Friday 10 December 2021

एक होमसिक की डायरी।



9 और 10 दिसंबर 2021, इंदौर।

निस्पंद, निश्चल, बे-काम बैठे हुए मन में वो सब कुछ लिख देने की इच्छा उठती है जो हैपनिंग रहा है। वो सब कुछ जिसे सोचकर लगता है कि इसे कहीं दर्ज कर लेना चाहिए, और समेट लेना चाहिए इससे जुड़े तमाम अनुभवों को। बहुत दिनों से मन ही मन प्लान की जा रही, लेकिन एकदम से एक्ज़ीक्यूट हुई मेरी इंदौर यात्रा का आज दूसरा दिन है। कल दोपहर तीन बजे यहाँ पहुंचा और आते ही एक होटल रूम में चेक इन कर लिया। अलग-अलग शहरों में जाकर होटलों में रूम बुक करने, और फिर नहाकर रूम सर्विस से चाय ऑर्डर करने का एक अजीब शौक़ मुझे तब से है, जब से यह शौक़ मुझे पहली बार लगा था। एक तरह का फ़ैसिनेशन है, जो जाता नहीं।

कल कुछ लिख नहीं सका। शाम को जो निकला तो फिर सीधे रात साढ़े बारह बजे रूम में लौटा। भीतर लगे बिस्तर को देखते ही आ रही नींद कुछ और बढ़ गई। सुबह आठ बजे तक सोता रहा। या शायद जागता-सोता रहा – ये कहना उचित होगा। 

छोटे सफ़र तय करते हुए हमेशा लगता है कि क्या अपने सफ़र को, मैं यात्रा कह सकता हूँ? मैंने आज तक जितने भी यात्रा वृत्तांत पढ़े हैं वो सभी इतनी छोटी दूरी के कभी नहीं रहे। “ल्हासा की ओर” और “स्पीति में बारिश” नाम के दो हिन्दी ट्रेवलॉग याद आते हैं। दोनों ही एन.सी.आर.टी. की हिन्दी की किताबों में पढ़े थे। कितने सुंदर वृत्तांत थे वे। स्कूल के दिनों में मुझे वे सिर्फ़ बोझिल सिलेबस लगते थे। आज चाहता हूँ कि वह सिलेबस मुझे और बढ़ी हुई मात्रा में पढ़ने को मिले। शायद, मैं ऐसा इसलिए भी चाह रहा हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि इसकी कोई परीक्षा अब नहीं होनी है। "परीक्षा के डर से ज्ञानार्जन", “डांट या चपत के भय से पढ़ाई-लिखाई” - ये समाज में मौजूद कैसी अजीब क्रियाएं हैं। क्या इन्हें बदला जा सकता है? नई शिक्षा नीति, क्या उससे कुछ होगा?

अपनी छोटी यात्राओं को यात्रा कहने में मुझे हमेशा संकोच हुआ है। अपने आप को ट्रैवलर कहना शायद उन हिचहाईकर्स को अपमानित करना होगा जो ख़ाली जेब लिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक के भारत को नाप देते हैं। उनके और मेरे बीच की दूरी को पाट पाना मेरे लिए इस जीवन में संभव नहीं है।

मैं अपने आप को हरगिज़ ट्रैवलर नहीं कह सकता क्योंकि, कहीं के लिए भी निकलते हुए, कहीं पहुंचने के रोमांच से ज़्यादा, लौट आने की आश्वस्तता मेरे मन में घर कर जाती है। और पूरे रास्ते साथ चलती है। दूर उगे पहाड़ों, गिरते झरनों, घने जंगलों, गहरी घाटियों, असीमित समंदरों को देखने की जिज्ञासा से कुछ ज़्यादा इस बात का सुख रहता है कि - वापस नदी के पास आना है, पहाड़ियों पर चढ़ना है, सड़कों पर चलना है, तारे भरे आसमान को एकटक देखते हुए।(सड़क पर चलती गाड़ियों से माज़रत सहित।) नहरों की पाल पर खड़े होकर चाय पीनी है और कप वहीं फेंक देना है(स्वच्छता अभियान से माफ़ी के साथ) ये सब फिर करना है, कभी न कभी। ये कुछ कुछ एक तरह की बीमारी है। जिसकी व्याख्या लेखक निर्मल वर्मा की डायरी में मिलती है।  - होमसिकनेस

