आते ही सबकुछ शून्य में सिमट गया था। उसके आगे एक शब्द भी कहना मेरे लिये मुश्किल हो रहा था। होंठ पत्थर जान पड़ रहे थे। मैं उसके चेहरे के जादूई ठहराव में ठहर गया था। और सिर्फ़ उसे देखे जा रहा था। इंतज़ार जब ख़त्म होता है - तो आपको कुछ वक़्त के लिये चुप कर देता है। मैं चुप था।

“कैसे हो?” उसने पूछा।

“ठीक।” मैं ने पीछे ऑर्डर एरिया में खड़े वेटर को देखते हुए कहा।

“और तुम?” मैं ने उसे देखा।

“आई एम गुड।” उसने कहा जैसे ख़ुद से कह रही हो। - “यू आर गुड।”

“आज कल क्या कर रही हो?” मैं ने पूछा।

“कुछ ऐडवर्टिज़मेंट हैं। बस वही कर रही हूँ। और अगले महीने एक नाटक है, उसकी रिहर्सल।”

“बाक़ी ऑडिशंस, जिमिंग, और रोज़मर्रा के दूसरे काम तो चलते ही रहते हैं। - रोज़ाना।”

“तुम कहो।” उसने एक लंबा जवाब दे दिया था। और अब मेरी बारी थी।

वह एक ऐक्ट्रेस थी। गुजरात से मुंबई आई थी और सालों से यहाँ रह रही थी। बहुत हुनरमंद और मेहनती। उससे हर मुलाक़ात एक प्रेरणा होती - लगातार, बिना रुके काम करने की। अपने सपनों की बातें करते हुए उसकी आँखों में जो चमक आती वह ऐसी लगती जैसे नदी में सूरज की हल्की किरणें पड़ रही हों। और उन सपनों के बीच आ रही रुकावटों का ज़िक्र करते हुए उसके माथे पर ऐसी शिकन आने लगती, जैसे किसी कपड़े पर ख़ुद ब ख़ुद सल पड़ने लगे हों। वह अपने काम, अपने लक्ष्य और गुजरात में रह रहे अपने परिवार के सिवा और किसी के बारे में नहीं सोचती थी। मैं उसके ख़यालों की इस छोटी से फ़ेहरिस्त का हिस्सा होना चाहता था। लेकिन मैं जानता था/हूँ कि ऐसा होना ना-मुमकिन है।

“हेलो! कहाँ हो दोस्त?” उसने मेरे सामने चुटकियाँ बजाईं।

“तुम्हारे जादू में।” मैं कहना चाहता था।

“मुझे चुटकी बजाना नहीं आता।” मैंने कहा।

सोचा कितना सुंदर और स्पष्ट लगता है। और किया कितना भौंडा और भ्रमित।

“अरे! आजकल क्या कर रहे हो?” वह मेरे अजीब बर्ताव से कुछ हैरान हुई।

वेटर वहाँ आ गया। उसने पहले से रखे पानी के दोनों ग्लास अपनी ट्रे में रख लिये। और दो दूसरे ग्लास टेबल पर रख कर उनमें पानी भर दिया। वह दो मेन्यू भी रख गया।

“आजकल वही कर रहा हूँ जो कल कर रहा था। ऐसा कुछ बहुत नया तो नहीं कर रहा।” मैं मेन्यू पढ़ने लगा। ये जानते हुए कि मुझे अंततः चाय ही मंगानी है।

“अच्छा। सच?” उसने पूछा।

“हाँ! मतलब पिछले दिनों एक पॉडकास्ट बनाया है। कुछ ब्लॉग्स, कहानियाँ और कविताएँ लिखी हैं। एक किताब लिख रहा हूँ। एक ई-बुक एक्चुअली।” मैं ख़ुद को अपने किए हुए काम गिनवा रहा था - उसके सामने।

“वाह!” उसने अपने सामने रखा मेन्यू उठा लिया।

वाह!, अच्छा। और अंग्रेज़ी का एल. ओ. एल.(लॉफ आउट लाउड।) - वह इनका इस्तेमाल सबसे अधिक करती थी। मेरे साथ। मुझे नहीं पता कि दूसरों के साथ उसके सबसे अधिक इस्तेमाल किए शब्द कौन से होते होंगे। मैं उसके हर शब्द को सुनने की ख्वाहिश रखता हूँ।

