Friday 24 December 2021

शायरी में अंग्रेज़ी?



2017 की जनवरी या शायद फ़रवरी में जयपुर साहित्य उत्सव के पहले दिन गुलज़ार साहब को मंच पर कविता की प्रोसेस(प्रक्रिया) के बारे में बात करते हए सुना। यही वह दिन, महीना, साल था जब उन्होंने अपनी किताब "A poem a day" का ज़िक्र पहली बार किया था। भारत में बोली जाने वाली लगभग हर ज़ुबाँ की कविताओं का एक संकलन, एक मजमुआ उन्होंने तैयार किया था। जिसे वे किताब की शक़्ल में पाठकों के बीच लाना चाहते थे। किताब में सभी भाषाओं से किये गए तर्जुमे छपने थे। वो किताब अब बाज़ार में मौजूद है। बाज़ार को "अमेज़न डॉट कॉम।" भी कह सकते हैं। 

"कविता सिर्फ़ एंटरटेनमेंट की चीज़ नहीं, वह अपने वक़्त को दर्ज करने का ज़रिया भी है।" - उन्होंने जेएलएफ के मंच से कहा था।

यह फेस्टिवल(उत्सव) का ओपनिंग सेशन(शुरुआती सत्र।) था। और इसके ख़त्म होते ही मैं साहित्य के इस मेले में लगे सबसे क्राउडेड स्पेस - "बुक स्टोर।" में दाख़िल हुआ। सभी किताबें चमकती थीं। पर मैं गुलज़ार की लिखी "संजीवनी।" लेने पहुंचा था। मैंने "Selected Poems." नाम की किताब ख़रीदी। दरअसल में "Neglected Poems." लेना चाहता था। मगर वह "आउट ऑफ स्टॉक" हो चुकी थी। अच्छे लोग, अच्छी किताबें - फ़टाफ़ट आउट ऑफ स्टॉक हो जाती हैं।"

बुक स्टोर के दायीं तरफ़ एक छोटा सा तालाब सा कुछ था। मैं उसके इर्द-गिर्द घुमावदार पाल पर बैठा और पहली 10-20 नज़्में वहीं पढ़ लीं।

मैंने महसूस किया कि नज़्मों में इस्तेमाल किया हर लफ़्ज़ मेरे आसपास का है। या कहना चाहिए कि अधिकतर अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जिनकी आवाज़ मैंने पहले सुन रखी है। जिनकी frequency से मैं वाकिफ़ हूँ। गुलज़ार की भाषा, मुझे अपनी भाषा लगी। - "मुख-सुख।" की।

"आम आदमी ग्रामर की कमियों पर ज़्यादा ध्यान नहीं देता।" - राही मासूम रज़ा ने कुछ ऐसा कहा है। मुझे याद है। Eidetic memory.

जावेद अख़्तर का कथन है - "कठिन ज़बान में लिखना आसान है, आसान ज़बान में लिखना कठिन।"

Selected poems हो, green poems हो, neglected poems हो, या फिर रात पश्मीने की हो। गुलज़ार साहब की हर किताब में नज़्मों की ज़बान बोलचाल सी दिखी। या बोलचाल के क़रीब दिखी। अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल अपने लेखन में करने का सिलसिला मैंने वहीं से शुरू किया। इस "बीज।" की बुआई मुझ में वहीं दिग्गी पैलेस, जयपुर में पहली मर्तबा हुई।

फिर रस्किन बॉन्ड के लेखन में हिन्दी के शब्द देखता रहा। और निर्मल वर्मा की तहरीरों में अंग्रेज़ी शब्दावली की छाया दिखती रही।

मेरा लिखा "सबकुछ" - मेरे साहित्यिक पूर्वजों के लेखन से प्रेरणा-प्राप्त है। इंस्पायर्ड। मेरे पास "अपने पढ़े हुए।" की बैकिंग है। और अपने अनुभवों, अनुभूतियों और अदबी फ़ैसिनेशन का आधार है। "लेखन" के क्षेत्र में बढ़ाया गया मेरा हर क़दम किसी न किसी बड़े मुसन्निफ़/अदीब के दिखाए मार्ग पर ही होता है। क्योंकि मुझे इस बात पर पूरा    यकीं  है कि अगर मुझे कभी कोई अपनी तरह की यूनीक(वाहिद) लेखन शैली हासिल होगी, तो इन्हीं में से किसी रास्ते पर होगी, वरना नहीं। (बहर में शेर कहना भी इसी सिलसिला की एक राह है, जिसपर चलना मैं सीख रहा हूँ।)
 
कुछ लोगों" को हालिया या वर्तमान शायरी में शामिल अंग्रेज़ी हर्फ़ों से तकलीफ़ होती है। उन्हें लगता है जैसे किसी भाषा की हत्या हो रही है, अदब का क़त्ल हुए जा रहा है। जानते वे भी हैं कि - ज़बान और अदब/भाषा और साहित्य, किसी की सुरक्षा का मोहताज नहीं है। "भाषा अपनी रक्षा स्वयं कर सकती है." - 2017 के ही जयपुर साहित्य उत्सव में लेखक मानव कौल और गीतकार स्वानन्द किरकिरे ने यह बात संयुक्त रूप से कही थी। 

उन "कुछ लोगों" के सुझावों, उनकी सलाह, उनकी कुंठित और संकीर्ण मनोदशा/मानसिकता के सामने, के समक्ष पेश हैं कुछ कमाल के अशआर/नज़्मों के अज्ज़ा, जिनमें "English" के शब्द बड़ी सुंदरता और सफ़ाई के साथ प्रयोग में लिए गए हैं। मेरे द्वारा नहीं, बल्कि मुझ से बड़े सुखनवरों/नज़्मकारों द्वारा। पढ़िए -

देख ली आबो-हवा मैंने बदल कर जानेमन,
दाग़ सांसों से नहीं जाते तेरे "परफ़्यूम" के।।

-स्वप्निल तिवारी।

क्या रिश्ता है शामों से,
सूरज की क्या लगती हो।

किस ने "जींस" करी ममनूअ' 
पहनो अच्छी लगती हो।।

-अली ज़रयून।

कमाया जैसे उसी शान से उड़ाया भी,
कभी भी नोट पे हमने "रबर" नहीं बांधा।।

- शकील आज़मी।

बड़ी "अरिस्टोक्रेसी" है ज़बाँ में,
फ़क़ीरी में नवाबी का मज़ा देती है उर्दू।

-गुलज़ार।

अपनी शादी में छपाए उसने अंग्रेज़ी में "कार्ड"
वो जो हिन्दी बोलता था रोज़ के व्यवहार में।।

-उर्मिलेश।

रात की "टेबल" बुक करके,
चाँद "डिनर" पर बैठा है।।

-स्वप्निल तिवारी।

तुम्हारी "फाइलों" में गाँव का मौसम गुलाबी है,
मगर ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है।

-अदम गोंडवी।

एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छ: चमचे रहें, "माइक" रहे, माला रहे।।

-अदम गोंडवी।

आंखों का "वीज़ा" नहीं लगता है, 
सपनों की सरहद होती नहीं, 
बंद आंखों से रोज़ मैं -
सरहद पार चला जाता हूं।

-गुलज़ार।

अंत में मैं बस यही कहूंगा कि - "सब भाषा उन्नति अहे! सब उन्नति को मूल

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