विनोद कुमार शुक्ल फिर याद आते हैं, दिनचर्या के किसी काम की तरह। "दीवार में एक खिड़की रहती थी।" किताब का एक किरदार जो कि हाथी चलाता है, एक महावत है। वो कहानी के मुख्य पात्र रघुवर प्रसाद से कहीं के लिए निकलते हुए कहता है - "मैं वहां नहीं लौट रहा हूँ, मैं यहां लौटूंगा।"

कल रात इंदौर के एक पुराने कवि दोस्त प्रबोध पाण्डेय से मुलाक़ात हुई. यह मुलाक़ात उसके नए-नवेले आर्ट कैफ़े में हुई, जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया। कुछ लोग बहुत ज़िद्दी होते हैं। एक ज़िद को अपने से हमेशा लगाए रखते हैं, जैसे कुछ लोग किसी से दिल लगा लेते हैं - हमेशा के लिए। ये लोग किसी और से नहीं, स्वयं से ज़िद करते हैं। और देर सबेर अपने हौसले और दृढ़ता के बल पर उसे पूरा भी करते हैं। प्रबोध ने अपने बचपन के सपने को साकार कर दिया, निराकार को आकार दे दिया। उसने इंदौर में एक लाइब्रेरी-नुमा कैफ़े खोला है। एक तरह का रीडिंग रूम, जहां चाय-नाश्ते की सुविधा भी है। कॉलेजी दिनों में उसके साथ रहते हुए कभी इस सपने का ज़िक्र उसने मेरे सामने नहीं किया। कैसे कुछ लोग मन ही मन अपने "मन की" बुनते रहते हैं। और एक दिन अचानक हम उस बुनाई को देखते हैं। सपनों की बुनाई।

लिखते हुए दोपहर हो गई है। कमरे में नहीं, बाहर। होटल के इस कमरे में घड़ी नहीं है। फ़ोन में 2:00 देख कर मालूम हुआ कि दोपहर हो गई है। यहां इस रूम में कोई दरीचा, खिड़की भी नहीं है। फिर भी कुछ गर्माहट अपने शरीर में महसूस कर पाता हूँ, एक झुरझुरी सी आ जाती है। धूप के विचार से ही धूप का कुछ एहसास होता है। कवि विनोद कुमार शुक्ल के एक कविता-संग्रह का शीर्षक है - “वह आदमी नया गरम कोट पहिन कर चला गया विचार की तरह।“

क़रीब 6  साल पहले के कुछ दृश्य सामने सफ़ेद दीवार पर सिमट आए हैं।  जब इसी कमरे, जहां मैं अभी बैठा हूँ से कुछ किलोमीटर दूर एक ग्रे टीन की छत तले मैं अपने कॉलेजी दिन बिता रहा था।

पांच नम्बर बस - यकायक मेरी आँखों के सामने से दौड़ जाती है। पाँच नम्बर बस - जिससे मैं सुखलिया चौराहे से आईटी पार्क चौराहे तक जाता था। और फिर वहां से वॉक करता था - यूनिवर्सिटी तक। एक अकेली वॉक, विचारों से घिरी हुई, सड़क के शोर से लगी हुई, एक चुप, अंतर्मुखी वॉक - आईटी पार्क चौराहे से देवी अहिल्या यूनिवर्सिटी तक। जैसे जीवन की लंबी वॉक का एक प्रोटोटाइप।