मैं ने चाय ऑर्डर की, उसने ब्लैक कॉफ़ी। ये घटना सुनने में क्लीशे लगती है। - लड़के का चाय ऑर्डर करना, और लड़की का कॉफ़ी। लेकिन क्लीशेज़ से बचने के लिए मैं कहानी का सत्य तो बदल नहीं सकता। हमारे आसपास ऐसे अनगिनत लोग हैं जिनका पूरा जीवन ही एक क्लीशे है। जीवन कोई फ़िक्शन तो नहीं, कि जहां जो मन किया जोड़ दिया, जहां से जो चाहा मिटा दिया।

बाहर अंधेरा घिर आया था। आसमान गाढ़ा सियाह था। सड़क के दोनों किनारे लगे लैंप पोस्ट जल उठे थे और पानी के डबरों में झाँक अपना अक्स निहार रहे थे। हर लैंप पोस्ट के पास अपना एक डबरा, अपना एक आईना था। गाड़ियाँ गुज़रतीं जा रही थीं। और बीच-बीच में किसी ना किसी लैंप पोस्ट का चेहरा बिगड़ जाता था।

उसे किसी का कॉल आ गया था। वह जब तक बात कर रही थी। मैं तब तक बाहर सड़क, आसमान, लैंप पोस्ट, फ़ुटपाथ, गाड़ियाँ देख रहा था। वह अगर उगती शाम की जगह अभी ढलती शाम में आती। और ऑटो से उतरकर सड़क पार करती तो कैसी लगती - मैं सोच रहा था। मैं उसे बहुत से दृश्यों में, बहुत से हालात, बहुत सी सिचुएशन में सोच चुका था। वह हर जगह मेरे क़रीब आ रही थी। वह कहीं भी आई नहीं थी।

उसकी बात ख़त्म हो गई। वेटर हमारी चाय और कॉफ़ी रख कर लौट गया। उसने जाते-जाते उन टेबलों पर रखे चाय और कॉफ़ी के कप भी उठा लिए जहां कुछ देर पहले तक एक कपल और अपने लैपटॉप में व्यस्त एक लड़का बैठा हुआ था। उन लोगों का जाना वैसे ही पता नहीं चला, जैसे उनका आना मालूम नहीं पड़ा था।

“कौन था?” मैं अपनी चाय में शक्कर डाल रहा था। मुझे लगा कि मैंने कौन थी? क्यों नहीं पूछा।

“एक ऑडिशन का रिज़ल्ट।” वह ख़ुश थी।

“काँग्रेट्स!” मैंने उससे हाथ मिलाया।

“रिज़ल्ट सुनो तो पहले।” वह अपनी कॉफ़ी को चम्मच से गोल गोल घुमा रही थी।

“तुम मुस्कुरा रही हो तो पॉज़िटिव ही होगा ना रिज़ल्ट।” मैंने कहा।

“नैगेटिव रिज़ल्ट पर भी तो मुस्कुराया जा सकता है। कुछ नैगेटिव, हमारे लिए पॉज़िटिव भी हो सकते हैं। नहीं?” मुझे उससे ऐसी फ़िलोसॉफी की उम्मीद नहीं थी। और मैं ने उससे कहा भी यही।

“हैप्पी रियलाईज़ेशन फ़ॉर यू।” उसने कॉफ़ी का एक घूँट लिया।

“मगर रिज़ल्ट क्या रहा?” मैंने पहली बार उस भाव का अनुभव किया जो किसी शख़्स के मन में तब आता होगा जब मैं उसके सीधे से सवाल का जवाब उसे दर्शन(फ़िलोसॉफ़ी) से देता होऊँगा।

“आई एम फ़िट फ़ॉर दी रोल।” उसका चेहरा कुछ फीका पड़ गया।

“ये पॉज़िटिव तुम्हारे चेहरे पर नेगेटिव दिख रहा है।” दर्शन मैं भी जानता था।

“आई एम फ़िट फ़ॉर दी रोल बट आई डोंट वाँट टू डू इट।” उसने मुझे देखते हुए कहा।

“तो जाने दो। मैं जानता हूँ कि तुम्हें ऐसे कई ऑफ़र रोज़ आते होंगे।” कैफ़े की मद्धी पीली रौशनी ने उसके सफ़ेद टॉप को हल्का पीले रंग दे दिया था। उसके बाल सूख गए थे। उसके जवाब के इंतज़ार में मैं उसमें दोबारा खो गया था। और वह शायद मेरी इस बात में खो गई थी कि उसे तो एक्टिंग के कई ऑफ़र रोज़ आते होंगे।

