Thursday 6 July 2023

बहते पानी की Eye-Witness || हिन्दी कहानी।



उन्हें बहता पानी देखना पसंद था। - नदियों, नहरों, समंदरों का। वैसे जैसे मुझे मछलियों, गायों और कछुओं को खाना खाते देखना पसंद है।  मैं उन्हें पानी को देखते देखता और ख़ुद पानी हो जाने के ख़ाब देखने लगता। पानी का कोई रिप्लेसमेंट क्या कभी हो सकता है?

वो उस शाम डूबते सूरज की लाल रौशनी में खड़ी थीं। उनके चारों ओर से कल-कल पानी बह रहा था। पाँव के पंजे पानी में डूबे थे और आँखें आसमान में। वो आसमान को पानी करना चाहती थीं। - ऐसा लग रहा था। हाथ आगे बंधे हुए थे, बाल एक जूड़े में क़ैद - स्वच्छंद होने को आतुर थे। उनके चश्में के काँचों में सूरज डूब रहा था।

किसी झरने से गिरकर कुछ दूर बहने के बाद पानी वहाँ पहुँच रहा था, जहां वो खड़ी थीं। एक बहुत बड़ा स्ट्रेच्ड लैंडस्केप - जहां ज़मीन में जड़े पत्थर थे, उनपर से दौड़ता, उनके नीचे से जगह बनाता, उनसे टकराता, पकड़म-पकड़ाई खेलता पानी था। पानी में कहीं-कहीं बिजली सी गुज़रती मछलियाँ थीं, पनीले पौधों के झुरमुट थे, लाल गेंद सा सूरज था जो दिन का अपना आख़िरी टप्पा ले रहा था, दूर क्षितिज का हाथ थामे एक झरना था, क्षितिज से ही निकलता आसमान था। और उस आसमान को पानी की तरह बहते देखती वो थीं। मैं भी था - इन सब से बहुत पीछे ठहरा हुआ।

वो जिस सिनेमा की नायिका थीं। मैं उसका नायक नहीं था। मैं बस था। शायद! किसी चरित्र भूमिका में।

कॉलेज के शुरुआती दिन थे। फ़र्स्ट ईयर। जून-जुलाई का वक़्त। उस सुबह अंधियारी छाई थी। कम ही लोग कॉलेज आए थे। आर्ट्स स्ट्रीम के कॉलेज में वैसे भी कोई रोज़-रोज़ नहीं आता। यूनिवर्सिटी के बीच पूरे विश्वविद्यालय की सबसे अलहदा बिल्डिंग हमारे कॉलेज की थी। लगभग चार फ्लोर की इमारत थी। जिसकी सीढ़ियों के घुमाओ उसके सामने बिल्कुल बीच में दिखाई देते थे। वो दूर से ही दिख जाते थे, और हर फ़्लोर पर ग्रुप में बैठे स्टूडेंट्स भी नज़र आ जाया करते थे। बाहर एक छोटा सा गार्डन, उससे लगी व्हीकल पार्किंग और उसके बग़ल में स्कूल ऑफ़ बायोटेक्नोलॉजी था। घुमावदार सीढ़ियों पर बैठे स्टूडेंट्स जब सामने की ओर देखते तो उन्हें दूर शहर के आईटी पार्क तक बिछा हुआ मैदान दिखाई देता। मैदान जो अपने सीधे हाथ की तरफ़ यूनिवर्सिटी ऑडिटोरियम तक फैला हुआ था। और अपने उल्टे हाथ तरफ़ इण्डियन कॉफ़ी हाउस तक। कॉलेज की दूसरी तरफ़ से एक पतली सड़क यूनिवर्सिटी कैंटीन को जाती थी। और उस सड़क के आगे स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स था।

बायोटेक्नोलॉजी और इकोनॉमिक्स के बीच में था - स्कूल ऑफ़ जर्नलिज़्म एंड मास कम्यूनिकेशन(मीडिया भवन)

मीडिया भवन में ही उस सुबह बहुत कम स्टूडेंट्स आए थे। सब कॉलेज के पोर्च में बैठे गप्प मार रहे थे। इस दुनिया के सभी आर्ट कॉलेज गप्पेबाज़ों के गढ़ हैं। कल्पनाओं के बीच, यथार्थ से दूर बसे ये कॉलेज या तो आर्टिस्ट पैदा करते हैं, या फिर सिनिक। कलाकार भी यहीं से निकलते हैं। और कलाकार होने की होड़ में आलोचक बन बैठे लोग भी यहीं की जाये हैं।

मैं कॉलेज के बड़े से दरवाज़े के सामने पहुँचा। और वहीं से अपनी क्लास के कुछ लोगों को देख उनकी ओर बढ़ गया। नीचे टाइल्स पे पुते हल्के पीले और मरून रंग बारिश में भीगकर गाढ़े हो गए थे। कुहासा सा छाया हुआ था। बारिश बंद थी। मैं बाहर गार्डन के बग़ल से चलता हुआ पोर्च में दाखिल हो रहा था जब मैं ने उन्हें देखा। उन्हीं को जिन्हें बहता हुआ पानी देखना पसंद था। वो मेरी क्लास के कुछ स्टूडेंट्स के साथ बैठी थीं। सफ़ेद और हरी पट्टियों वाली एक टीशर्ट और एड़ियों तक की नीली जींस में। उस दिन प्रकृति को जो रंग सबसे गहरे और सबसे उजले थे। वो उनके कपड़ों पर थे।

पोर्च के एक तरफ़ कॉलेज में जाने का रास्ता खुलता था। और एक तरफ़ से पोर्च में आने का मार्ग था। यही रास्ता गार्डन और पार्किंग में जाने के लिए भी था। बाक़ी दोनों तरफ़ ईंट-सीमेंट के बेंच नुमा ओटले थे। वो वहीं उसी पर बैठी थीं। अपने सीधे पाँव पर अपने उल्टे पाँव को रखा हुआ था। हाथ आगे थे। एक दूसरे में गुत्थमगुथ। चश्मा एकदम ऊपर बोहों दे लग रहा था। होंटों पर मुस्कान चमक रही थी। मैं उन्हें देखता हुआ सीधी रेखा में वहाँ पहुंचा और उनसे कुछ दूर उनके बग़ल में बैठ गया।

उन्होंने मुझे आते हुए नहीं देखा था। बैठते हुए देख लिया। “फ़र्स्ट ईयर?” उन्होंने पूछा। बोलने का ढंग कैसे एक-दो शब्दों को ही प्रश्न बना देता है। “हाँ।” मैंने उन्हें देखते हुए कहा और गर्दन हाँ में हिलाता रहा। “आप?” मैं ने पूछा। “सेकेंड ईयर।” वो नीचे अपने पैरों को देख रही थीं। उन्होंने अपनी चप्पलों को नीचे गिरा दिया था। और उन्हें अपने पैरों की उँगलियों से उठाने के प्रयास कर रही थीं। एक तरह का खेल जो वो अकेले खेल रही थीं।

