महान ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार की एक मशहूर ग़ज़ल का शेर है - गिड़गिड़ाने का यहाँ कोई असर होता नहीं // पेट भरकर गलियां दो आह भरकर बद-दुआ। पिछले पंद्रह महीनों से लगातार मध्यप्रदेश के आधा दर्जन अस्पतालों में जाने और हर एक की व्यवस्था, उनकी दशा और दिशा, उनकी नीति और नीयत को करीब से देखने के बाद ये शेर मेरे माथे पर किसी बयान की तरह चस्पा हो गया है। दुष्यंत कुमार का ही एक और शेर यहाँ गौरतलब हो जाता है - वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है // माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है।
विगत ग्यारह जून को ६३ साल की उम्र में मेरे पिता का कैंसर से देहांत हो गया। लगभग एक साल पहले मार्च के महीने में शुरू हुई एक लड़ाई सिर्फ़ पंद्रह महीनों में समाप्त हो गई। लड़ाई जो शुरुआत में तो एक बीमारी के ख़िलाफ़ नज़र आई, लेकिन धीरे-धीरे मालूम चला कि मैं और मेरा परिवार इस राज्य या कहूं कि इस देश की चरमराई हुई मेडिकल व्यवस्था से युद्ध लड़ रहा था। व्यवस्था जहाँ मरीज़ से उसकी तक़लीफ़ से पहले उसकी मासिक आय पूछी जाती है। जहाँ रोगी को एडमिट करने से पूर्व ही एक मोटी, भारी-भरकम रकम जमा करवा ली जाती है। जहाँ १० रूपए की दवाई १००० रूपए में बेची जाती है। जहाँ डॉक्टर कम, अकाउंटेंट ज़्यादा हैं। जहाँ कदम कदम पर जांच है। न शर्म है, न लाज है। जहाँ औसत से भी कम कौशल रखने वाले मेडिकल स्टाफ़ हैं। रेलवे स्टेशनों को मात कर देने वाली गंदगी है। मर चुकी संवेदनाएं हैं। ठूठ हो चुकी इंसानियत है। और जहाँ इलाज नहीं, केवल और केवल बीमारियां हैं।
मेरे पिता का इलाज भोपाल के होशंगाबाद रोड स्थित एक अस्पताल में हुआ। अस्पताल - जहाँ सबसे पहले तो एक जनरल सर्जन ने मेरे पिता की कैंसर से जुड़ी सर्जरी की। एक ऐसा कृत्य जो देश-दुनिया की किसी भी मेडिकल गाइडलाइन्स के अनुरूप नहीं था। इस डॉक्टर ने ऑपरेशन के पूर्व या दौरान किसी भी ऑन्कोलॉजिस्ट(कैंसर स्पेशलिस्ट) से बात नहीं की। और फिर ऑपरेशन के बाद प्राप्त हुई पोस्ट-बायोप्सी रिपोर्ट को देखकर हमें घर भेज दिया। इस घटनाक्रम के बहुत बाद में हमें ज्ञात हुआ कि उस पोस्ट-बायोप्सी रिपोर्ट में साफ़ तौर पर कैंसर फैल चुकने के संकेत थे, लेकिन इसके बावजूद डॉक्टर ने हमें न कीमोथेरेपी की सलाह दी और न रेडिएशन की। इंडियन कॉउन्सिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च की गाइडलाइन के अनुसार कैंसर की सर्जरी के बाद आसपास के लिम्फ नोड्स को डाइसेक्शन के लिए भेजा जाता है। यह कैंसर की स्टेजिंग और मैनेजमेंट के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम है। लेकिन इस कदम को बड़ी लापरवाही से डॉक्टर और अस्पताल प्रबंधन ने नज़रअंदाज़ कर दिया। इसका सुबूत है वो पोस्ट-बायोप्सी रिपोर्ट जिसमें साफ़ अक्षरों मैं लिखा हुआ है - "नो लिम्फ नोड्स सब्मिटेड।"
छह महीने बाद पिता को पीठ में कुछ दर्द हुआ तो हम उन्हें लेकर भोपाल के होशंगाबाद रोड स्थित उसी अस्पताल में पहुंचे और उसी डॉक्टर को फिर से दिखाया। कुछ देर अपने हाथों से पिता का शरीर टटोलने के बाद वह घबराते हुए बोला - कैंसर फैल गया है। आप तुरंत फलां अस्पताल चले जाइये। फलां अस्पताल, भोपाल शहर का वह कैंसर अस्पताल है जो अपने इलाज के लिए कम और अपनी रीढ़ तोड़ देने वाली फ़ीस के लिए ज़्यादा मशहूर है। मेरे भोले-भाले पिता छह महीनों तक लगातार इस डॉक्टर को फोन लगाते रहे, पूछते रहे कि क्या उन्हें दिखाने आना चाहिए, क्या उन्हें कोई दवा लेनी चाहिए, क्या उन्हें कुछ ख़ास चीज़ें खानी चाहिए, क्या उन्हें कोई परहेज करना चाहिए। लेकिन इस डॉक्टर ने न उन्हें बुलाया, न उन्हें कोई दवाई बताई, न कोई परहेज बताए, न डाइट चार्ट दिया।