“आई ड्रीम ऑफ़ बींग इन फ़िल्म्स।” उसने अचानक कहा।

“यू विल बी यार। जस्ट लुक ऐट यॉरसेल्फ़।” मैं इस वाक्य के आगे जोड़ना चाहता था - “दी वे आई डू।” मैंने नहीं जोड़ा।

“आई नो आई एम डूइंग गुड बट आई वाँट बेटर। एंड समडे दी बेस्ट।” उसकी कॉफ़ी ख़त्म हो चुकी थी। उसने कुछ वेब-सीरीज़, कुछ फ़िल्में, और दर्जनों एडवरटिज़मेंट किए थे। लेकिन हर दिन बेहतर करने की उसकी भूख कमाल की थी। उसे देख कभी-कभी मुझे ख़ुद पर बे-यक़ीनी होने लगती। “मैं कुछ नहीं कर रहा।” का वाक्य मुझे सुबह-शाम सताता। उसके सपने सुन कर मेरे सामने प्रश्न उठता कि - आख़िर मेरा सपना क्या है? और कोई उत्तर नहीं मिलता।

“सब अच्छा होगा दोस्त। यू आर दी बेस्ट फ़ॉर मी एट लीस्ट। और कम से कम तुम्हारे सपने तो हैं। मुझे देखो - मेरे पास अपने सपने ही नहीं।” मैं मुस्कुरा रहा था। लेकिन भीतर निराशा से भर चुका था।

उम्र के इस पड़ाव पे आकर भी मैं साफ़ नहीं समझ सका था कि मुझे अपनी ज़िंदगी के साथ करना क्या है। वो सब कुछ जो मैं कर रहा हूँ, उसमें से किसी को भी लेकर मुझे ये भरोसा नहीं था कि मैं इसी काम को करूँगा, इसी में आगे बढ़ूँगा, और इसकी ही दिशा में खोजूँगा - अपना लक्ष्य, अपना सपना। बहुत कनफ़्यूज़न था। सब धुंधला था। उतना जितना मेरे सामने का सब कुछ होता है, जब मैं अपना चश्मा उतार देता हूँ।

“तो सोचो दोस्त। फ़िगर इट आउट।” उसने ज़ोर देकर कहा। वह टेबल पर आगे झुक आई थी। मुझे उसकी आँखों में वही चमक दिखी, जो अपने सपनों के बारे में बात करते हुए उसकी आँखों में आती थी। वह सपनों की ब्रांड एम्बेसेडर थी - शायद!

मुझे हमेशा से लगता है कि जिन लोगों के पास अपने कुछ सपने हैं, वे लोग मानसिक रूप से अमीर हैं। और सदा रहेंगे। बिना ख़ाब का जीवन, दिहाड़ी मज़दूर का जीवन है।

मेरी चाय भी ख़त्म हो गई।

“लेट्स गो टू माउंट मैरी चर्च।” वह उठ खड़ी हुई, जैसे सिर्फ़ मेरी चाय ख़त्म होने की राह देख रही हो।

“क्यूँ?” वेटर आ गया। उसने बिल रखा। और चाय-कॉफ़ी के कप के साथ पानी के गिलास भी उठा ले गया।

“आई लव दी वाइब ऑफ़ दी प्लेस। बहुत पॉज़िटिव है। और मुझे प्रे भी करना है। कुछ माँगना है।” वह बोल नहीं रही थी, चहक रही थी।

“मैं क्या माँगूँगा लेकिन?” मैंने बिल देखा।

“तुम सपना माँग लेना।” उसने अपनी कुर्सी छोड़ दी।

हमने बिल भरा और नीचे उतरकर कैफ़े से बाहर आ गए।

बारिश फिर से शुरू हो गई थी। धीमी मगर पल भर में तर कर देने वाली बारिश थी। आसमान में देख कर उसकी गति का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता था। लेकिन लैंप पोस्ट की रौशनी में बारिश का पैटर्न दिख रहा था।