मैं अपनी उँगलियों से उनकी चप्पलों को उठाकर उनके पाँवों में पहना देने के ख़यालात में गुम गया था।

“यहीं से हो?” उनका खेल जारी था।

“मतलब?” मेरा उन्हें खेलते देखना जारी था।

“इसी शहर से हो?” उनकी गर्दन मेरी तरफ़ ऊपर की ओर उठ गई। मेरी उनकी चप्पलों पर टिकी रहीं। मैं ने हठात् उन्हें वहाँ से हटाया और उनसे मुख़ातिब होते हुए कहा -

“नहीं। मैं होशंगाबाद से हूँ।”

“मैं इसी शहर से हूँ।” उन्होंने मेरा सवाल भाँप लिया था।

क्या मैं इतना प्रिडिक्टेबल हूँ? - मैं ख़ुद पर खीज गया।

वो अपनी जगह से उठ गयीं बिना कुछ बोले। चप्पलों को पाँवों में डाल लिया। और दो-तीन कदम आगे चलीं। फिर रुक गईं। जैसे उनका मन कोई फ़ैसला ले रहा हो। कोई डिसिज़न। मैं वहीं बैठा रहा। आसमान में जो अंधियारी छाई थी - वो बरस पड़ी। बदल गरज उठे और तेज़ बारिश होने लगी। वो जीतने कदम आगे चली थीं उतने ही कदम पीछे आकर फिर वहीं बैठ गयीं - बेंचनुमा ओटले पर मेरे बग़ल में।

पोर्च में बात कर रहे लोगों के स्वर ऊँचे हो गए। जैसे किसी बारात में गाजे-बाजे के बीच चल रहे लोगों के स्वर हो जाते हैं।

मैं उनका नाम पूछना चाहता था। लेकिन नहीं पूछा। उन्होंने भी मरा नाम जानना नहीं चाहा। या शायद चाहा हो? मगर पूछा नहीं?

बारिश कुछ मद्धी हो गई। वो हमारे पीछे किसी शॉवर सी बरसती रही। वहाँ हमारे पीछे एक छोटा सा ख़ाली एरिया था। जहां कुछ पुरानी बेंचें, कुछ डेस्क, गमले और कॉलेज के चौकीदार की साइकिल रखी हुई थी। शॉवर में उन सब का नहाना हो रहा था। अचानक अपनी सिलेटी यूनिफ़ॉर्म में चौकीदार दादा वहाँ आ गए। और एक मोटी दरी सी पन्नी भीग रही बेंचों और डेस्क पर डाल दी। उन्होंने अपनी साइकिल उठाई और पीछे से ही उसे बाहर की तरफ़ ले गए। कॉलेज के बाहरी इलाक़े में यहाँ वहाँ भटकता एक भूरा कुत्ता फ़र्नीचर पर डली पन्नी के अंदर घुस गया। काली चीटियों का एक क्रम भी पन्नी के नीचे जाता दिखाई दिया। चौकीदार दादा अपनी साइकिल पर सवार हो गए। एक हाथ से उन्होंने उसका हैंडल सम्भाला और दूसरे हाथ में छाता। वो मैन गेट से होते हुए आईसीएच की ओर मुड़ गए। बेंचनुमा ओटलों से सटकर रखे छोटे-छोटे अनाम पौधे अब भी अपनी पत्तियों पर बारिश की छोटी बूँदों को सम्भाल रहे थे। पोर्च में मौजूद लोगों के स्वर मेरे लिए कब के म्यूट हो गए थे।

यकायक मुझे उनका ख़्याल आया और सब कुछ फिर अनम्यूट हो गया। वो अब भी वहीं बैठी थीं। मेरे बग़ल में। मैंने उनकी नज़रों की रेखा मैं चलना शुरू किया और देखा - ज़मीन पर बरसा पानी कॉलेज के मैन गेट से बहते हुए पोर्च के बाजू से एक सकरे नाले में जा रहा था। पोर्च के आगे मैदान में जो पानी चौड़ी नदी सा बहकर आता, वो पोर्च के बग़ल में आते ही नहर की पतली धार सा बन जाता था। और फिर नाले में विलुप्त हो जाता था। वो पानी के बदलते आकार को देख रही थीं। उन्हें बहता पानी देखना पसंद था।

“आप क्या सोच रही हो?” मैं जिस रेखा पर चलकर बहते पानी तक गया था उसी पर उल्टे पाँव चलकर वापस उनके पास आ गया था।

“कुछ नहीं।” उन्होंने कहा।

“बहुत कुछ।” मैंने सुना।

वो अचानक उठीं और तेज़ कदमों से कॉलेज के अंदर चली गयीं। “सी यू।” उन्होंने कहा। उन्होंने सी को कॉलेज के अंदर ले जाते हुए यू को वहीं दहलीज़ पर छोड़ दिया। कुछ देर पहले वो जिस डिसिज़न को लेकर एकदम खड़ी हो गई थीं। शायद उन्होंने वो डिसिज़न ले लिया था।

उनके जाते ही मैं अपनी बैच के लड़के-लड़कियों के साथ जाकर खड़ा हो गया। मैं उनमें शामिल नहीं हुआ। फ़िज़िकली प्रेजेंट, मेंटली एबसेंट। मेंटली में अब भी उनके साथ था, जिन्हें बहता पानी देखना पसंद था।

बारिश थम गई। कुछ ऐसे जैसे बादल पूरी तरह से निचोड़ दिये गए हों। वे रीफ़िलिंग के लिए अलग-अलग दिशाओं में चले गए। साफ़, धुला आसमान खुल गया। नीले आसमान पर कहीं-कहीं बड़े बादलों से छूटे कुछ सफ़ेद फ़ाये दिखाई देने लगे। छितरे हुए सफ़ेद बादल।

बारिश के एक्ट पर धूप का झीना पर्दा गिर आया था। और मैं अपनी क्लास की बेंच पर बैठा “उनके साथ बैठने” को सोच रहा था।

कोई लेक्चर नहीं लग रहा था। तीन-तीन, चार-चार के ग्रुप में लोग क्लास के अलग अलग कोनों में बैठे बतिया रहे थे। क्लास के ऊपरी शेल्फ़ में कबूतरों के कुछ ग्रुप भी बैठे बातें कर रहे थे। उन्हें सोचते हुए मैं खिड़की से बाहर यूनिवर्सिटी के मैदान को देख रहा था। सूखता हुआ मैदान। किसी चीज़ को देखने भर से नहीं। उसे बार-बार सोचने से आप उसे चाहने लगते हैं।

मैं उस दृश्य को सोच रहा था जब उन्होंने अपनी चप्पलों से खेलते हुए अचानक मुझे देखा था। मुझे लगा था जैसे प्रकृति ने मेरी ओर अपना मुँह कर लिया हो।

उस दृश्य से मेरा ध्यान तब ओझल हो गया जब सेकंड और थर्ड ईयर के सीनियर्स का एक बड़ा सा समूह हमारी क्लास में आ धमका। सीनियर्स हमेशा ऐसे ही आते हैं - बिना कहे, बिना बुलाए, एकदम, अचानक।