छह महीने बाद जब कैंसर फैलने की जानकारी हमें मिली तो हम भोपाल के इंद्रपुरी स्थित एक अस्पताल पहुंचे। यहाँ एक और बार पिता की बायोप्सी हुई और मालूम चला कि जो कैंसर छह महीने पहले लोकलाइज़्ड था, अब वह मेटास्टेटिस हो चुका है, यानी फैल चुका है। साफ़ था कि उस एक डॉक्टर की भूल, भूल या अपराध?, अपराध या पाप? की वजह से मेरे पिता की बीमारी, उनका दर्द, उनकी तकलीफ़ बढ़ गई थी। इसके बाद पिता की एक और सर्जरी हुई। और फिर उसके बाद कीमो और फिर रेडिएशन। बहुत आश्चर्य था कि इस इलाज के दौरान मेरे पिता के शरीर में कोई साइड इफ़ेक्ट देखने को नहीं मिले। इसका कोई भी संतोषजनक जवाब भोपाल के इंद्रपुरी स्थित अस्पताल प्रबंधन ने नहीं दिया। एक महीने बाद हमें फिर यहाँ बुलाया गया और किसी भी तरह की जांच नहीं करवाई गई। फिर तीन महीने बाद पिता को अचानक खांसी चलने लगी। इस समस्या को लेकर जब हम अस्पताल पहुंचे तो बताया गया की कैंसर लंग्स में पहुँच गया है। अब ये कौनसा कैंसर है इसकी जांच के लिए भोपाल के अरेरा कॉलोनी स्थित एक अस्पताल में पिता की फिर से बायोप्सी हुई। इस जांच से बाहर आने के बाद पिता ने बताया कि अंदर डॉक्टर के आसपास मौजूद स्टाफ़ को किसी भी मेडिकल इक्विपमेंट की जानकारी नहीं थी। उन्होंने स्टाफ़ को आपस में बातचीत करते सुना था कि - "हम लोगों ने तो कभी बायोप्सी की ही नहीं है।"
फिर कुछ दिन बाद बायोप्सी की रिपोर्ट आई। इसके बाद पिता का पेट स्कैन हुआ(कैंसर के मामले में सबसे बड़ी और महंगी जांच यही है।) पेट स्कैन की रिपोर्ट में मुझे बताया गया कि कैंसर पिता के पूरे शरीर में फैल गया है। और उनके पास बस तीन महीने हैं। इस बीच पिता बेहद कमज़ोर हो गए। दिन में पांच-दस किलोमीटर आसानी से चल लेने वाले व्यक्ति का खड़े रह पाना दुश्वार हो गया। उनका वज़न लगातार गिरने लगा। चेहरा लटक गया। उन्होंने पहले खाना छोड़ा, फिर बोलना, फिर पानी पीना छोड़ा और फिर अपनी आँखें मूँद ली। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने न अपने बेटों से बात की, न अपनी पत्नी से। उन्होंने हमें देखा तक नहीं। डॉक्टरों ने उन्हें कीमोथेरेपी देने से मना कर दिया और हमें घर जाने की सलाह दी। यह सलाह उस अस्पताल से आई जहाँ पिता अपने आख़िरी दिनों में एडमिट रहे। और जहाँ से हमें शायद बस इसलिए बाहर कर दिया गया क्योंकि हमने "आई. सी. यू." में पिता को एडमिट करने की इजाज़त अस्पताल प्रबंधन को नहीं दी। असीम दर्द झेलते हुए भी पिता शांत लेटे रहे। उनकी आँखों के कोनों से पानी आते दिखाई देता। वे दर्द में थे, और कुछ कह नहीं पा रहे थे। हम उस पानी को पोंछ देते। हम दर्द में थे, और कुछ कह नहीं पा रहे थे। कवि गीत चतुर्वेदी की पंक्ति है - कितनी ऐसी पीड़ाएं हैं, जिनके लिए कोई ध्वनि नहीं। दैनिक भास्कर के पूर्व पत्रकार कल्पेश याग्निक ने कहा था - कि सबसे खतरनाक वह चीख होती है, जिसकी आवाज़ नहीं आती।