सड़क गाड़ियों से लदी पड़ी थी। फ़ुटपाथ पर तरह तरह के छाते चलते नज़र आ रहे थे। एक-दूसरे से टकराते, हवा में लहराते, कटे-फटे, छोटे-बड़े, हर रंग के छाते थे। आसमान था, आसमान के नीचे बारिश थी, बारिश के नाचे छाते थे और छातों के नीचे लोग।

हम छातों के नीचे नहीं थे। हमारे पास वो थे ही नहीं। एक के पास भी होता तो दोनों उसमें आ सकते थे। मैं लगभग पूरा मानसून बिना छाते के निकाल चुका था। लेकिन उस शाम मुझे उसकी सख़्त ज़रूरत मालूम हो रही थी।

हम दोनों कैफ़े की बाहरी शेड के नीचे दुबके हुए थे। मैं सोच रहा था की आगे बढ़कर ऑटो रोकूँ। लेकिन जितनी दूर हमें जाना था, उतनी दूर जाने के लिए कोई भी ऑटो वाला तैयार होगा - मुझे इस बात का अंदेशा था।

“कोई ऑटो तो माउंट मैरी तक नहीं जाने वाले।” मैं ने सड़क पर दौड़ते ऑटो को देखते हुए कहा।

“चल लेट्स कॉल अ कैब देन।” उसने सवाल नहीं किया था। मुझे बताया था।

वह अपने हाथ बांधे खड़ी थी। उसकी आँखें सड़क पर नहीं, उसके पार थीं। शायद उस तरफ़ की फुटपाथ पर। वह वहीं देख रही थी जहां ऊगती शाम को मैंने बच्चों की एक टोली को बारिश में नाचते देखा था। वह संभवतः अपने सपनों को सच होता देख रही थी।

“यू विल बी ए स्टार।” मैंने उसके सपनों को देखते हुए कहा।

“थैंक यू दोस्त।” उसका “यू” सामान्य से कुछ अधिक खिंचा हुआ था। उसने अपनी गर्दन मेरी ओर मोड़कर, उसे कुछ झुका कर ये कहा था।

मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था। अगर कहता तो शायद उसकी झुकी गर्दन के असर से मेरे शब्द झुके झुके ही निकलते।

कैब आ गई। और हम माउंट मैरी चर्च के लिये निकल गए। मैं ने कैब के पीछे वाले शीशे से उस कैफ़े को देखा और आमंत्रित महसूस किया। क्या मैं उसके बिना दोबारा वहाँ जाऊँगा? क्या मैं उसे फिर से वहाँ बुलाऊँगा?  - ये प्रश्न मेरे दिमाग़ में चल रहे कई दूसरे प्रश्नों के साथ जा मिले। कैब अपनी रफ़्तार से चल पड़ी।

उसने अपने बाल खोल लिए। और सर विंडो ग्लास से टिका लिया। मुझे उसकी आँखें बोझिल मालूम हुईं।

“सो रही हो?” मैंने पूछा।

“नहीं! बस कुछ सोच रही हूँ।” उसने अपना सर विंडो ग्लास से हटा लिया।

“मैंने एक ऑडिशन दिया है। इट्स फ़ॉर ए बिग ब्रांड। आई रियली वाँट इट। उसी के लिए चर्च जा रही हूँ। आई विश की वो ऐड मुझे मिल जाए।” वह अपनी चाहतों के बारे में सब को खुलकर बताती थी। उसे अपनी मेहनत पर बे-हद भरोसा था। और शायद इसलिए ही वह डेस्टिनी में ज़रा भी यक़ीन नहीं रखती थी। डेस्टिनी पर ख़र्च ना करके वह अपने विश्वास को मैनिफ़ेस्टेशन में इन्वेस्ट कर देती थी।

उसने ये सब मेरी ओर गर्दन झुका कर कहा था। मैं एक बार फिर कुछ भी कह पाने की हालत में नहीं था। मैं बस उसकी बातों पर अपना सर हिला रहा था।

सफ़र थोड़ा लंबा था सो कुछ देर के बाद हम दोनों ने आपस में बातें करना बंद कर दिया। हम चुपचाप अपने आप से बातचीत करने लगे। वह हक़ीक़त में मेरे साथ थी, मेरे पास नहीं थी।