लगभग पंद्रह-बीस लोग हमारी क्लास में आए और जगह-जगह स्प्रेड हो गए। जैसे कंचे हो जाते हैं। ऊपर से फेंक दो तो टप्पे खाते, उछलते-कूदते, धीरे-धीरे सैटल होते हैं।

मुझे लगा जैसे मेरी कल्पनाओं में ग़ैर-ज़रूरी यथार्थ का आक्रमण हुआ हो।

कोई सबसे आगे डेस्क पर पालती मारकर बैठ गया तो किसी ने खिड़कियों की शेल्फ पर डेरा जमाया। कोई हमारे साथ बेंचों पर बैठ गया। कुछ लोग बोर्ड के आगे खड़े हो गए। उनमें से एक जिसका क़द वहाँ मौजूद सभी लोगों में सबसे ऊँचा था और जिसने एक काली भारी सी रेग्ज़ीन की जैकेट पहन रखी थी ने डाइस के पीछे खड़े होकर बोलना शुरू किया। उसके एक हाथ में हेलमेट था जिसे उसने बोलना शुरू करने से पहले अपने बाजू में खड़े एक दूसरे सीनियर को दे दिया था।

“आज बारिश हुई है।” उसने कहा। वह आगे बोलता इससे पहले ही आख़िर की बेंच पर बैठे एक सीनियर ने ज़ोर से कहा -

“दिख रहा है।” क्लास हंस पड़ी।

डाइस के पीछे खड़ा सीनियर मुस्कुराया और फिर आगे बोला -

“आज बारिश हुई है इसलिए कोई भी लेक्चर नहीं लगेगा। थर्ड ईयर और सेकेंड ईयर के कुछ स्टूडेंट्स टिंचा फ़ॉल जा रहे हैं। और फर्स्ट ईयर इन्वाइटेड है।” 

“सीनियर्स-जूनियर्स की बॉण्डिंग के लिये ये ट्रिप अच्छी रहेगी दोस्तों। चलिए।” एक सीनियर जो सबसे आगे की डेस्क पर किसी सरपंच सी बैठी थी ने कहा।

“अब इनसे कौन बॉण्डिंग करे।” मैं सोच ही रहा था कि एक क़तार में खड़े सीनियर्स के पीछे से होते हुए वो आईं और मेरी रो से लगी एक खिड़की की शेल्फ पर बैठ गयीं। उन्होंने अपनी चप्पलें नीचे गिरा दीं। और फिर वही खेल शुरू कर दिया - पाँवों की उँगलियों पर चप्पलों को सँभालने वाला खेल।

“इनके साथ टिंचा फ़ॉल तो क्या धरती के आख़िरी फ़ॉल तक भी चल देंगे।” मैं खुश था।

धूप के धागे उनके बालों में घुल-मिल गए थे। हरी-सफ़ेद पट्टियों वाली उनकी टीशर्ट  सूरज की शुआओं से मिलकर क्रीम या लाइट पिंक सी दिखाई दे रही थीं। मैं उनकी नुमूद(एपीरेंस) में खो गया था। उन्हें देखते हुए मैं सुंदर लग रहा होऊँगा - मैं इस बात को दावे के साथ कह सकता हूँ।

जब-जब कोई किसी से प्रेम करता है, दुनिया को रहने के लिए बेहतर करता जाता है।

डाइस के पीछे खड़े सीनियर की आवाज़ अब भी मेरी कानों में पड़ रही थी। मैंने सिर्फ़ अपनी आँखें उनपर बिछा रखी थीं। कान अब भी सब सुन रहे थे। उस सीनियर ने इच्छुक लोगों को आधे घंटे में कॉलेज पार्किंग में आने को कहा और हमारी क्लास से बाहर हो गया। उसके पीछे बाक़ी के सारे सीनियर्स भी बाहर हो लिये। जैसे सोश्यल मीडिया पर लोग किसी ट्रेंड के पीछे हो लेते हैं।

वो किसी ट्रेंड को कभी फॉलो नहीं करती थीं। उनका विश्वास ही इसमें नहीं था। अपनी क्लास के सभी स्टूडेंट्स के बाहर चले जाने के बाद भी वो काफ़ी देर तक वहीं खिड़की पर बैठी रहीं। वो अपनी चप्पलों से खेल रही थीं। और खिड़की से आती ठंडी ब्रीज़ उनके बालों से।

मैं उनके पास जाकर उनसे हुई बातचीत को रिज्यूम करना चाहता था। लेकिन आसपास इतने लोग थे कि मेरी हिम्मत ही नहीं बंध रही थी।

प्रेम हिम्मत माँगता है। और मेरे पास वो नहीं थी। हौसला जुटाकर मैं अपनी बेंच से उठ ही रहा था कि वो खिड़की से उठ गयीं। शेल्फ से नीचे उतरी और अपनी चप्पलें पैरों में डालकर बाहर की ओर चलीं। मैं आधा खड़ा हुआ था। आधा बैठा था। उस ही अवस्था में उन्होंने मुझे देखा और पूछा -

“चल रहे हो?”

मैं चुप उन्हें देखता रहा। वो मेरा जवाब सुने बिना चली गयीं। उन्होंने मुझसे उत्तर की अपेक्षा नहीं रखी। मैं पूरी तरह अपनी जगह पर बैठ गया। और कुछ ही देर पहले की अपनी स्मृति से वो क्षण निकाला जिसमें उन्होंने मुझसे पूछा था -

“चल रहे हो?”

और फिर उत्तर दिया - “हाँ! चलते हैं।”

जैसा कि तय था। आधे घंटे बाद पार्किंग एरिया में हर बैच के स्टूडेंट्स जमा होना शुरू हो गए। धूप सेंकते पेड़ धीमी ठंडी हवा में डोल रहे थे। कॉलेज की बाउंड्री की दीवारों पर केंचुए चलते दिखाई दे रहे थे। मुख़्तलिफ़ बैचेस के स्टूडेंट्स की आपसी बातचीत में झींगुरों की दबी हुई आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। बातचीत को देख कर साफ़ कहा जा सकता था कि कौन किससे बॉण्डिंग करना चाह रहा है। वो कॉलेज ही क्या जहां पाँच-छह पॉपुलर कपल्स न हों।

मैं कॉलेज से बाहर निकलने वालों में सबसे आख़िरी था शायद। ऑफ़िस में बैठे इक्का-दुक्का लोगों की आवाज़ें गूंज रहे थीं। कबूतरों का स्वर हर तरफ़ सुनाई दे रहा था। हर फ्लोर को आपस में जोड़ती सीढ़ियों के घुमाओ पर लोहे की बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ थीं। जैसे महलों में हुआ करती हैं। उन खिड़कियों से साँय-साँय करती हवा पूरे कॉलेज में दौड़ रही थी। दौड़ती हवाओं और गूंजती आवाज़ों के बीच में सीढ़ियाँ उतर रहा था। या तो वो मेरे आगे सीढ़ियाँ उतर चुकी हैं, या फिर मेरे पीछे उतरेंगी। - मैं सोच रहा था।

