Saturday 4 September 2021

दो दुनिया।



हम आज़ादी के 75वें साल में दाख़िल हो चुके थे. और इसी बात के जश्न को पूरा देश, “आज़ादी का अमृत महोत्सव” नाम से मना रहा था. इसी श्रृंखला में भारत सरकार के खेल विभाग के अंदर आने वाली संस्था “नेहरु युवा केंद्र” मुल्क के छोटे से छोटे गाँवों में “फ्रीडम रन” के कार्यक्रम आयोजित करवा रही थी. इन्हीं आयोजनों में से एक में, मैं शामिल हुआ. होशंगाबाद जिले की सुहागपुर तहसील का एक बेहद छोटा गाँव – सांगाखेड़ा.

हम वहां सुबह आठ बजे सड़क-मार्ग से पहुंचे और गाँव के ही एक युवा के साथ वहां मौजूद एक प्राइमरी स्कूल में गए. बाहरी मैदान में चलते हुए ऐसा लगा मानों स्कूल अभी भी बंद है. और पढ़ाई नहीं हो रही. आपको बताता चलूँ कि “ऑनलाइन क्लासेस” नाम की शय अब तक भारत के कई गाँवों को छू तक नहीं सकी है. और भविष्य में छुएगी, इसके कोई आसार नज़र नहीं आते. कुछ सुविधाएं सिर्फ़ शहरों में रहती हैं, उन्हें गाँव आने में हमेशा असुविधा होती है. 

वहां पहुँचकर, हमने वहां ड्यूटी कर रहे एक शिक्षक से अपने कार्यक्रम के बारे में बात की और उनके सामने स्कूल के कुछ बच्चों को इसमें शामिल करने की इच्छा जाहिर की. उस शिक्षक ने कुछ देर के लिए अपनी गर्दन झुका ली, वह नीचे ज़मीन पर कुछ क्षण देखता रहा और फिर वहीँ अपनी जगह पर उठ खड़ा हुआ. उसने अपना गुलाबी कुर्ता झाड़ा और आगे बढ़कर स्कूल के अंदर की तरफ एक आवाज़ लगाई – “आओ सबहे, फोटो खिंचे है.......”

जैसे किसी बंजर, निर्जन रेगिस्तान में अचानक झरना गिर पड़ा हो. गुलाबी कुर्ते वाले शिक्षक की एक आवाज़ पर अंदर बने अलग-अलग कमरों(क्लासेस) में से कई दर्जन बच्चे दौड़ते हुए बाहर आ गए और फिर शिक्षक के एक इशारे पर सीढ़ियों से नीचे उतरकर मैदान में ख़ुद-ब-ख़ुद कतार बनाकर खड़े हो गए. उनकी फुर्ती, चुस्ती और निपुणता देखकर मुझे मालूम हो गया कि, वे ऐसा पहली बार नहीं कर रहे थे.

हमने लाइनों में खड़े छोटे-बड़े बच्चों से कार्यक्रम के विषय में बात की, और फिर उनके साथ एक छोटी दौड़ लगाई. हँसते-खिलखिलाते हुए बच्चे दौड़ पड़े और उसके बाद मैदान में बिखर गए. “दौड़ने में आनंद है.” – मुझे एक पल के लिए अचानक ये विचार आया, और हठात चला भी गया. हमने उन सभी बच्चों को टॉफ़ी दी और फिर गुलाबी कुर्ते वाले शिक्षक के एक इशारे पर सभी बच्चे सीढ़ियों से चढ़ते हुए वापस अपने-अपने कमरों(क्लासेस) में गायब हो गए. लगा जैसे उन्होंने बाहर की दुनिया को अपनी पीठ दिखा दी. वे उसे वहां मैदान में ही छोड़ गए. “तुम्हारी है, तुम ही संभालो ये दुनिया.......” गुरुदत्त की फ़िल्म प्यासा का गीत कानों में गूँज पड़ा.