“आई विश शी कुड बी विथ मी, नियर मी - ऑलवेज़।” मैंने कैब में सोचा। और चर्च में मदर मैरी की मूरत के सामने जस का तस कह दिया।

हम लगभग पैंतालीस मिनिट में, मुंबई के स्थायी ट्रैफ़िक से गुज़रते हुए माउंट मैरी चर्च पहुँचे थे। वह बैंडस्टैंड के क़रीब एक पहाड़-नुमा इलाक़े में स्थित चर्च था। भारत में बरतानिया हुक़ूमत के दौरान बना एक ऐतिहासिक चर्च। हमारी कैब नीचे से एक आर्क पर चलकर ऊपर पहुँची थी। सड़क चिपचिपी थी, और उस पर फैले पेड़ों के पत्ते भी भीगकर वज़नदार हो गए थे। वे सड़क पर जहां गिरते, वहीं ठहर जाते थे।

यहाँ कैब रुकी और वहाँ वह उससे उतरकर - पेड़ों की एक क़तार के नीचे मौजूद लंबी सी दुकान पर चली गई। उसे जो चाहिए था, बड़ी जल्दी चाहिए था। - मैंने कैब का बिल भरा और उसके पीछे उस दुकान तक गया, जो ईसाई पूजन सामग्री से लदी हुई थी।

वहाँ इंसानी जीवन की हर इच्छा, हर मनोकामना के लिए किसी न किसी तरह की कैंडल दिखाई दे जाती थी।

उसने दो कैंडल ख़रीदीं और एक मुझे थमा दी। हम दुकान की सीध में कुछ आगे चले। चर्च वहीं उसी दिशा में था। कुछ देर चल चुकने के बाद हमें किसी ने बताया की चर्च बंद हो चुका है। ईश्वर का दर - बंद था। सोचकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए।

चर्च बंद होने की बात सुनकर उसका चेहरा उतर गया। वह अपने दाँत किसमिसा रही थी। उसकी ख़ीज प्रत्यक्ष थी।

चर्च की विपरीत दिशा में। चिपचिपी सड़क के दूसरी तरफ़ तीन मीनारों वाली एक आसमानी नीली इमारत थी। जिसके दोनों ओर सीढ़ियाँ थीं।

सीढ़ियों के बीच में, इमारत के ठीक नीचे लोहे का एक लंबा चौड़ा प्लेटफ़ॉर्म था जिसपर दर्जनों कैंडल जल रही थीं।

दोनों सीढ़ियाँ ऊपर जाकर एक खुले पोर्च जैसे स्पेस पर ख़त्म होती थीं। जहां लोग अपने हाथों में कैंडल लिए खड़े थे। वे सब मदर मैरी की एक विशाल, आलोकिक और जीवंत मूरत के सामने खड़े थे। लगता था जैसे प्रेम, निष्ठा, और क्षमा की प्रतीक, दोनों हाथ जोड़कर सब स्वीकार करने की मुद्रा में खड़ीं मदर मैरी एक साथ उन सब से बात कर रही हैं। सबकी सुन रही हैं।

उसका चेहरा खिल गया। उसने लगभग दौड़कर सीढ़ियाँ चढ़ीं और अपने दोनों हाथों की उँगलियों को आपस में बाँधकर प्रार्थना करने लगी।

मैं उसके पीछे वहाँ पहुँचा और वहाँ के नितांत चुप को महसूस कर अभिभूत हो गया। वह पहाड़ की ऊँचाई और समंदर की गहराई वाला चुप था। वह समाधि वाला चुप था, घोर ध्यान वाला चुप था।

मुझे आज भी लगता है कि उस दिन वहाँ ऊपर पहुँचकर मैंने मदर मैरी की मूरत के सामने नहीं, उस अद्भुत शांति के सामने हाथ जोड़े थे। शांति जिसका सोर्स मदर मैरी थीं।

उसके और मेरे अलावा वहाँ और भी लोग थे जो अपनी-अपनी प्रार्थनाओं में लीन थे।

उसकी आँखें बंद थीं, दोनों हाथ आपस में गुँथे हुए थे, और सर सामने की ओर झुका था। वह माँगने में मसरूफ़ थी।

मुझे कभी माँगना नहीं आया। ईश्वर से भी नहीं। इसलिए मैं सिर्फ़ हाथ जोड़े और आँखें खोले मदर मैरी की बंद आँखों को देखता रहा।