नीचे कॉरिडोर में चलते हुए मैं उन्हें ढूँढ़ता रहा। मगर वो कहीं दिखाई नहीं दीं। बाहर  दोपहर छिपी बैठी थी। कुछ ही देर में निकल जाने को आतुर। वहाँ पहुँचा तो सामने चौकीदार दादा नज़र आए। अपनी कुर्सी पर ऊँघते हुआ। नींद पूरी करते - पिछली या अगली रात की।

उनका छाता कुर्सी के पीछे बेंचनुमा ओटले से टिका हुआ था। वहीं पास ही उनकी धुली साइकिल रखी हुई थी। उनसे कुछ दूर पोर्च में ही अपने चारों पाँव समेटे वो कुत्ता सो रहा था जिसे मैंने सुबह देखा था पन्नी के अंदर घुसते हुए। उसके पीछे जो चीटियाँ गई थीं वो कहीं दिखाई नहीं दीं।

मैं चौकीदार दादा को कुर्सी पर ऊँघता हुआ देख रहा था। लेकिन उन्हें उनकी साइकिल पर एक हाथ में छाता और दूसरे में साइकिल का हैंडल सम्भाले पोर्च में आते हुए सोच रहा था। मैं कुत्ते को पन्नी की ओट से बाहर आते सोच रहा था।

हो चुके को सोचना। - एक ज़िद्दी आदत।

मैं पोर्च से निकला और गार्डन के बाजू से होते हुए पार्किंग एरिया की ओर बढ़ने लगा। मैं दूर से ही उन्हें तलाशने लगा। मुझे लगा जैसे वो पार्किंग एरिया के एक कोने में पड़े कटे पेड़ पर बैठी हैं। और अपना वही चप्पलों वाला खेल खेल रही हैं। मगर वो वहाँ नहीं थीं। वो मेरे बग़ल में कुछ दूरी पर गार्डन के अंदर से होते हुए पार्किंग एरिया की तरफ़ चल रही थीं। अपने एक हाथ में अपनी चप्पलें उठाए वो धीरे धीरे कदम बढ़ा रही थीं। घास पर जमी पानी की बूँदों में धूप रेनबो सी दिखाई दे रही थी। कई छोटे-छोटे रेनबोज़ के बीच उनके सफ़ेद पाँव संगमरमर से दमक रहे थे।

मैं उनके आसपास गिलहरी, गौरैया, तितलियाँ, और मिट्ठू देख रहा था। और सोच रहा था - ख़ुद को उनके साथ में। घास पर चलते हुए।

हम एक साथ पार्किंग एरिया में पहुँचे। और एक दूसरे को क्रॉस करते हुए अपनी अपनी बैच के लोगों के साथ खड़े हो गए। 

अंदाज़न पंद्रह मिनिट तक इस बात की मैथमेटिक्स चलती रही कि हम सभी के पास कुल मिलाकर कितनी गाड़ियाँ हैं। और उनपर सवार होने की इच्छा रखने वाले लोग कितने हैं। गणित ठीक बैठते ही हम लोग कॉलेज के पार्किंग साइड वाले गेट से यूनिवर्सिटी की सड़कों पर आ गए। मैं अपने दो बैचमेट्स के साथ एक सफ़ेद स्कूटी पर सबसे पीछे बैठ गया। और वो अपनी काली स्कूटी पर सबसे आगे हैंडल सम्भालती नज़र आईं।

गाड़ियों पर पीछे बैठने वाले लड़कों को अक्सर हैंडल सँभालने वाली लड़कियाँ आकर्षित करती हैं।

हम सब यूनिवर्सिटी की सड़कों पर ऐसे बढ़े जैसे किसी राजनीतिक दल की बाइक-रैली निकल रही हो। सड़कों पर ख़ुद आए खड्ड में भरे पानी को उछालते हुए हमारी गाड़ियाँ आगे बढ़ रही थीं। बुलट, अपाचे, ऐक्टिवा, अवेंजर - हमारी रैली में शामिल थीं। वातावरण पर धूप की पतली चादर बिछी हुई थी जो कभी-कभी हवा से उड़ जाती थी।

हम यूनिवर्सिटी कैंटीन और सेंट्रल लाइब्रेरी के रास्ते यूनिवर्सिटी से बाहर निकल आए और टिंचा फ़ॉल्स की ओर बढ़ चले।

नहाई हुई सड़कें हल्की धूप में उबासी ले रही थीं। बारिशों में सड़के देर से उठती हैं। और देर तक जागती हैं। - ऐसा मुझे लगा।

गाड़ी पर मेरे आगे बैठे दोनों साथी आपस में बातचीत करने लगे। उनकी बातों से मालूम हुआ कि मेरी तरह वो दोनों भी दूसरे शहरों से यूनिवर्सिटी में पढ़ने आए हैं। एक मध्यप्रदेश के छतरपुर से था और दूसरा टीकमगढ़ से। दोनों बुंदेलखंडी। 

मुझे उस दोपहर मालूम चला कि अगर दो बुंदेलखंडी मिल जाएँ तो उन्हें किसी तीसरे के साथ की ज़रूरत नहीं पड़ती। लगभग पूरे रास्ता वो दोनों “हम जा के रए / तुम का के रए?” करते रहे। और मैं उनकी भाषा पर मोहित होता रहा। भाषा की सुंदरता उसकी विविधता में है। उसकी महानता उसके इस गुण में है कि वो अपने आप को क्षेत्रीय ढाँचों में ढालना जानती है। भाषा पानी है। बहती रहती है। भाषा और पानी - दोनों का कोई रिप्लेसमेंट नहीं है।

कुछ वक़्त में हम शहर के बाहर आ गए। सड़क के अगल-बगल में अब झोपड़ सरी के घर दिखाई देने लगे। फ़ुटपाथ कीचड़ भरी पगडंडियों में बदल गईं। हम पेड़ों के एक सेमी-केप्सूल में प्रवेश कर गए। और उनसे सिप-सिप टपकती पानी की बूँदों से बचते-बचाते आगे बढ़ते रहे। सड़क पर कहीं-कहीं धूप किसी लेज़र सी सीधी रेखा में गिर रही थी। मोर झाड़ों पर लुका-छिपी खेल रहे थे। सड़क पर गिरा पानी मिट्टी की तलाश में पगडंडियों की तरफ़ बह रहा था। बहते पानी को देखकर मुझे वो याद हो आईं। उनसे बात करते रहने की मेरी इच्छा मुझ में फिर उठ आई। और पेड़ों की छत के ऊपर बादल घिरने लगे। सेमी-कैप्सूल से बाहर निकलते ही उनकी गाड़ी हमारी गाड़ी के ठीक बाजू में दिखाई दी। उन्होंने अपनी हेलमेट का काँच उठाते हुए हमसे कहा -

“वी शुड स्टॉप समवेयर। एंड टेक शेड।”

“यस वी शुड।” टीकमगढ़ वाला मेरा दोस्त मुस्कुराया। मैं अकेला नहीं था जो उनसे बात करते रहना चाहता था।

