Saturday 18 December 2021

हम जैसों की किताब क्या ख़ाक छपेगी।



16 दिसंबर 2021 

"Let everything happen to you. Beauty and terror. Just keep going. No feeling is final." - फ़िल्म जोजो रैबिट में सबसे पहले जर्मन कवि रिल्के की इन पंक्तियों को पढ़ा। और फिर निर्मल वर्मा के लेखों, निबंधों, संस्मरणों में इसी नाम का अनुरणन बार-बार सुनता रहा।

रिल्के की किताब "लेटर्स टू यंग पोएट्स।" में कहीं दर्ज है कि - एक बार एक युवा कवि से मुख़ातिब होते हुए रिल्के ने कहा - "रात की सबसे ख़ामोश घड़ी में ख़ुद से सवाल करो कि क्या लिखना अनिवार्य है? - जवाब हाँ में होना चाहिए अगर तुम अकेले रह रहे हो और तुम्हारे साथ/पास कोई नहीं जिसकी तरफ़ तुम मुड़ सको।"

2015 वह वर्ष था जब मैंने पहली बार यही सवाल अपने आप से पूछा था। बिल्कुल इन्हीं शब्दों के साथ तो नहीं, लेकिन इसी तरह के मिलते-जुलते शब्दों के साथ मैंने ख़ुद से सवाल किया था - "लिखते रहना है क्या?" मेरे अलावा इस सवाल को सुनने वालों में - चार झड़ती हरी दीवारें थीं, एक ग्रे टीन की छत थी, राइटिंग टेबल था, पलंग, लैपटॉप, पेन स्टैंड, गेस-चूल्हा, कुछ टीन के पीपे, कुछ स्टील के बर्तन, एक वीआईपी कम्पनी की अटैची(ट्रॉली बैग), कुछ किताबें और कई दिनों के कचरे से भरा डस्टबिन था।

नितांत सन्नाटे में जब अपनी आदत अनुरूप कोई कुछ नहीं बोला तब मेरे अंतर्मन से जवाब "हाँ" में आया था। और फिर उसके बाद से मैंने लेखन को कभी "ना" नहीं कहा। सृजन से इनकार नहीं किया। रचने से मुँह नहीं मोड़ा।

मुंबई के लोअर परेल स्थित दी कोरम क्लब में एक किस्सों, कहानियों, कविताओं और संगीत की महफ़िल के बाद हम डिनर करने बैठे, और साइमलटेनिअसली साहित्यिक बातचीत का एक लम्बा थ्रेड शुरू हो गया। हर कोई अपने से पहले बोल चुके व्यक्ति को टैग करके, उसकी बात के आगे अपनी बात जोड़ता चला जाता। और थ्रेड लंबी होती जाती। मुझे इस थ्रेड का वह बिंदु, वह पॉइंट, वह जोड़ याद आता है जहाँ महफ़िल में शामिल गीतकार और ग़ज़लकार स्वप्निल तिवारी ने लोकप्रिय साहित्य और फेमस आर्टिस्ट्स की बात करते हुए कहा था कि "ऐसे बहुत से शायर/लेखक/कवि हैं जिन्हें लिखते रहने के कई साल बाद पहचान मिली, यहाँ तक कि कुछ को तो कभी कोई रिकगनाइज़ेशन मिला ही नहीं लेकिन इसके बावजूद वे लिखते रहे क्योंकि उन्हें एक चीज़ लगातार मिलती रही - अच्छा, सार्थक और ईमानदार रचने की ख़ुशी। सृजन का सुकून।" बात बहुत दिखावटी लगती है।  कुछ-कुछ क्लिशे भी, मगर बात खरी है। 

मैंने लिखने या लिखते रहने का फ़ैसला अपने अंतर्मन से किया था। स्वाभाविक रूप से लेखक अंतर्मुखी होते हैं। - निर्मल वर्मा का कथन है।

पुश्किन की बात मानें तो - "एक कवि का कर्तव्य यही है, अच्छा लिखना। वह लिखना जिसके लिए भाषा उसे निर्देशित करती है। अगर वह ऐसा करने में समर्थ होता है तो उसका आत्मसंतोष ही उसे आगे का मार्ग दिखाएगा। और अगर असमर्थ होता है तो उसे पीड़ा सहनी होगी। पीड़ा, जो लेखन का प्रतिमान है।" मैं हमेशा से आत्मसंतोष के लिए लिखता आया हूँ। और जब-जब इससे अतिरिक्त लेखन से कुछ भी पाने के प्रयास किये हैं - मेरे हाथ पीड़ा ही लगी है। एक अजीब तरह का दुःख, जिसका कारण कोई पूछ ले तो हथेलियों में पसीना चिपकने लगता है।