बहुत सोचकर मैंने सिर्फ़ इतना कहा - “आई विश शी कुड बी विथ मी, नियर मी। - ऑलवेज़।”

हवा उसके बालों से होते हुए मेरे बालों तक आ रही थी। ठंडी हवा थी। वह शायद उसके और मेरे बीच खड़ी थी। हवा की प्रार्थना क्या होगी? मैं कुछ देर सोचता रहा था।

दूसरों को पूरे समर्पण और एकाग्रता से प्रार्थना करता देख मैं अपने आप को पराया महसूस कर रहा था। मैं सोच रहा था कि वहाँ जो लोग ईसाई हैं - वो मदर मैरी के सामने बाइबिल की कौनसी वर्स पढ़ रहे हैं? काश! मैं भी उसे पढ़ पाता।

मैं हर जगह स्वीकार कर लिया जाना चाहता हूँ। जहां जाता हूँ, वहाँ का होकर रहना चाहता हूँ। मुझे हमेशा उन माहौल में, उन लोगों में घुल-मिल जाने की इच्छा होती है - जिनके बीच में हूँ।

मैं मराठी के साथ मराठी होना चाहता हूँ, गुजराती के साथ गुजराती, बंगाली के साथ बंगाली, उड़िया के साथ उड़िया, तमिल के साथ तमिल। फ़्रेंच के साथ फ़्रेंच, जर्मन के साथ जर्मन, इंगलिश के साथ इंगलिश। धर्म और जातियों के मामले में भी मेरे ख़याल, मेरी इच्छाएँ कुछ ऐसी ही हैं।

अगर हम सबको समझ सकें। तो किसी को कुछ समझाने की ज़रूरत  नहीं पड़ेगी।

उसकी प्रेयर ख़त्म हो गई। उसने मुझे उसकी कोहनी से जगाया। मैं खुली आँखों से अपने मन में गहरे उतर गया था।

हम दोनों नीचे उतर आए। और सीढ़ियों के बीच बने प्लेटफ़ॉर्म पर कैंडल जला दीं। वह कुछ और देर हाथ जोड़े खड़ी रही।

“थैंक्स फ़ॉर कमिंग।” वह जगमगा रही थी।

“थैंक्स फ़ॉर ब्रिंगिंग मी।” मैं मुतमईन था।

“तुमने क्या माँगा?” उसने पूछा।

“सपना।” मैंने कहा।

बारिश की हल्की बौछार गिरने लगी, हवा तेज़ हो गई, चर्च की घंटियाँ बजने लगीं। और सड़क पर जमे पत्ते फिर से उड़ने लगे। पेड़ों के हरहराने की आवाज़ तेज़ हो गई। और दुकानें बंद होने लगीं।

मैंने उसके लिए एक ऑटो रुकवा लिया।

हम दोनों ने एक-दूसरे को गले लगाया और वह चली गई। - ऑन हर वे।

Keep Visiting!

Saturday, 11 March 2023

A Long Walk to I-Phone || My Apple Story



I am young, and I too had a dream. A dream to have an iPhone.

It's been around 5 years now. 5 years of people asking me - "When will you buy a new phone?" and 5 years of me telling them - "I will buy an I-phone soon."

Looking at my cracked, scratched, malfunctioning, and super slow "MI Y2" and seeing me use it with almost no worries whatsoever, made everyone think - Why the hell is this guy not buying a new phone?  And my answer remained the same, always - for 5 long years.

My phone "MI Y2" has a broken screen, a faded back body, and a battery backup of less than an hour. From the volume buttons to the power button – Nothing works in it. But I was okay. I mean I love my phone. You see a phone mostly is a liability. But I used my phone for almost five years and turned it into an asset for myself. I couldn't settle for less and that's why I kept telling everyone - "Jab bhi luunga, iPhone hi luunga."

For people like me - Getting an I-phone is not that simple, easy, and straight. It's not something you buy overnight. It's a task, which requires proper mind mapping & financial planning.

After 5 years of enquiring about rates, checking offers, savings, and procrastination - I finally decided to get the damn iPhone on 8th March 2023 (I made such confident decisions before too but failed miserably in executing them.)