पेड़ों की छत से निकलकर हम खेतों के बीच आ गए। बादलों की झक्क काली शैडो में धूप गायब हो गई। आसमान सड़क से अधिक सियाह हो गया। बिजली तड़कने लगी। और हवा दौड़ते हुए एक खेत से दूसरे खेत में जाने के लिए सड़क क्रॉस करने लगी। हम सब किसी छत की तलाश में जुट गए।

कुछ ही दूर चले थे कि हमारा रास्ता एक छोटे से कस्बे में दाखिल हुआ। उम्मीद जगी कि यहाँ ठहर कर बारिश से बचा जा सकता है। कोई किसी दुकान की ओट में चला गया, तो किसी ने ख़ाली पड़े बस-स्टॉप के नीचे आसरा ले लिया। कुछ लोग एक मंदिर के पोर्च में टीन की छत के नीचे जा खड़े हुए। उन्होंने अपनी गाड़ी गाँव में थोड़ा अंदर जाकर एक नर्सरी के भीतर मोड़ ली। और हम उनके पीछे मुड़ लिए।

नर्सरी एक सकरे नाले के उस पार थी। इस पार की कच्ची सड़क से उस पार जाने के लिए लोहे के एक जंग-आलूद पुल को क्रॉस करना होता था। उन्होंने बड़ी तेज़ी से अपनी गाड़ी उस पर से दौड़ाई और नर्सरी के भीतर चली गईं। हम उनके पीछे थे। और हम भी उसी तेज़ी के साथ पुल को पार करना चाहते थे जिस तेज़ी से उन्होंने उसे पार किया था।

छतरपुर वाले मेरे दोस्त ने पूरे आत्मविश्वास के साथ गाड़ी को पुल पर मोड़ा। और एक नैनो-सेकेंड में गाड़ी पुल के पैरेलल होकर गिर पड़ी। एक क्षण के लिए गाड़ी पुल के और हम तीनों एक-दूसरे के पैरेलल हो गए। ग़नीमत से हम नाले में नहीं गिरे। हमारी गाड़ी स्लिप होते हुए सीधे उस तरफ़ नर्सरी के गेट को जा लगी।

नर्सरी के अंदर उल्टे हाथ तरफ़ एक आउटहाउस था। वो गेट से लगभग बीस मीटर की दूरी पर था। एक बुज़ुर्ग आदमी उससे बाहर निकला और सीढ़ियों तक आकार वापस भीतर चला गया। कुछ ही देर में वो हाथ में छाता लिए वापस आया और नर्सरी के गेट की तरफ़ बढ़ा।

इस बीच हम तीनों लँगड़ाते हुए खड़े हुए। टीकमगढ़ वाले दोस्त ने गाड़ी उठाई और उसे साइड स्टैंड पर खड़ा कर दिया।

बुज़ुर्ग आदमी ने गेट खोला। वह हम तक आया और कुछ देर चुप खड़े रहने के बाद बोला -

“कौन चला रहा था?”

मैंने और टीकमगढ़ वाले दोस्त ने छतरपुर वाले दोस्त की ओर इशारा कर दिया। हम अभी इतने अच्छे दोस्त नहीं हुए थे कि दूसरे का ब्लेम ख़ुद पर ले लें। या संगठन की शक्ति दिखाएं।

“चलो अंदर। पट्टी करनी पड़ेगी।” बुज़ुर्ग मुड़कर वापस आउटहाउस की तरफ़ रेंगने लगे।

वो नर्सरी के कहीं अंदर से एकदम बाहर दिखाई दीं। उन्होंने हमें मिट्टी में सना और पूरी तरह से भीगे हुए देखा। वो लगभग भागकर हमारे पास आईं।

“अरे! क्या हुआ?” हम गाड़ी सहित नर्सरी के अंदर आ गए।

“वही जो दिख रहा है।” मैंने कहा।

“यहाँ कैसे गिर गए तुम लोग?” पानी बरस रहा था। बूँदें उनके चेहरे पर सामान्य से अधिक देर तक ठहर रही थीं।

“यहाँ नहीं वहाँ गिरे हम लोग। वहाँ से यहाँ तक तो घिसटते हुए आए हैं।” मैंने पुल के उस पार देखते हुए कहा। एक म्लान सी हँसी सभी के चेहरों से गुज़र गई।

“आओ। पट्टी करनी पड़ेगी।” बुजुर्ग ने आउटहाउस की सीढ़ियों से आवाज़ दी।

“हम में से किसी को पट्टी की ज़रूरत तो नहीं।” मैंने सभी से कहा। हम फिर भी आउटहाउस की तरफ़ चल दिए। गाड़ी वहीं गेट के पास खड़ी भीगती रही।

नर्सरी के अंदर की कच्ची सड़क पर गिट्टी और मुरम फैली हुई थी। चारों तरफ़ काली पन्नी के मर्तबानों में अलग-अलग तरह के पौधे रखे हुए थे। आम, जाम, जामुन, आँवला, नीम, अशोक, और भी कई सारे। कई जिनके नाम न मुझे पता थे, न मुझे पता हैं। हम जिस बारिश से बचने के लिए नर्सरी में गिरते-पड़ते प्रवेश कर गए थे, वो बारिश अब सिर्फ़ एक बहुत मद्धम शॉवर की तरह बरस रही थी। मिट्टी, पानी और पौधों की एक मिली-जुली गंध धरती से ऊपर की तरफ़ उठ रही थी।

हम जैसे उस गंध पर चलकर आउटहाउस के बाहर पहुँचे। और सीढ़ियाँ चढ़ते हुए सामने खुले फाटक के अंदर देखने लगे। लकड़ी का एक टेबल, उसके पीछे लकड़ी की ही एक कुर्सी और उसके पीछे लोहे की रेक में पौधे - काली पन्नी के मर्तबानों में। हम सीढ़ियाँ चढ़कर पोर्च में पहुँचे और वहाँ फाटक के दाहिने हाथ तरफ़ रखी बेंच पर बैठ गए। हम तीन बैठे। वो खड़ी रहीं। उन्हें खड़ा देख मैं भी खड़ा हो गया। उन्होंने मुझे देखा, मैंने उन्हें। हमें एक-दूसरे को देखते किसने देखा? - मेरे दोस्तों ने? बुजुर्ग ने? आउटहाउस और उसकी सीढ़ियों ने? मिट्टी ने? बारिश ने? पौधों ने?

“अंदर आ जाओ” बुजुर्ग अचानक कुर्सी पर प्रगट हो आया।

हम तीन लोग अंदर गए। वो दरवाज़े से पलटकर सीढ़ियों तक गईं। और वहीं पोर्च में, शेड के नीचे खड़ी रहीं। सीढ़ियों के आरंभ पर। मैंने एक बार मुड़कर उन्हें देखा। उनकी पीठ को। वो बहता पानी तलाश रही होंगी - मैंने सोचा।

हम आउटहाउस के अंदर पहुँचे। लगा जैसे ये किसी बड़े मकान का पहला कमरा है। और इसके अग़ल-बग़ल बहुत से दूसरे कमरे हैं - जिनमें जाना आम लोगों के लिए निषेध है। जैसा संग्रहालयों या ऐतिहासिक इमारतों में होता है। हर हिस्सा सभी के लिये खुला नहीं होता। क्या ऐसे नियम हमारे निजी घरों या मनों के लिए भी होते हैं?