उंगलियों में एक झिनझिनी महसूस होती है। पैरों के तलुओं में कुछ खिंचाव से लगता है। कलम रख देना चाहता हूँ। पर विचार उमड़ रहे हैं। जैसे धूप के विचार से गर्माहट महसूस हुई थी। वैसे ही "झिनझिनी नहीं है।" का विचार करने से शायद वो चली जाए। खिंचाव मिट जाए। फ़िल्म थ्री इडियट्स का ज़िक्र उमड़ते-घुमड़ते कई विचारों के बीच छिड़ जाता है। एक संवाद स्मरण हो आता है जिसे रैंचो नाम का किरदार बोलता है - "ये दिल बड़ा डरपोक है, इसे समझाकर रखना पड़ता है, आश्वस्त करना पड़ता है, एक तसल्ली देनी पड़ती है कि - "ऑल इज़ वेल।" शब्द शायद जस के तस ना रहे हों, लेकिन अर्थ कुछ कुछ यही था।

 


ऊपर के खाली छूटे स्पेस को, लिखते हुए लिया गया मेरा विराम समझ लीजिये। खाली पड़ी जगह को मेरा कुछ देर थमना मान लीजिए। जैसे गणित में आप क्या कुछ मान लिया करते थे।

"हम जो सोचते हैं वो महसूस कर लेते हैं, या शायद कर सकते हैं।" - ग्रे टीन की छत तले एक बक्से-नुमा कमरे में रहते हुए मैंने इस तर्क का प्रैक्टिकल किया था। अप्रैल की भीषण इंदौरी गर्मी में अपने लोहे के पलंग पर लेटे हुए मैं ठंडी नदी में गौते लगाने के बारे में सोचता, ख़ुद को नर्मदा में तैरते हुए सोचता, सतपुड़ा के पहाड़ों में विचरते हुआ देखता, ऊंचाई पर बहती सुबह की ठंडी हवा में अपने बालों को लहराते हुए देखता। कॉलेज के दिनों में हम कुछ भी करते हैं, है ना? सेन्सलेस टीनएजर्स। भविष्य के होपलेस रोमैंटिक्स।

Keep Visiting!

2 comments:

  1. This piece is absolute nostalgia to me!!!!! thankyou for writing this Pradumn .Very well composed and in between perks of the nirmal Ji's story and Spiti ki barish made me awe .

    ReplyDelete
  2. बहुत शुक्रिया भाई, तुमसे दो दिन पहले ही कहा था लिखना छोड़ दिया है और फिर भी यहाँ लिख रहा हूँ; केदारनाथ जी की पंक्तियाँ याद आती है "यह जानते हुए भी की लिखने से कुछ नहीं होगा, मैं लिखना चाहता हूँ"। महीनों बाद कुछ लिख रहा हूँ सो माफ़ी पहले ही मांग लेता हूँ।
    सफ़र को जिस तरह से तुमने परिभाषित किया है उसे पढ़ कर मैं ख़ुद की भटकन देख पा रहा हूँ। हम सब शायद सफ़र और वापसी के बीच ही कहीं उलझे हुए है, हम मंज़िल खोज लेते हैं और रास्ता भटक जातें है, जाने क्यों हमें याद नहीं रह जाता की "हम जा तो वहाँ रहें हैं पर हमें लौटना तो यहीं हैं" हम सब कहीं जाने की गिरह में उलझें हुए पड़े है। मैं ख़ुद तक लौटने की कोशिश में हूँ और लौटने वालों की प्रतीक्षा में भी, लौट न पाने पर ही शायद सफ़र के अंत में महसूस होता होगा "जैसे मरना भी कोई दिया गया काम हो ज़रूरी, जिसे पूरी ज़िम्मेदारी से पूरा ही करना था साँझ होते होते"- केदारनाथ सिंह।
    इसे लिखने के लिये बहुत प्रेम और आभार मित्र।
    सफ़र जारी रहे और घर लौटना भी 🤗

    ReplyDelete

पूरे चाँद की Admirer || हिन्दी कहानी।

हम दोनों पहली बार मिल रहे थे। इससे पहले तक व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर बातचीत होती रही थी। हमारे बीच हुआ हर ऑनलाइन संवाद किसी न किसी मक़सद स...