अपने और उसके बीच फैले अनहद, अमाप, असीमित पानी को अपनी कामनाएँ कह सकता हूँ. कितनी, कितनी सारी हैं, किसी अनकाउंटेबल नाउन की तरह. वह बोट जिसमें मैं सवार हूँ पानी को चीरते हुए आगे बहती है और मैं उसे “जिज्ञासा” नाम देने की इच्छा के बावजूद – “हड़बड़ाहट” कह पाता हूँ।
कुछ ही देर में मैं बोट सहित नदी के बीचों-बीच और शाम के थोड़ा और पास पहुँच जाता हूँ। ईश्वर ने पानी और आसमान को एकरंग बनाया है, यह राज़ वहीँ खुलता है और मैं सूरज को उसके सबसे ख़ूबसूरत रूप में अपनी हर ओर पाकर कुछ क्षण के लिए इस बात पर यकीन कर लेता हूँ कि वह वाकई सात घोड़ों पर सवार रहता है. सूर्य मेरी दोनों आँखों में ख़ुद का प्रतिबिम्ब, ख़ुद ही का अक्स देखकर कुछ और अधिक रौशन हो जाता है. मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं और एक सूर्यास्त मुझमें भी होने लगता है।
थमे पानी में अपना चित्त डालता हूँ तो कुछ ही देर में चेहरा रिफ्लेक्ट होना बंद हो जाता है, यह उसके पानी में घुल जाने का संकेत है. नदी की गहराई में नीले के कई रूप देखता हूँ और ऐसे में मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहता. मैं यह सबकुछ अपनी स्मृतियों में समेट ही रहा होता हूँ कि अचानक मुझे अपने चारों ओर क्षितिज दिखाई पड़ता है. क्षितिज को प्रेम कहा जा सकता है – हर तरफ मौजूद लेकिन कहीं नहीं हासिल. अब मैं शाम के बेहद करीब आ जाता हूँ और सबकुछ छोड़कर उस परिंदे की तलाश करने लगता हूँ, जिसके लिए मैं यहाँ तक आया था. पर वह कहीं नहीं मिलता. जब चला था तब वही नज़र में था, और अब सबकुछ है बस वही नहीं. कभी-कभी सफ़र में, मंज़िल ध्यान से फ़िसल जाती है।
उसे क्षितिज के करीब ना पाकर पलटता हूँ तो भौंचक्का/हैरान रह जाता हूँ. क्षितिज मुझे अब एक दूसरी दूरी पर ठिठका हुआ दिखाई देता है और उससे सटी हवा में उड़ता हुआ वही परिंदा दिखता है जो पहले इस ओर दिखाई पड़ा था. वह परिंदा जिसे मैंने “क्षितिज संभव है।” कहा था, अब उसे “क्षितिज असंभव है।” से री-नेम कर देता हूँ।
परिंदा देखने की आशा टूट जाती है और तब वहां मौजूद सबसे स्थिर चीज़ की ओर अपनी आँखें घुमा लेता हूँ – पहाड़, पास से कुछ अधिक भूरे, कुछ और ऊंचे नज़र आते हैं. ऊंचाई पर तने पेड़, जिनकी जड़ों ने पूरी सृष्टि को बांधे रखा है, कुछ ज़्यादा हरे हैं. इन पेड़ों के पास इतनी साफ़, ख़ालिस साँसे हैं कि उन्हें फेफड़ों की बोतल में जमा कर शहर ले जाने का मन करता है. “शहर वाले इसका क्या दाम लगाएँगे?” का ख़्याल भी कहीं ना कहीं कौंध जाता है. इन साफ़ साँसों की गहराई में मैं तुम्हें पाता हूँ – कुछ और सुंदर, कुछ और हसीन, कुछ और आकर्षक।
क्षितिज, परिंदा, पानी, पहाड़, पेड़, सूरज, साँसें और तुम। मन में हिलोर उठने लगती हैं, रोंटे खड़े हो जाते हैं और तब एक कविता भीतर कहीं झटपटाती है, पर जीवंत नहीं होती. सौन्दर्य की पराकाष्ठा पर कविता शून्य हो जाती है. और ऐसे में संसार की सबसे सुंदर, सुखद, सरल और सबल कविता बन जाता है – “शून्य.”, वह जिसे दुनिया का हर कवि लिखना चाहता है।
“मौन” कितनी बलशाली, कितनी ताकतवर अभिव्यक्ति है, का इल्म मुझे हो जाता है. बावजूद इसके पहाड़ के शीर्ष और आसमान के तल के बीच अपनी निगाहें टिकाता हूँ और आनंद में चिल्लाता हूँ – “तुम सब कविता हो, हम सब कविता हैं।”
नदी में पानी की एक बड़ी लहर से टकराकर बोट कुछ बड़े हिचकोले खाती है और एकाएक मेरी कल्पना के रंग बिखर जाते हैं. "चिल्लाना" कंठ तक आकर, वहीँ ठहर जाता है. माँ अक्सर मुझसे कहती हैं - "तेरा कंठ बड़ा है।" शायद! बहुत सी अनकही बातें मेरे कंठ में ही कहीं जमा होती रही हैं।
Waah kya khub kehte ho bhai ����
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