कमरे की दीवारों में सीढ़न बैठ गई थी। एक वनैली गंध थी जो खिड़कियों के रास्ते अंदर आ गई थी। लोहे की रेक पर छत से गल रहा पानी गिर रहा था। हम तीनों, बुजुर्ग के पास जाकर खड़े हो गए। वो अपनी कुर्सी पर बैठे हुए थे।

“हम में से किसी को पट्टी की ज़रूरत नहीं है दादा।” मैंने कहा।

“अपनी पैंट ऊपर करो।” बुजुर्ग ने छतरपुर वाले दोस्त को देखते हुए कहा।

उसने एक पाँव से अपनी पैंट ऊपर करी।

उसका गुठना और नीचे का कुछ हिस्सा बुरी तरह छिल गया था। जमा हुआ खून पैंट ऊपर करते ही रिसने लगा। ज़ख़्म देखकर मालूम चला कि चोट लगी है।

“पट्टी करनी पड़ेगी।” बुजुर्ग ने कहा। और उठकर लोहे की रेक की ओर बढ़ गया। वहाँ एक खाने में से उसने एक पुराना सा टीन का बक्सा उठाया और आकर उसे टेबल पर रख दिया। वो आदिम वक़्त का फ़र्स्ट-ऐड बॉक्स लगता था।

मैं और टीकमगढ़ वाला दोस्त बाहर गए और वहाँ रखी बेंच को अंदर लाने के लिए उठाने लगे। बेंच उठाते हुए मैंने देखा कि वो अब वहाँ नहीं हैं। पोर्च में शेड के नीचे सीढ़ियों के आरंभ पर जहां वो खड़ी थीं - वहाँ छोटी-छोटी हरी-पीली तितलियों का एक समूह उड़ रहा था।

हमने बेंच अंदर बुजुर्ग की कुर्सी के बग़ल में रख दी। छतरपुर वाला दोस्त उसपर बैठ गया। बुजुर्ग ने उसकी मरहम-पट्टी शुरू करी। उसके कंधे पर हाथ रखे टीकमगढ़ वाला दोस्त भी वहीं बेंच पर बैठ गया। मैं खड़ा रहा।

“मैं उन्हें देख कर आता हूँ।” मैंने कहा। और बिना किसी के उत्तर की प्रतीक्षा करे आउटहाउस से बाहर चला आया। हम अभी तक इतने अच्छे दोस्त नहीं हुए थे कि मैं वहाँ उसकी मरहम-पट्टी के लिये रुका रहता। और वैसे भी दो बुंदेलखंडी साथ थे। उन्हें किसी तीसरे की ज़रूरत नहीं थी। 

मैं सुबह से उनसे बात करना चाहता था, उन्हें जानना चाहता था। और वही करने जा रहा था। कोई किसी को कितनी मुलाक़ातों में पूरी तरह से जान पाता है? अनगिनत में भी नहीं। शायद!

मैं बाहर निकला और सीढ़ियों के अंत पर खड़ा होकर उन्हें खोजने लगा। मेरे सामने गिट्टी और मुरम की भीगी हुई सड़क थी। मैंने उस सड़क को पकड़ा और आउटहाउस से आगे नर्सरी के और अंदर बढ़ने लगा। बारिश पूरी तरह रुक चुकी थी। आसमान साफ़ नीला हो गया था। एक जमा हुआ चुप था जो मेरे जूतों की आवाज़ से टूटता जाता था। लगता था जैसे सड़क पर चुप मेरे आगे-आगे चल रहा हो। किसी गाइड की तरह।

चलते हुए मैं एक ऐसे पॉइंट पर आ कर ठिठक गया जहां से आगे दो रास्ते खुलते थे। नर्सरी अधिक घनी दिखाई देने लगी थी। एक रास्ता पेड़ों से ढँका हुआ था और दूसरे पर ट्रांसलुसेंट फ़ैब्रिक की चादर चढ़ी हुई थी। दोनों पर बारिश से टूट कर गिरे फल, फूल और पत्ते बिखरे हुए थे।

मेरे सामने एक छोटा तालाब था जिसमें कँवल के कुछ कुम्हलाए हुए फूल तैर रहे थे। वातावरण में प्रकृति की मांसल गंध छितरी हुई थी। वो किस रास्ते गई होंगी? - मैं सोच रहा था।

ट्रांसलुसेंट छत से ढँकी सड़क की तरफ़ से मुझे कुछ अस्पष्ट आवाज़ें आती सुनाई दीं। मैंने उस ओर देखा तो अपनी पैंट गुठनो तक चढ़ाए दो लोग आते दिखाई दिये। वो वहाँ एकदम प्रगट हो आए थे, जहां से सड़क मुड़कर किसी और दिशा में घूम रही थी। उनके पैरों में मिट्टी लगी चप्पलें थीं और उन्होंने पैंट के ऊपर सिर्फ़ बनियान पहन रखी थी। उनमें से एक हाथ में गेती(सिकल) थी जिसे वह रह रहकर हवा में चला देता था। दूसरा अपने माथे पर गमछा बांधे और अपने ख़ाली हाथ हिलाते चला आ रहा था। दोनों नर्सरी के कर्मचारी मालूम हो रहे थे।

वह दोनों धीमे स्वर में लगातार बातें करते हुए उस पॉइंट की ओर बढ़ रहे थे जहां मैं खड़ा था। मेरे क़रीब आते ही वो दोनों जैसे शब्दहीन हो गए हों। मुझे देखते हुए ब-ग़ैर कुछ बोले वो दोनों मेरे बाजू से मुड़े और आउटहाउस की तरफ़ जाने लगे। मैंने उन्हें पलटकर देखा। उन्होंने नहीं।

मुड़कर मैंने पेड़ से ढँकी सड़क को देखा। और वहाँ चुप को खड़ा पाया। “चुप” जो मुझे एक गाइड की तरह इस पॉइंट तक ले आया था। मैंने उसे फॉलो करने का निश्चय किया और उनकी तलाश में पेड़ों से ढँकी कच्ची सड़क पर चलने लगा। आगे-आगे चुप, पीछे-पीछे मैं।

ठंडी हवा में मेरी शर्ट फड़फड़ा रही थी। बारिश बंद थी लेकिन पेड़ों की टहनियों पर से पानी गिर रहा था। सड़क से लगभग लगकर काली पन्नी के मर्तबानों में रखे पौधे हवा के बहने की दिशा बता रहे थे। कुछ पौधों को देखकर लगता था जैसे वो आँखें उठाए ऊँचे पेड़ों को देख रहे हों। - पेड़ हो जाने की आशा में।