"Writing is an art of letting things go." मैंने मानव कौल को पढ़ते हुए यह बात जानी थी, लेकिन कभी सीख नहीं पाया। "हम सब की अपनी एक ज़िद होती है। कुछ लोग कभी न कभी उसे छोड़ देते हैं, और कुछ अंत तक उसे अपने से चिपकाए रखते हैं।" - निर्मल वर्मा अपनी किताब "परिंदे" में कहते हैं। मेरा लेखन अधिकांश रूप से नॉस्टैल्जिया, स्मृतियों और "घट रहे" में "बीत चुके" को ढूंढ़ने में खप जाता है। ख़ुद को जस्टिफाय करने और अपना दुखड़ा रोने के अलावा मैंने अपने लेखन में शायद ही कुछ और किया है। और इसलिए निर्मल के शब्दों में - ख़ुद को लेखक कहना दम्भपूर्ण मालूम होता है। मैं अपने आप को कौन से प्रोफेशन के ब्रैकेट में डाल सकता हूँ? - एक अनुत्तरित प्रश्न है।

जुलाई की एक सुबह। खिड़की से सटकर रखे राइटिंग टेबल पर रखी अपनी डायरी के ऊपर अपनी दोनों कोहनियां टिकाए बैठा था। खिड़की के उस पार, पोर्च के आगे, "आगे" के आगे - घरों, बिल्डिंगों के भी आगे मैं पहाड़ों को देख रहा था। बस उनका शीर्ष दिखाई देता था - हल्की धुंध में नहाया हुआ। कुछ क्षण पहले ही फ़िल्म "इंटू दी वाइल्ड।" देखी थी। और "Happiness is only real, when shared." - यह संवाद मुझ पर कुछ हावी हो गया था। "अकेले रह जाने का डर।" - चुभ रहा था। नीचे से ऊपर की ओर - शरीर में सिहरन उठने लगी, आँसू निकलने लगे। और तभी मैंने अपनी डायरी में यह सब लिखना शुरू कर दिया। तब तक लिखा जब तक आँसू सूख नहीं गए। तब तक लिखा जब तक अपने भीतर उपजे भय को स्थगित नहीं कर दिया। और फिर उसके बाद एक लंबी साँस भीतर लेते हुए सोचा - "लिख सकता हूँ।" का ख़्याल इतना सुखद है। कि "लिखने के लिए पुरुस्कार मिलेगा।" का विचार ओछा, गैर-ज़रूरी, और छिछला मालूम होता है।"

हम अक्सर वास्तविक दुख को कल के लिए स्थगित कर देते हैं। और फिर हम उसे भूल जाते हैं। इस तरह हम दुःख से बच जाते हैं।

मेरी नज़र में लेखन कोई परोपकार का काम नहीं है। लिखने में लेखक के कई स्वार्थ निहित हैं। और मैं शुद्ध स्वार्थी हूँ। बीती 9 तारीख़(9 दिसंबर) को मेरा यह ब्लॉग "Prcinspirations." 6 साल का हो गया। संपर्क, संवाद और संचार के 6 साल। कविता, कहानी, आलेख, समीक्षा(फ़िल्म और बुक) के 6 साल। साहित्यिक, सिनेमाई और राजनीतिक लेखन के 6 साल। 6 सालों में इस ब्लॉग को सिर्फ़ 72000 बार पढ़ा गया है। अर्थात 1 साल में बस 12000 बार। मैं वायरल आर्टिस्ट/लेखक नहीं हूँ - स्पष्ट है। न कभी हमारी किताब छपेगी, न हमें 1 मिलियन यूट्यूब व्यूज़ मिलेंगे, और न हमें साहित्य के किसी मठ द्वारा आमंत्रित किया जाएगा

बावजूद इसके मैं लिखना नहीं छोड़ सकता। क्योंकि निर्मल की निश्छल वाणी मुझे अकेले अंधकार में अक्सर सुनाई पड़ती है - "यह भयानक है, जब लेखक लिखना बंद कर देता है। उसके पास दुनिया को दिखाने के लिए कुछ भी नहीं रहता, सिवा अपने चेहरे के।"

मगर क्या मैं वास्तव/वाक़ई में लेखक हूँ? एक और अनुत्तरित प्रश्न। एक और। Alas!

Keep Visiting!

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