However, this time was different. I was in my Aram Nagar, Versova office when I called my friends - Naresh Malik & Amit Khare. I asked them to come to Infinity Mall, Malad. I told them - It's time.

I  took a bus from Versova and they took an auto from Kandivali. Within 2 hours we met at The Infinity Mall, Malad. We entered The Chroma Store and checked for iPhone 14+ first. Shifted to iPhone 14 then and finally settled on iPhone 13. As Ghalib rightly said – "Bahut nikle mere armaan, lekin phir bhi kam nikle."

You must know that all this was happening because I was under the impression that I will buy the phone on EMI. We finalized a green-colored iPhone 13 which cost 64,900/- rs. The salesman brought a brand new piece for us. He handed it over to the finance guys and asked us to visit the finance desk.

As soon as I started walking toward the finance desk. My friend Naresh got a call. He took it and walked out of the showroom. With a gesture, he called us out too.

"Kya hua ekdum se?" I asked as I went out with him.

"Abe Kandivali wale Chroma mein 62,900 ka mil raha hai. 2000 bachao." He said in style. We left the salesman hanging inside. and took an auto to Chroma, Kandivali. In 30 minutes we reached there and met the sales manager present.

"62,000/- mein dunga. Aa jao." He said.

We went to the finance desk and sat there. A boy in a red HDFC bank T-shirt named Alam came smiling and sat in front of us. 

"Hara to nahin hai, Neela milega. Kar dun finance?" Alam asked.

I looked at Naresh and Amit. And they looked at me. I wanted the green one. But then came the golden words by Naresh - "I-Phone koi aam phone nahin hai. Ismein cover lagana hi padta hai. To koi bhi colour le lo farq nahin padta. Cheez wahi rahegi." Baat sahi thi - "Rang se koi farq nahin padta."

I agreed to the blue one and asked Alam to start the financing process. He asked for my Aadhar Card, Pan Card, Address, and Bank details from me, and after sitting idle for 10 minutes said -

"Aapka Cibil score -1 hai. Loan nahin milega."

I knew this would happen. I never used a credit card in my life. It was obvious that the Cibil was -1. Then and there I was reminded of those young guys roaming around the metro stations, malls, and banks - Begging me to get a credit card.

I was about to stand up from my seat in despair when Naresh handed over his credit card to Alam. He had a good cibil score and we were getting a loan of Rs. 50,000/- on his card. We were happy. Alam asked for the same details from Naresh, as he asked from me. Everything was going right when suddenly Alam the finance guy told us that Naresh's address was not getting verified, as he had some issue with his Aadhar card. Naresh ka aadhaar, niraadhaar nikla. And we lost our "Aadhaar" to get the iPhone.

Alam smiled. He asked us to leave without even saying it. We left the showroom and came back home. But the fire to get the phone was alive. "Ye patthar , ye dhuup, ye kaante - inse kaisa darna hai // Raahein mushkil ho jayein to chhodi thodi jaati hain." Said Subhan Asad.

Naresh went to his flat and I & my roommate Amit came to ours. I was still thinking of ways to get the phone, and Amit was doing the same. At around 1 AM me and Amit thought of Shivam Agrawal. Another friend of ours, Who came with us to Mumbai from Indore. We knew that he had taken some loans before and he might have a great cibil score. "Yaad karne par bhi dost aaye na yaad // doston ke karam yaad aate rahe." Says a couplet by Khumar Barabankavi.

The next day I.E. On 9th March 2023 - A third attempt to get the iPhone was in place. I had a show to host that day and so I went for it to Bandra. On the other hand - Amit, Shivam, and Naresh too had a show to put up. They went back to The Chroma Store, Kandivali. They were taken by surprise when they didn't find Alam there. There was a whole different finance guy they had to face this time.

This guy whose name I don't know asked for all similar details to sanction a loan. Everything went perfectly. Shivam's cibil score was 500+ he was getting the loan easily. We were close enough to get an iPhone when the finance guy asked Shivam - "Sir, aapka rent agreement de dijiye."

"Vo to teen maheene mein expire ho jaega." answered Shivam. The finance guy didn't even ask for the bloody expiry date of his rental agreement. He just asked for the agreement as address proof. Because you see none of us are from Mumbai. But this guy I think has a thing to give – TMI (Too much information.)