हर पौधे की तमन्ना पेड़ हो जाना है। मगर हर पौधे की तक़दीर वो नहीं।

मेरी तमन्ना उनसे मिलने, उन्हें जानने, उनसे बात करने की थी। मैं उन्हें ढूँढते हुए आगे बढ़ रहा था। जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता, सड़क आगे से उठती जाती। मुझे मालूम ही नहीं चला कि मैं कब एक सीधी-सपाट सड़क पर चलते हुए, एक पहाड़ी ट्रेल की चढ़ाई करने लगा।

यहाँ पहले कोई पहाड़ या कोई छोटी पहाड़ी रही होगी। - मैंने सोचा। जहां आज पहाड़ हैं, वहाँ सदियों पहले समंदर रहे होंगे। जिन नदी के तटों पर आज घाट तने हुए हैं, वहाँ कभी गहरे-घने जंगल रहे होंगे। - मैं पहाड़ी रास्ते पर एकदम ठिठक गया। वो सामने थीं।

सड़क पर एक तरफ़ बैठी हुई। उनके पाँव एड़ी तक बहते हुए पानी में डूबे थे। बारिश का बरसा हुआ पानी सड़क के किनारे-किनारे नीचे बह रहा था। उनके पाँव उसी में डूबे हुए थे। चप्पलें एक बग़ल रखी हुई थीं। वो अपने पाँवों की उँगलियों में छोटे-छोटे पत्थरों को फँसाने की कोशिश कर रही थीं। चप्पलों का उनका खेल, पत्थरों के खेल में बदल गया था। बहता पानी उनके पाँवों से टकराकर अपनी राह नहीं बदल रहा था। वह उनके ऊपर और नीचे से बस बहे जा रहा था। वो पानी को जगह दे रही थीं और पानी उन्हें। लगता था जैसे - प्रकृति और उनके बीच किसी तरह का संघर्ष नहीं है। वे दोनों परस्पर साथ रहने के लिए ही बने हैं।

मैं उनकी ओर लगा। और धीरे-धीरे मुझे उनके इर्द-गिर्द तितली, गिलहरी, गौरैया और मिट्ठू दिखाई देने लगे। मैं उनके पास जाकर बैठ गया। पाँव पानी में डुबो दिए। - एड़ी तक।

उन्होंने मेरा आना नहीं देखा। मेरा बैठना देख लिया।

“अरे! कैसे ढूँढा?” उन्होंने अपनी हल्की गीली हो चुकी जींस को गुठनो तक चढ़ा लिया। सुबह से पॉज़्ड हमारी बातचीत आख़िरकार रिज्यूम हुई।

“ढूँढा नहीं। बस! आप मिल गए।” मैंने भी अपनी जींस ऊपर कर ली।

हम दोनों की बातचीत के बीच कभी बहते पानी के स्वर सुनाई दे जाते। तो कभी कोयलों की कूक।

“वो तुम्हारा दोस्त कैसा है? ज़्यादा चोट आई है क्या?” वो कंकरों से खेलते हुए बात कर रही थीं।

“वो दादा जो आउटहाउस में थे? वो उसकी पट्टी कर रहे हैं। थोड़ा छिल गया है पैर। और कुछ नहीं।” पेड़ों से गिरे पत्तों को मैं सड़क से उठाकर पानी में बहा रहा था।

“ओह! गुड।” उन्होंने गहरी साँस ली।

वो ऊपर पेड़ों की टहनियों को देखने लगीं। उनके पाँव अब भी कंकरों से खेल रहे थे।

“आपको जर्नलिस्ट ही बनना है?” मैं ऊपर देखती उनकी नज़रों को देख रहा था।

“शायद!” उन्होंने मुझे देखा।

“मतलब कुछ डिसाइडेड नहीं है अभी तक?” मैंने उन्हें देखा।

उन्होंने ना में सर हिला दिया। कुछ नहीं बोलीं। वो अब भी मुझे देख रही थीं।

“मैंने जिस दिन इस कॉलेज में एडमिशन लिया था। उस दिन मैं घर जाकर बहुत रोया था।” मैं अब भी उन्हें देख रहा था।

“क्यों?” वो कुछ हैरानी से मेरे पास सरक आईं।

“एडमिशन लेने के बाद जब मैं उसी दिन पहली बार कॉलेज पहुँचा। तो चौकीदार दादा मुझे देख कर हंसे थे। मैं अपनी बैच का वो पहले स्टूडेंट था जिसने काउंसलिंग में इस कॉलेज को चुना था।” मेरे माथे पर शिकन उभरने लगी।

“क्या? तुम्हारी रैंक क्या थी?” वो मुझसे यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट की रैंक पूछ रही थीं।

“123” मैंने डरते हुए कहा।

“व्हाट! यू स्टुपिड। इतनी अच्छी रैंक में ये कॉलेज कौन लेता है पागल।” ऐसा लगा जैसे वो मुझसे बेहद नाराज़ हैं।

“सॉरी! वो मुझे मालूम ही नहीं था। मुझे जर्नलिज़्म करना था और यूनिवर्सिटी के इसी कॉलेज में पत्रकारिता का कोर्स था।” मैं उनके सामने किसी अपराधी सा सर झुकाए बैठा था।

“रिसर्च करके आना चाहिए न। क्या यार तुम भी।” उन्होंने मुझसे नज़रें फेर लीं।

मैंने अपने जिस फ़ैसले पर कुछ दिन पहले ही पछताना बंद किया था। अब मैं उस पर फिर पछता रहा था। अंत में हम सब अपने फ़ैसलों का परिणाम होते हैं, अपनी प्रतिभाओं का नहीं।

“यहाँ नहीं आता तो आपसे कैसे मिलता?” मैंने कहना चाहा। कहा नहीं।

वो उठ खड़ी हुईं। उन्होंने अपनी चप्पलें पहन लीं। 

“चलें वापस?” उन्होंने मुझ से कहा। और सड़क पर नीचे उतरने लगीं।

“मैम, आपका नाम?” मैंने अपनी जींस झटकते हुए कहा। और उठ खड़ा हुआ।

“कूँउउ।” उन्होंने नीचे उतरते हुए अपना जो नाम बताया वो कोयल की कूक में कहीं खो गया। उन्होंने मुझसे मेरा नाम नहीं पूछा।

मैं उनके साथ चलने लगा। मैं उनके बारे में और बहुत कुछ जानना चाहता था। लेकिन फिर कुछ और पूछ नहीं पाया। कुछ लोग होते हैं जिन्हें हम चाहकर भी कभी पूरी तरह नहीं जान पाते। जानने की कोशिश में एक दिन उनसे हर तरह की बातचीत बंद हो जाती है। लेकिन उन्हें जानने की इच्छा बंद नहीं होती। वो जीवन सी खुली रहती है - मृत्यु तक।

हम सड़क से नीचे उतर आउटहाउस की तरफ़ मुड़े और सामने ही उन्हें देखा। - छतरपुर और टीकमगढ़ वाले मेरे दोस्तों को। वो दोनों स्कूटी पर बैठे हुए थे।

