घर में बर्तन मांझने आने वाली महिला को चाय, हमेशा अलग रखे रहने वाले एक कप में दी जाती है, उसके हाथों से मांझे गए बर्तनों पर उसके चले जाने के बाद पानी के छींटे मारे जाते हैं, सड़क की सफ़ाई करने वाले कर्मचारी को पानी तो पिलाया जाता है, मगर एक अलग-थलग रखे गिलास में. और इस सब के बीच लगातार बात होती है जातिवाद से ऊपर उठने की, छूत-अछूत के मसअले से निजात पाने की.
जातिवाद. अगर खोजने जाएं तो इस टर्म का कोई छोर नहीं मिलता. न अगला, न पिछला. कहाँ, कब, कैसे, किस तरह इसकी शुरुआत हुई, यह कहना मुश्किल है. और इसकी जड़ें किस हद तक हमारे समाज में फ़ैली हुई हैं, ये पता लगा पाना लगभग ना-मुमकिन है.
टी. जे. ग्नानावेल के निर्देशन में बनी तमिल फ़िल्म “जय भीम” को देखते हुए, मुझे अपना ही एक विचार और ज़्यादा मज़बूत होता हुआ दिखाई दिया. विचार ये कि हम सब में जातिवाद इनबोर्न है. ये एक ऐसा एप्लीकेशन है जो कि भारतीय माशरे में पैदा होने वाले हर शख्स में इन-बिल्ट आता है. और अपने जीवन में बेहद कम लोग इसे ब-मुश्किल अपने सिस्टम से अन-इनस्टॉल कर पाते हैं. ऐसे कई लोग हैं जिनमें हमें ये एप्लीकेशन दिखाई नहीं देता, क्योंकि उन्होंने इसे अपने एप-लॉकर में छिपा रखा है.
“जाति है कि जाती नहीं.” – यह कथन व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के नाम से इन्टरनेट पर ख़ूब पढ़ा जाता है. हमारे जन्म के साथ ही हमसे जुड़ जाने वाली, जोंक की तरह चिपक जाने वाली जाति से हमारा ऐसा संबंध बन जाता है कि हम लाख चाहकर भी उसके वेब(जाल) से बाहर नहीं निकल पाते. प्रयास करें तो हमें कहा जाता है कि हम अपनों का, अपने कुल, अपनी जात का अपमान कर रहे हैं. हम पाश्चात्य संस्कृति के ग़ुलाम बनते जा रहे हैं और अपने संस्कारों को भूल रहे हैं.
मैं सोचता हूँ कि आख़िर वो कौन सा संस्कार है जो किसी और का तिरस्कार/अपमान करने की इजाज़त देता है, जो किसी और को नीचा दिखाने में अपनी शान समझता है, जो किसी दूसरे के अस्तित्व, अधिकार, और आत्म-सम्मान पर कुठाराघात करने में गर्व की अनुभूति करता है. माफ़ कीजियेगा मगर ऐसा कोई भी संस्कार मेरे माता-पिता ने मुझे नहीं दिया है. वो जिन्हें ये संस्कार प्राप्त है, उन्हें उनकी कुंठित और संकीर्ण संस्कृति बहुत मुबारक़.
हम वाकई उस दुनिया में रहते हैं, जो हमने बनाई है. मुझे याद आती है अदाकार अनुपम खैर की एक बात, जिसे उन्होंने एन.एस.डी. के अपने एक शिक्षक को उद्धृत करते हुए कहा था –
“आपकी दुनिया उतनी ही बड़ी होती है, जितना बड़ा आपका दिमाग होता है.”
जातिवाद और हमारा रिश्ता शायद उस संबंध की तरह है जिसका ज़िक्र लेखक निर्मल वर्मा ने अपनी किसी किताब में किया है –
“कुछ संबंधों से हम कभी बाहर नहीं निकल सकते. कोशिश करें तो बाहर निकलने की कोशिश में खून के लौथड़े बाहर आ जाएँगे, खून में टिपटिपाते हुए.”
भारतीय समाज, सरकारी तंत्र और न्यायिक सिस्टम की तह में बैठे जातिवाद को परत दर परत उजागर करने वाली फ़िल्म “जय भीम” के एक दृश्य में नायक, जो कि पेशे से एक वकील है एक सरकारी मुलाज़िम से बात करते हुए कहता है कि –
“सबसे पहले तो कास्ट्स को ब्रांड बनाना बंद करो.”
शायद यही वह बिंदु है, जहाँ से हम जातिवाद से बाहर निकलने के अपने मार्ग को प्रशस्त कर सकते हैं. यह वह स्टार्टिंग लाइन है, जहाँ से एक लंबी दौड़ आरंभ की जा सकती है.
“कहाँ
राजा भोज, कहाँ गंगू तेली.” , “सौ सुनार की, एक लौहार की” , “भंगी की दौड़ नाली
तक.”, “कंजड़ों की तरह मत चिल्ला.” , “भांड जैसे नौटंकी मत कर.” – क्या हम आए दिन
सुनने में आने वाली इन बातों, कहावतों को अपनी भाषा से निकाल सकते हैं?, इनका अपनी
बातचीत में इस्तेमाल बंद कर सकते हैं? क्या हम इन्हें अपने बोलचाल के चलन से बाहर
का रास्ता दिखा सकते हैं? अगर हाँ, तो हम में ये दौड़ दौड़ने की संभावनाएं हैं
यह कितना डिप्रेसिंग है कि मनुष्यों के समाज में मौजूद भेद-भाव, ऊंच-नीच, अधिकाँश परेशानियां, एब, कमतरियाँ, लड़ाईयां मनुष्यों की ही पैदा की हुई हैं. फ़िल्म का एक किरदार जो कि पुलिस और चंद समृद्ध लोगों के द्वारा किये जा रहे अन्याय को सहता है, एक जनजाति समुदाय से आता है और साँप-चूहे पकड़ने का काम करता है. एक दृश्य में वह अपने ही द्वारा पकड़े गए एक साँप को जंगल में छोड़ते हुए उससे कहता है –
“बस इंसानों से बचकर रहना.”
स्मरण हो आता है महाकवि अज्ञेय की कविता का -
साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं, नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ-(उत्तर दोगे?),
तब कैसे सीखा डँसना-
विष कहाँ से पाया?
“कहीं जातिवाद से तो नहीं?” – साँप से मेरा प्रश्न यह होता. एक बेहतर, समान, वृहद, न्यायसंगत और भयमुक्त समाज की स्थापना के लिए हमें अभी बहुत लंबा सफ़र तय करना है. और इस सफ़र का पहला क़दम “जातिवाद का विनाश.” हो सकता है. गौर-तलब है कि डॉक्टर बी.आर. अम्बेडकर ने सन 1936 में एक वक्तव्य(स्पीच) लिखा था, जिसे विवादास्पद और आपत्तिजनक माना गया था. वक्तव्य का अंग्रेज़ी शीर्षक था – “Annihilation of Caste.”
बहुत ही सटीक बात कही है प्रद्युम्न भाई। ऐसे ही लिखते रहें।
ReplyDeleteजय हो💐
❤️❤️
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