मैं
एक कवि को
सोचता हूँ
और बूढ़ा हो जाता हूँ -
कवि के जितना।
फिर
बूढ़ी सोच से
सोचता हूँ
कवि को नहीं। कविता को
और हो जाता हूँ जवान -
कविता जितना।।
-प्रद्युम्न।
वहाँ, जहाँ से विनोद जी कहते हैं - “मैं विनोद कुमार शुक्ल, अपने घर से बोल रहा हूँ।” - हर एक बहस ख़त्म हो जाती है। वहां शर्मसार होती है भ्रष्टता। उसका प्रवेश वहां वर्जित है।
कुटिलता, चालाकी, तिकड़मबाज़ी - दूर से ही रास्ता बदल लेती हैं। वह एक कवि से बहुत बहुत पहले एक इंसान का घर है। इंसान - जो विरले हैं।
विनोद जी का घर ध्वनियों का घर है। जगहों को वहाँ सुलभ जगह प्राप्त हैं। भाषा का बाल रूप वहाँ खेलता है। शब्द पाँव-पाँव मुस्कुराते चलते हैं। और सब भाव सहजता से रहते हैं। उनमें किसी तरह की आक्रामकता नहीं। मिलावट नहीं। अभिनय नहीं।
विनोद जी के घर में स्थिरता का वास है। जहाँ वे रोज़ कुछ न कुछ रचते हैं। बस! रचा हुआ रोज़ दिखता नहीं। वे सरापा कवि हैं। उनका मौन भी सृजन लगता है। वे ख़ुद ही कहते हैं - “मैं एक शब्द की कविता लिखना चाहता हूँ। अगर एक शब्द से कविता लिखना आ गया, तो मौन से भी कविता लिखना आ जाएगा।”
विनोद कुमार शुक्ल उस सफ़ेद चॉक की तरह हैं, जिसका ज़िक्र उर्दू अदब के आला अफ़सानानिगार सआदत हसन मंटो ने किया है। - “मैं काली तख़्ती पर सफ़ेद चॉक इस्तेमाल करता हूँ। ताकि काली तख़्ती और नुमाया हो जाए।”
भारत के वर्तमान रचना संसार पर। कथित कवियों, साहित्यकारों, सृजनकर्ताओं पर। समाज पर। - विनोद कुमार शुक्ल सफ़ेद चॉक की तरह हैं। हम सब का कालापन उनके होने से और नुमाया हो जाता है। हम करप्ट हैं। हमें स्वीकार करना चाहिए। स्वीकार्यता से सुधार संभव है।
विनोद जी का घर गली के आख़िरी घर जैसा है। और शायद! दुनिया के आख़िरी घर जैसा। घर - जहाँ एक पेड़ है। एक आँगन, एक छत है। दोनों के बीच सीढ़ियाँ हैं। एक झूला, कुछ कुर्सी, कुछ टेबल, किताबें हैं। जहाँ - चार फूल हैं। और दुनिया है।
विनोद जी से जीवन - समृद्ध है। उन्हें मेरा प्रणाम। सदा। हमेशा।
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