The finance guy immediately denied giving any loan to Shivam. Enough "Gaalis" were however given to him post this incident. 5 years in Mumbai and he was naive enough to say such an idiotic thing. "Achchhe logon ke saath kabhie bura nahin hota -  They say. Hota hai, bahut hota hai - I say it with proof." If I would have been there I would have quoted Aaaga Qazalbash's couplet to Shivam – "Bade seedhe saadhe, Bade bhole bhaale // Koi dekhe is waqt chehera tumhaara."

But I wasn't there. Everything was told to me when I came back from my show.

This was the third attempt - which failed flawlessly. And now I lost my fire to get the iPhone too. The next that I went to the office, worked, came back home, and slept. There was no conversation around iPhone now. Just before going to bed that night I said to myself - "Qismat mein nahin hai toh nahin milega. Koshishein bekaar hain. I-Phone lene ka khayaal chhod do." 

And then came the day. D-day - 11th March 2023, Saturday. I and Amit went to Goregaon from Malad to have some Poha. Once you lived in Indore, you can go to any extent to get good Poha. We reached a little late however and didn't get any. Riding back home, I don't know what got into me - I asked Amit to stop for a while at Vijay Sales, Malad. He turned his head towards me and smiled.

At 11:15 AM sharp on 11th March 2023 - We were at The Vijay Sales, Malad. The first customers of that day. We were about to put out our fourth attempt at getting the damn iPhone 13. Till now we were experienced enough. We didn't go to the iPhone showcase area. We directly asked for the finance desk and went to the first floor. This was where we met Jitendra Kushwaha. Finance Manager(IDFC First Bank.) He was Alam part 2. (it's not Aram nagar part 2. Read again.)

Madad karne waale har jagah hote hain – Kahin Alam, toh Kahin Jitendra.

We clearly said to Jitendra - "Humara cibil score nahin hai. I Phone 13 lena hai. Kuch ho sakta hai to batao."

"Hoga na sir. Baithiye aap." Jitendra was more than confident. We sat down in hope. "Umeed bahut badi cheez hai. Lekin bahut chhoti cheezon mein bhi mil jaati hai."

Jitendra followed the same process of asking for my Aadhaar, PAN, Address details, etc, and denied the loan to me. He then checked Amit's details just for the sake of it and told us that he can only give us 25,000/- rs. loan  And that too on Amit's account and not mine. We looked at each other and stood up. "Thank you." We murmured and walked out. 4 failed attempts in a row. Aai-Phone humaare paas aa hi nahin raha tha.

With sad, hopeless, and pale faces we started riding back to our flat. All hope was lost, fire exhausted and dreams shattered. It was when Shivam Agrawal called me.

"Film dekhne chal rahe?" He asked.

"Nahin. Aaj ek aur baar aaye the I-Phone ke liye. Baat nahin bani. 25,000 ka hi loan mil raha hai." I said in a low voice.

"Tu de kitne sakta hai. Ye bata." He asked.

"Bees hazaar." I figured quickly.

"Bas toh! 20,000 tu de, 25,000 ka loan hai. Bache 17,000 mein deta hun."

"Vijay Sales, Malad. Infinity ke bagal mein. Aa jaa turant." I said and disconnected the call.

"Wapas chalo. I-Phone aaj hi aayega." I asked Amit to ride back to Vijay sales.

At around 2 PM on 11th March 2023 - Me, Amit, and Shivam were standing in the billing queue of Vijay Sales, Malad. And at around 2:30 PM Jitendra Kushwaha, Finance Manager (IDFC First bank) handed over a Brand New Blue Colored I-Phone 13 to me.

After 5 long years of waiting, manifesting, and procrastinating, I finally got an iPhone. After 4 failed attempts, with the help, efforts, and dedication of my friends. Friends, who believed in my dream of getting an iPhone more than me. And who all went far to get me what I wanted.

I now have an I-phone with me. And I am happy & satisfied. I feel like a winner. But the happiness I think is less of the phone, and more of the fact - That I have a few friends who accept me the way I am, who cares for me, and will always back me whatever happens.

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पूरे चाँद की Admirer || हिन्दी कहानी।

हम दोनों पहली बार मिल रहे थे। इससे पहले तक व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर बातचीत होती रही थी। हमारे बीच हुआ हर ऑनलाइन संवाद किसी न किसी मक़सद स...