Sunday, 13 June 2021

जल्लीकट्टु और दक्षिण भारतीय सिनेमा।



अपने शुरूआती स्कूली दिनों में, हर शाम मैं अपने ताऊ जी के साथ पास की एक "दूध डेरी" में जाया करता था. वह कोई मॉडर्न डेरी नहीं थी. गोबर से लिपि हुई फरसियों(पत्थरों) से बने कच्चे रस्ते, जो कि एक काउंटर पर जाकर खत्म हो जाता था, पर मैं एक लाइन में खड़ा रहता और अपनी बारी का इंतज़ार करता. बारी आते ही ताऊ जी एक केटली-नुमा डब्बा काउंटर के उस तरफ रख देते और उस तरफ खड़ा शख्स उसमें दूध भरकर उसे लौटा देता. 

रस्ते पर खड़े-खड़े मुझे चारों ओर से भैंसों की आवाज़ें सुनाई पड़ती थीं और अक्सर कुछ लोग मेरे बगल से कुछ भैंसों को रस्से में बांधकर ले जाते दिखाई पड़ते थे. एक रोज़ उस डेरी में, काउंटर तक जाने वाले रस्ते से सटकर खड़ी दीवार पर मैंने एक भैंस का कटा हुआ सर देखा और सहम गया, मेरी नसों में डर दौड़ गया. मैंने भय को बहुत करीब से महसूस किया, और फिर कभी उस डेरी में नहीं गया.

सालों पुराना वह डर आज लेखक "एस. हरीश" की लघु कथा "माओइस्ट" पर आधारित मलयालम फ़िल्म "जल्लीकट्टु"  को देखकर लौट आया. केरल के एक गाँव में, एक माने हुए कसाई के यहाँ से एक सांड भाग निकलता है और पूरे गाँव में तबाही मचा देता है. अब पूरा गाँव अलग-अलग तरीकों से उस सांड को पकड़ने में लग जाता है और ऐसा करने की जद्दोजहद में मानव-सभ्यता की पोल खोल कर रख देता है. जल्लीकट्टू दक्षिण भारतीय राज्यों में खेला जाने वाला एक मशहूर खेल है जिसमें लोगों की भीड़ के सामने एक गुस्साए सांड को छोड़ दिया जाता है. निर्देशक ने इस फिल्म में इसी खेल को एक बड़े स्केल पर बे-हद खूबसूरती और बुद्धिमत्ता के साथ दिखाया है.

ऑस्कर के लिए भारत की ओर से नामांकित होने वाली और कई फिल्म-फेस्टिवल्स में ख्याति पा चुकी इस सिनेमाई संरचना को एक ऑडियो-विज़ुअल ट्रीट कहा जा सकता है. फिल्म में एक द्रश्य है जिसमें भारी बारिश के बीच गीली मिट्टी पर बने एक सांड और उसके ठीक बगल में बने एक आदमी के पैरों के निशान को दिखाया गया है. झकझोर कर रख देने वाला यह द्रश्य लगभग एक मिनिट तक स्क्रीन पर रहता है और देखने वाले को - "यह पृथ्वी सिर्फ़ इंसान की नहीं." का स्पष्ट सन्देश दे जाता है.

सदियों से इंसान, पागलों की तरह जानवरों की दुनिया में घुसता चला जा रहा है. उनके घर उजाड़ रहा है, उनके जंगल मिटा रहा है और अपनी बस्तियां बसाता जा रहा है. अपने घमंड और सनक पर सवार इंसान शायद यह भूल चुका है कि एक जानवर की सनक, एक जानवर का पागलपन और गुस्सा क्या कर सकता है. इंसानी समाज को यही सब याद दिलाने का काम करती है जल्लीकट्टू. फिल्म में कुछ मौकों पर ऐसा महसूस होता है जैसे इस कहानी का मुख्य किरदार "भागा हुआ सांड" ही है और वह कुछ-कुछ वही काम कर रहा है, जो कि मृत्यु के देवता यमराज का भैंसा करता.

इस पूरी कहानी को सरसरी तौर पर दिमाग में प्ले करता हूँ तो एक अंदेशा होता है - कि अगर सिर्फ एक पागल सांड इंसान की सुद्रढ़ बस्ती में इतनी तबाही, इतना आतंक मचा सकता है तो सोचिये, अगर किसी रोज़ हर एक जानवर गुस्सा गया और तेश पर सवार होकर इंसानी दुनिया में घुस गया तो हमारा क्या होगा? मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जो भी होगा, वह ज़ोया अख्तर निर्देशित फिल्म "ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा." में दिखाए गए उस द्रश्य जैसा तो नहीं होगा जिसमें तीन नायक सांडों के एक झुण्ड के आगे हँसते-हँसते दौड़ रहे हैं. वह शायद फिल्म "जुमांजी" की तरह होगा - अभूतपूर्व, जानलेवा और खतरनाक. रोमांचक, पर खतरनाक.

सालों पहले मैंने एक भैंस का कटा हुआ सर देखा था और काँप गया था. जल्लीकट्टु ने मुझे फ़िर वही कंपन महसूस करवाई. फिल्म के अंतिम द्रश्य, जिसे बेहद बड़े पैमाने पर फिल्माया गया है, को देखते हुए मेरे रोंगटे खड़े हो गए, मेरी आँखें नॉर्मल से ज़्यादा खुल गईं, मेरा मुंह थोड़ा लटक गया और मेरी जुबां लरज़ गई. कई भावों का एक सैलाब मुझमें बहने लगा और मेरे मन में बहुत तीव्रता के साथ वह जुमला गूँज उठा, जिसे मैंने अपने स्कूल में कई बार पढ़ा था - "Man is a Social Animal."

Keep Visiting!

No comments:

Post a Comment

I am Sorry, Papa | A Note to All Who Failed You

Pain is bigger than God. -Irrfan Khan महान ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार की एक मशहूर ग़ज़ल का शेर है - गिड़गिड़ाने का यहाँ कोई असर होता नहीं // पेट भरकर ...