हरी, नीली और सफ़ेद शर्ट पहने मेरे तीनों दोस्त, गुलाबी कुर्ते वाले शिक्षक के साथ मैदान से सटी हुई एक चाय की दुकान की ओर बढ़ चले. दुकान के ठीक पीछे एक बड़ी सी चटाई पर बैठे गाँव के बुज़ुर्ग मुझे ताश खेलते दिखाई दिए. मेरे दोस्त और वो शिक्षक जैसे-जैसे स्कूल से दूर होते जाते, वैसे-वैसे वे उन ताश खेलते बुजुर्गों के पास जाते जा रहे थे. मैं, जो रुक कर कुछ देर मैदान को और सीढ़ियों के ऊपर बने स्कूल को निहार रहा था, अब चाय पीना चाहता था, और इसलिए मैंने भी अपने क़दम चाय की गुमठी की तरफ बढ़ा दिए.

मेरे बाद मैदान में रेत और हवा बच गईं. उन्होंने पकड़म-पकड़ाई का खेल खेलना शुरू कर दिया.

मैं चाय की उस टपरी के बगल में उगे बड़े से पीपल के नीचे खड़ा हो गया. मेरी नज़र उबलती चाय से उठती भांप पर टिक गई. कभी-कभी मेरा कोई दोस्त, गुलाबी कुर्ते वाले शिक्षक से बात करते हुए, मेरे और भांप के बीच आ जाता और जब-जब ये होता, तब-तब मेरा ध्यान ताश खेलते बुजुर्गों की खर्रती आवाज़ पर ठहर जाता – “बड़ो-बड़ो पत्तो सेद के रखो है, जा कसेरो ने.....” कई भाषाओं से निकली अनेक बोलियों का देश है भारत. – ये सोचकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए. मैं मुस्कुराया और तभी देखा कि बच्चों का एक रेला स्कूल के अंदर दाखिल हो रहा है. पीपल के पेड़ से झड़कर गिरते पत्ते बच्चों के कन्धों पर टंगे बस्तों में अटक कर रह जा रहे हैं. चाय उबल चुकी है और टपरी में बैठे दादा अपने सफ़ेद गमछे से तुक्कस पकड़कर चाय को कांच के गिलास में छान रहे हैं.

“आ जाओ चौरे........” तीन में से एक दोस्त ने मुझे टपरी के पास बुलाया. मैं अपनी चाय लेकर वापस पीपल तले खड़ा हो गया. वहां, जहां पहले मैं अकेला था, अब वहीँ पर मैं अकेला नहीं था. वहां बच्चों का एक समूह आ चुका था. आज अगर तुम अकेले हो तो फ़िक्र मत करो. शायद कभी कुछ क्षण के लिए तुम कहीं जाओ और जब लौटो, तो देखो कि अब तुम अकेले नहीं.

मैं सवाल पूछने का आदि हूँ. मेरा छोटा भाई शायद इसलिए भी मुझ से चिढ़ता है. हम दोनों के बीच अगर कभी एक मिनिट से ज़्यादा का मौन पसर जाता तो मैं उससे सवाल पूछने लगता है – “मध्यप्रदेश विधानसभा में कितनी सीट हैं?”, “लोकसभा अध्यक्ष कौन है?”, “मिज़ोरम की राजधानी बता?” आदि. वहां पीपल के नीचे भी मुझे मेरी इस आदत ने घेर लिया. मैं बच्चों के समूह की ओर “पॉइंट आउटसाइड दी सर्किल” की तरह गया और फिर “पॉइंट ऑन दी सर्किल” बन गया. “पढ़ते हो?” मैंने पूछा. क्योंकि सिर्फ़ स्कूल चले जाना, पढ़ना नहीं होता. उन्होंने हाँ में मुंडी हिला दी. “भारत का प्रधानमंत्री कौन है?” मैंने चाय का एक घूंट लिया. “मोर्दी” उनमें से दो ने बड़ी ज़ोर से चिल्लाया.

“अच्छा! और प्रदेश का मुख्यमंत्री?” मैंने उन पर नज़रें टिका दी और मुस्कुराया. मुझे पूरी उम्मीद थी कि इस आसान से सवाल का जवाब बस आता ही होगा. लेकिन जवाब नहीं आया, सभी बच्चे एकदम चुप थे. उनके और मेरे बीच बने इस “चुप” में से ताश खेलते बुज़ुर्गों की हँसी गुज़र गई. हँसी गुज़री और उसके ठीक पीछे स्कूल की घंटी की आवाज़ चली आई. बच्चों का समूह टूट गया, वो मेरे आजू-बाजू से होकर मैदान में दौड़ गए और हवा-रेत की पकड़म-पकड़ाई को चीरते हुए सीढ़ियों पर चढ़ गए.

