Monday 1 March 2021

मैं फाइटर नहीं हूँ।



“मैं फाइटर नहीं हूँ।” बहुत झिझक और पशोपेश के बाद इस बात को कह रहा हूँ। सत्य के भी दो प्रकार होते हैं। एक सत्य हिम्मत से बोला जाता है - साफ़, सीधे, स्पष्ट। और दूसरा वह जो मैं अभी लिख रहा हूँ। यह काफ़ी विचार-विमर्श, आत्म-मंथन के बाद ज़हन से बाहर आता है। इसे हम फिल्टर्ड सत्य कह सकते हैं, और इसलिए इसे पिछले साफ़ सत्य से भी अधिक साफ़ माना जा सकता है। 
मैं अगर कभी ठीक तरह से क्रिकेट सीख पाता तो टेस्ट का खिलाड़ी बनता। जीवन जीने की मेरी तकनीक ही डिफेंसिव है। फुटबॉल की भाषा में - मैं बस अपना गोल, अपना मतलब, अपना धेय बचाना जानता हूँ। दूसरे के गोल पर अटैक करना मुझे कभी आया ही नहीं। हिट करना सीखा ही नहीं, क्योंकि सिखाया ही नहीं गया। 

किसी किराने की दुकान पर सामान खरीदने जाता और दुकानदार से कोलगेट माँगता। वह उसकी जगह मुझे बबूल पकड़ा देता। मैं उससे विमर्श नहीं करता, उसके सामने अपना इख़्तिलाफ़ ज़ाहिर नहीं करता, उसके एक्शन को ग़लत नहीं ठहराता। उससे यह नहीं कहता कि मुझे कोलगेट चाहिए, बबूल नहीं। वह जो देता, वही लेकर घर लौट आता। और उसके एक्शन को जस्टिफाय कर देता। यह सिर्फ़ एक उदाहरण है, एक बानगी है - मेरे फाइटर ना होने की।

नर्मदा नदी के विशाल तट किनारे जन्मा मैं, कुछ देरी से ही सही मगर तैरने की कला सीख गया था। और सीख जाने के कई साल बाद तक दोस्तों के साथ नदी का पाट(नदी का फैलाव) पार करता रहा। डुबकियाँ, ऊँची कूद लगाता रहा और दोस्तों के साथ पानी के अंदर साँस रोकने वाले और पानी के भीतर से पत्थर ढूँढ़ लाने जैसे बचकाने लेकिन मस्ताने खेल खेलते रहा था। जीवन के एक दिन मुझे बताया गया कि मेरी आँखें कमज़ोर हैं। और इसलिए मेरी नाक पर एक चश्मा चढ़ा दिया गया। समय के साथ वह चश्मा मोटा होता गया और मेरी तैरने जाने की इच्छा महीन/पतली होती चली गई। मैंने तैरने जाना छोड़ दिया क्योंकि बिना चश्मे के मुझे घाट किनारे, सीढ़ियों पर रखे अपने कपड़े तक दिखाई नहीं देते थे। नर्मदा का पाट तो मैं अब भी पार कर सकता हूँ। लेकिन बगैर चश्मे के तैरते हुए, अपने इर्द-गिर्द सबकुछ धुंधला महसूस करते हुए, नदी को पार करने का असल सुख नहीं पा सकता। 

मैं धुँधलेपन से लड़ा नहीं, मैंने उसे स्वीकार कर, उसके साथ एक आपसी तालमेल ईजाद कर लिया। "लाचारी" शायद इसे ही कहते हैं। और ये नॉन-फाइटर्स में सबसे पहले घर करती है - अपने बहुत छोटे रूप से लेकर, अपने घातक रूप तक। वो जो ज़िन्दगी के मुबहम और मुश्किल हालातों का सामना नहीं कर पाते, वो जिन्हें लड़ने का हुनर नहीं आता, वे हालातों से समझौते कर लेते हैं। बेचारगी और लाचारी का जन्म इन्हीं समझौतों की कोख से, जड़ से होता है। 

जोश, उमंग, उत्साह, आशा, उम्मीद, ज़िंदादिली, हिम्मत, ख़ुशी, सकारात्मकता, टफनेस, वगैरा-वगैरा की अनगिनत, अनहद मिसालों को आए दिन देखता-सुनता हूँ। और तालियाँ पीटता हूँ। कभी-कभी रो भी पड़ता हूँ, और अक्सर रोन्टे भी खड़े हो जाते हैं। पर असल में मैं किसी से ख़ास मुतासिर नहीं होता। किसी के किस्से, कहानी, सफ़र की दास्तान, कविता आदि मुझे फाइटर बनने के लिए ज़रूरी प्रोत्साहन नहीं देती। वैसे भी मैं हमेशा से ही किसी भी आर्ट के क्राफ्ट से प्रभावित होता हूँ। मैं लेखक/कवि/फ़िल्म निर्देशक की रचना में कही गई बातों से कम और उनके लेखन/कहन के तरीके से, शेवे से अधिक चीज़ें बटोरता हूँ। मेरा फेसिनेशन इस बात को लेकर होता है कि किसी बात को किस अंदाज़ से समझाया गया है।

"किसी भी समस्या का इलाज उससे लड़ना है, उससे बचना नहीं।" मेरे पिताजी और उनके अलावा बहुतेरे आम, ख़ास लोगों के मुँह से यह जुमला सुनता रहा हूँ और मुझे पूरी अपेक्षा है कि आने वाले दिनों में भी सुनता रहूंगा। और उन्हें जवाब दूँगा - "बिल्कुल, ज़िंदगी की यही रीत है, हार के बाद ही जीत है।" और फ़िर इसके बाद उनकी इस बात को विवेकानंद, सरदार पटेल,  बैकेट, स्टेन-ली, ओबामा आदि की कहानियों से, कथनों से और वज़न दूँगा, यह जानते हुए भी कि मैं ख़ुद इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता हूँ। लेकिन भींचे हुए होंठ और दबी हुई मुस्कुराहट के साथ अपने मन के भीतर ज़ोर से, बहुत ज़ोर से यही चिल्लाऊंगा कि - "मैं फाइटर नहीं हूँ। जीवन जीने की मेरी तकनीक ही डिफेंसिव है।"

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