अन्न और जल के बाद अब सांस भी उनसे नहीं ली जा रही थी। बहुत कठिन समय था और इस कठिन समय में हम उन्हें भोपाल से होशंगाबाद(गृह निवास) लाना चाहते थे। ऐसे हालात में भी भोपाल के होशंगाबाद रोड स्थित अस्पताल ने हमें एक ऐसी एम्बुलेंस मुहैय्या करवाई जो असल में एक टवेरा गाड़ी थी, जिसके पीछे एक सख्त गद्दे वाली लोहे की बेंच सरि की बेड डली हुई थी। न उसमें ऐ.सी. था, न मेडिकल से जुड़ी कोई भी व्यवस्था, और न ही एम्बुलेंस चलाने में पारंगत कोई ड्राइवर। अपने पूरे शरीर समेत विष्व की सबसे खतरनाक बीमारियों में से एक से लड़ते हुए मेरे पिता ने एक घटिया स्तर की कथित एम्बुलेंस में लगभग डेढ़ घंटे सफ़र किया और आख़िरकार होशंगाबाद स्थित एक निजी अस्पताल में आ पहुंचे। अस्पताल जहाँ का "आई. सी. यू." वार्ड किसी भी सरकारी अस्पताल के जनरल वार्ड से अधिक गया-बीता था। यहाँ आने के कुछ ही घंटों बाद डॉक्टरों ने हमें कुछ दवाइयां लेने के लिए नीचे भेज दिया। जब तक हम ऊपर लौटे इस महान राष्ट्र की महान मेडिकल व्यवस्था ने मेरे पिता को परास्त कर दिया। मेरा और मेरे भाई का सर झुक गया। हम हार चुके थे। और हमारे लिए दुनिया की हर एक जीत अर्थहीन हो चुकी थी। जिस कलंकित एम्बुलेंस से हम पिता को भोपाल से होशंगाबाद लाए थे। उसी से हम उन्हें अस्पताल से अपने घर लेकर गए। सफ़ेद कपड़ों में लिपटे पिता को हमने एम्बुलेंस से बाहर निकाला और उन्हें सीढ़ियों से घर के अंदर ले जाने लगे। एम्बुलेंस पलटी और अस्पताल के लिए लौट गई। भीगी आँखों से मैंने एम्बुलेंस के पीछे वाले गेट पर लिखी जो बात पढ़ी, वह ये थी - "मानवीय सेवा, ईश्वरीय प्रार्थना।"
आज हमारे देश की दुर्दशा ये है कि कोई भी आम नागरिक सुरक्षा के लिए पुलिस, न्याय के लिए वकील और इलाज के लिए डॉक्टर के पास जाने से घबराता है। सारे रक्षक, भक्षक हो चुके हैं। और हम आज भी हर एक संस्थानात्मक या सरकारी ना-इंसाफ़ी को भगवान की मर्ज़ी मानकर सहते चले जा रहे हैं। हम आवाज़ नहीं उठाते। विरोध नहीं करते। हम कायरता को मुक़द्दर कहते हैं। हम ही लोगों के लिए साहिर लुधियानवी ने लिखा है - इसको ही जीना कहते हैं तो यूँ ही जी लेंगे। उफ़ न करेंगे लब सी लेंगे आँसू पी लेंगे। और दुष्यंत कुमार ने हम पर लानत देते हुए कहा है - इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात // अब किसी भी बात पर खुलती नहीं है खिड़कियां।
पिता चले गए हैं। और उनके साथ चला गया है ये यकीन - कि अच्छाई से सब कुछ सुधरता है। कि ईमानदारी से बड़ा कोई सुख नहीं। लेकिन उम्मीद नहीं जाती। वह रहती है। डूबते को तिनके के सहारे जैसी। ऊंठ के मुंह में जीरे जैसी। रात कमरे में ज़ीरो बल्ब के जैसी। खाली पर्स में बरकत के सिक्के जैसी। कविता जैसी। कला जैसी। उम्मीद। उम्मीद जो कहती है कि इन्साफ़ होगा। अपराधी नापे जाएंगे। पापियों को दंड मिलेगा। समय सबका हिसाब करेगा। दुष्ट शिशुपाल को पता भी नहीं चलेगा कि कब उसके सौ अपराध पूरे हो गए। और जब वह पूरे होंगे श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र चलेगा। अवश्य चलेगा। और सबकुछ बराबर कर देगा।
प्रचलित अमेरिकी सीरीज़ चेर्नोबिल का कथन है - When the truth offends, we lie and lie until we can no longer remember it is even there, but it is, still there. Every lie we tell incurs a debt to the truth. Sooner or later, that debt is paid.
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