“जल्दी आओ। बाक़ी सब आगे निकल गए हैं।” टीकमगढ़ वाले दोस्त ने दूर से ही चिल्लाया।

वो आउटहाउस के पीछे कहीं लोप हो गई। और मैं अपने दोस्तों की दिशा में चलने लगा। आउटहाउस के सामने से गुज़रते हुए मैंने भीतर देखा - बुज़ुर्ग दादा अपनी कुर्सी पर बैठे हुए थे। वो ऊँघते हुए बिल्कुल हमारे कॉलेज के चौकीदार दादा से दिख रहे थे।

टीकमगढ़ वाले दोस्त ने स्कूटी का हैंडल सम्भाल लिया। उसके पीछे मैं और छतरपुर वाला मेरा दोस्त बैठ गए। वो आउटहाउस के पीछे से अपनी स्कूटी सहित निकलीं। हम सब पुल पार करके कच्ची सड़क पर आ गए। और फिर क़स्बे की गलियों से होते हुए टिंचा फ़ॉल्स की ओर बढ़ चले।

सभी हम से आगे निकल चुके थे। रास्ते में कोई दिखाई नहीं दे रहा था। क़स्बे से बाहर निकल हम घुमावदार पहाड़ी सड़कों पर पहुँचे और कुछ धीमी गति से आगे बढ़ने लगे। हमारे एक तरफ़ लाल पत्थरों के घाट दिखाई पड़ रहे थे और दूसरी तरफ़ हरे-भरे जंगल। आसमान में धुली हुई धूप भर आई थी। इतनी कि छलक कर ज़मीन पर गिर रही थी। घाट के बीच कहीं-कहीं गंदले पानी के चहबच्चे बन आए थे। धूप उनमें तारों सी चमक रही थी।

हम घाट पार करके कच्ची भुरभुरी सड़क पर उतर आए। टिंचा फ़ॉल्स पास ही था। हमारे आस-पास अब और गाड़ियाँ प्रकट हो गई थीं। बढ़ते हुए हम एक पथरीले लैंडस्केप के पास आकर ठिठक गए। गाड़ियाँ वहाँ से आगे नहीं जा सकती थीं। वहाँ खड़ी सैकड़ों बाइक, कारें, स्कूटी इस बात का सुबूत थीं।

हमने भी अपनी गाड़ियाँ वहीं पार्क कीं और आगे चल पड़े। एक पथरीला मैदान जहां हमारे सिवा और कई लोग चल रहे थे। दिनभर हुई बारिश से पत्थरों पर फिसलन उतर आई थी। इसलिए उनपर चलना मुश्किल हो रहा था। हम बहुत धीरे आगे बढ़ रहे थे। सूरज डूबने को था। आसमान में हल्का नारंगी रंग खिंच आया था।

“सनसेट निकल जाएगा दोस्तों। जल्दी।” टीकमगढ़ वाला मेरा दोस्त हम सब की अपेक्षा कुछ तेज़ी से चल रहा था। उसे सूरज को डूबते और ऊगते देखना बहुत पसंद था। - ये मैंने उस दिन जाना।

वह हम से आगे-आगे लगभग दौड़ रहा था। छतरपुर वाला मेरा दोस्त जिसके पाँव में पट्टी थी - किसी स्नेल की तरह सबसे पीछे चल रहा था। मैं उनके साथ बीच में था। हम फिसलन भरे पत्थरों से बचते-बचाते आगे बढ़ रहे थे। वो अगर कहीं लड़खड़ा जातीं तो उन्हें सँभालने के लिये मैं था।

पथरीले मैदान के आख़िर में एक ढलान उतर रही थी। जहां अनगिनत अनाम पौधे ऊग आए थे। - पत्थरों के बीच से उन्हें काटते हुए।

हम पथरीले मैदान के अंत और ढलान के आरंभ पर कुछ देर रुके रहे। हम ने वहीं से टिंचा फ़ॉल्स को अपने विराट स्वरूप में देखा। ऊँचे पर्वत से गिरता हुआ एक दूधिया मदमस्त झरना। जिसका एक हाथ क्षितिज को पकड़े हुए था। और जिसका सर आसमान से टकरा रहा था।

हम सब दूर खड़े उस झरने को देख रहे थे। कि तभी अचानक उन्होंने ढलान उतरनी शुरू कर दी। वो उतरीं और रेतीले किनारे को पार करते हुए एक छिछली नदी के पास पहुँच गईं। झरने का पानी नीचे गिरकर इसी नदी के रास्ते आगे बह रहा था।

किनारे पर बहुत आगे हमारे बाक़ी के साथी भी नज़र आ रहे थे। वो सब शायद झरने को और क़रीब से देखना चाहते थे।

वो सामने थीं - नदी में बढ़ती हुई। और बाक़ी के सब साथी सीधे हाथ की तरफ़ - झरने की ओर कुदड़ाते हुए।

टीकमगढ़ वाला दोस्त सनसेट के इंतज़ार में ढलान पर ही बैठ गया। और छतरपुर वाला दोस्त कहीं दिखाई नहीं पड़ा। वह थक कर किसी पत्थर पर दम ले रहा होगा। शायद!

“कहाँ जाऊँ?” सोचते हुए मैं ढलान उतरा और नदी के पास पहुँचने से पहले ही ठहर गया। सामने के एक दृश्य ने जैसे मुझे पीछे से पकड़ लिया हो।

आकाश में डैने फैलाए पक्षी अपने घरों को लौट रहे थे। डूबते सूरज की लालिमा आसमान में फैल गई थी। मैं लाल पर्दे पर पंछियों की काली शैडो देख रहा था।

नीचे नदी में वह दिखाई दे रही थीं। बहते पानी के बीच सूरज की लाल रौशनी में खड़ी थीं। उनके चारों ओर से कल-कल पानी बह रहा था। पाँव के पंजे पानी में डूबे थे और आँखें आसमान में। वो आसमान को पानी करना चाहती थीं। - ऐसा लग रहा था। हाथ आगे बंधे हुए थे, बाल एक जूड़े में क़ैद - स्वच्छंद होने को आतुर थे। उनके चश्में के काँचों में सूरज डूब रहा था।

मैं एक बहुत बड़ा स्ट्रेच्ड लैंडस्केप देख रहा था - जहां ज़मीन में जड़े पत्थर थे, उनपर से दौड़ता, उनके नीचे से जगह बनाता, उनसे टकराता, पकड़म-पकड़ाई खेलता पानी था। पानी में कहीं-कहीं बिजली सी गुज़रती मछलियाँ थीं, पनीले पौधों के झुरमुट थे, लाल गेंद सा सूरज था जो दिन का अपना आख़िरी टप्पा ले रहा था, दूर क्षितिज का हाथ थामे एक झरना था, क्षितिज से ही निकलता आसमान था। और उस आसमान को पानी की तरह बहते देखती वो थीं। मैं भी था - इन सब से बहुत पीछे ठहरा हुआ।

वो जिस सिनेमा की नायिका थीं। मैं उसका नायक नहीं था। और न कभी बन सका। मैं बस था। शायद! किसी चरित्र भूमिका में।

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