मैं एक बार फिर पीपल के नीचे अकेला हो गया. “अ पॉइंट इन स्पेस.”

मैंने अपनी चाय ख़त्म की और चाय की गुमठी के पास जा पहुंचा. मेरे दोस्त और गुलाबी कुर्ते वाला शिक्षक अब हमारी बाइकों के पास चले गए थे. गाँव से रवानगी का वक़्त आ गया था. मैंने चाय के खाली गिलास को गुमठी वाले दादा की ओर बढ़ाया. “अरे! दादा इन बच्चों को प्रदेश का मुख्यमंत्री ही नहीं पता.” मैंने बातचीत का एक सिलसिला शुरू करना चाहा. “पतो पड़ जाए तो भी का करे हैं...............” दादा अपने काम में लग गए. उनके इस जवाब के बाद बातचीत का सिलसिला चल पड़ा, लेकिन उनके और मेरे बीच में नहीं. केवल मुझ में, मेरे भीतर. ऐसे कई जवाब थे जो मैं उन दादा को दे सकता था. पर मुझे अपना कोई भी जवाब इतना मज़बूत नहीं लग रहा था, जो कि उन दादा की बात के आगे टिक सके. मैंने अपने क़दम अपने दोस्तों की ओर बढ़ा दिए.

अंग्रेज़ी की मशहूर लेखिका सुधा मूर्ती की कही एक बात मेरे साथ चलने लगी. “मैं इस देश के ऐसे गाँवों में गई हूँ, जहाँ रुपया नहीं चलता.They do not know what is currency.”  इस बात ने साथ छोड़ा तो जानी-मानी मराठी फिल्म "सैराट" के निर्देशक नागराज मंजुले के सुनाए एक किस्से ने मेरा हाथ पकड़ लिया. नागराज मंजुले ने अपने एक इंटरव्यू में बताया था कि जब अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले हो रहे थे और वो अपने परिवार के साथ टीवी पर इस घटना की रिपोर्ताज देख रहे थे, तो उनकी दादी ने उन सब को टीवी के सामने से ये कहकर उठा दिया था कि “उठो सब के सब, मुझे कमरे की झाड़ू लगानी है, अपना काम ख़त्म करना है........”

“फिर आइयेगा” गुलाबी कुर्ते वाले शिक्षक ने मेरे दोस्तों से कहा. मैं अभी वहां बस पहुंचा ही था. मैंने मुस्कुराते हुए उस शिक्षक को नमस्कार किया और बाइक पर अपने दोस्त के पीछे बैठ गया. हम स्कूल के आगे बसी बस्ती से गुज़रे और फिर दूर फलक तक फैले खेतों को पीछे छोड़ते हुए एक घंटे में गाँव से बाहर आ गए. हम गाँव के बाहर नाश्ते की एक होटल पर रुके और गर्म समोसे मंगवा लिए. होटल के अंदर जाकर मैं एक टेबल पर बैठ गया और गिलास में, जग से पानी कुड़ोने लगा. सफ़ेद शर्ट वाला मेरा दोस्त हँसते हुए मेरे बगल में बैठ गया. वह होटल में लगी टीवी पर आ रही एक न्यूज़ हेडलाइन पढ़ रहा था – “मान ना मान, यूपी में चर्चा-ए-तालिबान........”

मैंने एक सांस में गिलास का पानी पी लिया और टीवी देखने लगा. मेरी आँखों के सामने टीवी थी, लेकिन मेरे ज़हन के परदे पर गाँव के स्कूल का वही दृश्य चल रहा था – गुलाबी कुर्ते वाले शिक्षक के एक इशारे पर मैदान में बिखरे बच्चे सीढ़ियों से चढ़कर अपने-अपने कमरों(क्लासेस) में गायब हो गए. उन्होंने बाहरी दुनिया को अपनी पीठ दिखा दी. और उसे वहां मैदान में ही छोड़ दिया.

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