एक लेखक, जिसका नाम में भूल रहा हूँ ने अपनी किसी किताब में गुरुदत्त द्वारा निर्देशित "प्यासा" का ज़िक्र किया, और लिखा – “प्यासा आज भी, आज से आगे की फिल्म है.” यह बात 1994 में पहली बार दिखाई गई इन तीनों ही फिल्मों पर लागू होती है. फिल्मकार चले जाते हैं, कलाकार चले जाते हैं, लेखक चले जाते हैं. लेकिन उनकी रची फिल्में रहती हैं, हमेशा के लिए. यह बात हर तरह के रचयता, हर तरह की रचना के लिए सच है – Art remains, artist does not.
महेश भट्ट द्वारा रची गई एक क्लासिक फ़िल्म में, अनुपम खेर के किरदार बी.वी. प्रधान ने कुछ इसी तरह जीवन का “सारांश” बताया है. फ़िल्म का एक संवाद कुछ यूँ है - “हिम्मत मरने के लिए नहीं, जीने के लिए चाहिए होती है पारवती.” बी.वी. प्रधान कहते हैं. आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो चुका एक बुज़ुर्ग हेडमास्टर जीवन में बहुत कुछ झेल चुकने के बाद यह बात अपनी उस पत्नी से कहता है जो कि जीने की इच्छा छोड़ चुकी है.
जिन तीन फिल्मों का ज़िक्र इस लेख में ऊपर कहीं हुआ है, उनकी रिलीज़ के दस साल पहले, यानी 1984 में सिनेमाई परदे पर पेश की गई थी “सारांश”. शुरुआत से बहुत धीमी और प्रिडिक्टेबल लगने वाली यह फिल्म आखिरी दस मिनिट में मानवीय भावों और संवेदनाओं की चीर-फाड़ कर देती है. पहली बार सुनने में फिल्म की कहानी उतनी आकर्षित नहीं करती और लगता है जैसे बहुत ही आम सा कोई अफ़साना है. इससे ज़्यादा रोचक(Interesting) तो वो किस्सा लगता है जो यह बताता है कि किस तरह अनुपम खेर ने इस फिल्म में लीड रोल हासिल किया था. लेकिन पूरी कहानी को स्क्रीन पर देखने के बाद, तह-ब-तह कई ऐसी बातें खुलने लगती हैं, कई ऐसे भाव उमड़ने लगते हैं जिन्हें महसूस कर आँखें रो पड़ती हैं. और “सारांश” को क्लासिक का दर्जा हासिल हो जाता है.
“तुम्हारा अंत है, मेरा अंत है – लेकिन जीवन, इसका कोई अंत नहीं. यह अंतहीन है.” बी.वी. प्रधान जब यह बात कहते हैं तो मन में कहीं-न-कहीं जेनी(फिल्म फ़ॉरेस्ट गंप की एक किरदार) की आवाज़ सुनाई देती है – “रन फ़ॉरेस्ट, रन” वह चीख रही है.
अपने बेटे को ढ़लती उम्र में खो देने, क्रूर, निर्दयी और भ्रष्ट समाज से लड़ने और कई बार आत्महत्या की कोशिश करने के बाद भी बी.वी. प्रधान अपनी ज़िन्दगी से साथ दौड़ते हैं, क्योंकि “अत्याचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ने की इच्छा” उनसे लगातार कहती है – “रन प्रधान, रन.” मेरा दिल पसीज जाता है यह सोचकर कि दशकों तक शॉशेंक-जेल में रहने के बाद, अपनी मर्ज़ी के बगैर रिहा हुए ब्रूक्स के पास ऐसा कोई था ही नहीं जो उससे कहता कि – “रन ब्रूक्स, रन.” लेकिन अगर कोई होता, तो आज शायद हमारे पास वो ऐतिहासिक द्रश्य नहीं होते – “ब्रूक्स वाज़ हियर, एंड सो वाज़ रेड.”
अच्छा लेखन, अच्छी कविता, अच्छी फिल्में, अच्छी पेंटिंग, अच्छा
म्युज़िक, अच्छी आर्ट – यह सब उमीदें हैं. उमीदें, जो कभी नहीं मरेंगी. क्योंकि यह
अंतहीन हैं, जीवन की तरह.
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