मगर फ़िर भी मैं फ़्रांसीसी लेखक और इतिहासकार वोल्टायर का उद्धरण देते हुए कहूँगा कि - "I disapprove of what you say, but I will defend to the death your right to say it."
निर्देशक राजकुमार हिरानी ने अपने लेखक अभिजात जोशी के साथ मिलकर गाँधी के विचारों से प्रभावित एक फ़िल्म बनाई. और फ़िल्म में एक गीत लिया - "कद था उनका छोटा सा और सरपट उनकी चाल रे, दुबले से पतले से थे वो चलते सीना तान के, बन्दे में था दम, वंदे मातरम्."
यह गीत एक तरह से गाँधी की विचारधारा को सतही तौर पर ही सही, लेकिन स्पष्ट कर देता है. उनके विचार- अनुसार हिम्मत किसी हथियार के आ जाने से नहीं आती, अपने शरीर को भारी भरकम कर लेने से नहीं आती. वह जन्म लेती है हमारे भीतर, हमारे मन में - और वहीं से भरती है हम में जूनून किसी भी ग़लत के विरुद्ध लड़ने का.
गाँधी सत्य, अहिंसा, शान्ति और सदाचार के रास्ते पर चलकर अंग्रेज़ों को भारत के बाहर खदेड़ना चाहते थे. और तमाम तल्खियों, मुखालफ़त और रुकावटों के बावजूद वे अंत तक उस ही रास्ते पर चलते रहे. क्योंकि वे जानते थे कि आँख के बदले आँख से समस्त विश्व अंधा हो जायेगा. उन्हें विदित था कि अगर भारतीयों ने हथियार उठाये तो अंग्रेज़ भी हथियार उठाएंगे. उन्होंने युद्ध का नहीं, बुद्ध का मार्ग चुना और सविनय अवज्ञा आन्दोलन, असहयोग आन्दोलन, डांडी मार्च, स्वदेशी आन्दोलन जैसे ना-जाने कितने तरीकों से अंग्रेज़ी हुकूमत को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया.
नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे और उनके कुछ और साथियों द्वारा रची गई एक साज़िश के तहत गांधी की हत्या की गई. बाद में लाल किले में निर्मित एक ख़ास अदालत में न्यायमूर्ति आत्माचरण ने दो आरोपियों को फांसी की सज़ा दी, एक को रिहा कर दिया गया और बाकियों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई. आरोपियों की योजना अनुसार 20 जनवरी को गाँधी की हत्या की जानी थी. तय किया गया कि बिड़ला भवन के पिछवाड़े से प्रार्थना सभा में एक बम फेंका जाएगा, धमाके से भगदड़ मच जाएगी और इसी बीच गाँधी को गोली मार दी जाएगी. हालाँकि जब 20 जनवरी की रोज़ प्रार्थना सभा में बम फेंका गया तो गाँधी जी ने सभी को शांत रहने कहा और भगदड़ मची ही नहीं. ऐसे हालात में दिगंबर बडगे जिसे गोली मारने का काम सौंपा गया था, गोली नहीं मार सका और योजना नेस्तनाबूत हो गई, विफल हो गई. इस घटना से भी गाँधी की विचारधारा और उन्हें मारने वालों की विचारधारा में फ़र्क समझा जा सकता है. गाँधी शांति, सद्भाव, सदाचार और अहिंसा में विश्वास रखते थे, जबकि उन्हें मारने वालों की विचारधारा उन्मादी, गुस्सेल और हिंसक थी. भ्रम और अराजकता फैलाने वाली थी.
रिचर्ड एटनबुरो की 1982 में आई फिल्म गांधी, शायद हर 2 अक्टूबर को देश के सिनेमाघरों में दिखाई जानी चाहिए. फ़िल्म का एक द्रश्य जिसमें गाँधी के सैकड़ों समर्थक एक इमारत में प्रवेश करना चाहते हैं और इसलिए वे लगातार इमारत की तरफ़ बढ़ते हैं. मुख्य द्वार के सामने अंग्रेज़ी सैनिक तैनात रहते हैं और वे अपने पास आने वाले हर व्यक्ति को डंडे से मारकर गिरा देते हैं. गाँधी के समर्थक डंडे खाते हैं, चोट और ज़ख्म झेलते हैं, गिर पड़ते हैं, लहूलुहान हो जाते हैं, लेकिन आगे बढ़ना नहीं छोड़ते और ना ही जवाब में हथियार उठाते हैं. मैं नहीं कहता कि आपको गाँधी के इस प्रभाव का समर्थन करना ही चाहिए, लेकिन मैं आपके सामने बस यह साफ़ कर देना चाहता हूँ कि गाँधी का पथ यही था. आप इस पर चलना चाहते हैं या नहीं, ये आप पर निर्भर है - क्योंकि आप किसी तानाशाह या राजशाही के नागरिक नहीं हैं. आप भारतीय गणराज्य के स्वतंत्र नागरिक हैं.
13 जनवरी 1948 को गाँधी 2 मांगों को लेकर एक भूख हड़ताल पर बैठे. पहली मांग थी कि भारत, बंटवारे के समय हुए समझौते के अनुसार पकिस्तान को बिना शर्त बकाया 55 करोड़ रुपये दे, और दूसरी कि देश में हो रहे साम्प्रदायिक लड़ाई-झगड़े किसी भी तरह समाप्त हों. देश में कुछ लोगों ने गाँधी की मांग को ना-जायज़ ठहराया. उनके अनुसार गाँधी एक धर्म विशेष के लिए काम कर रहे थे. जब कि गाँधी के प्रपौत्र तुषार गाँधी इस बारे में बताते हैं कि गाँधी की भूख हड़ताल का मुख्य उद्देश्य देश में सांप्रदायिक सौहार्द क़ायम करना था.
आज़ादी के बाद जब विभिन्न वजहों से भारत का दर्दनाक और अविस्मरणीय विभाजन हुआ तो नए बने राष्ट्र पाकिस्तान ने तय किया कि वो एक इस्लाम प्रधान देश बनेगा(इसकी औपचारिक घोषणा 1956 में हुई) ठीक इसी वक़्त भारत ने, हिन्दुस्तान ने तय किया कि वो एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की स्थापना करेगा - जहाँ सभी को समान अधिकार मिलेंगे और जहाँ हर नागरिक एक संविधान का पालन करेगा/करेगी. पकिस्तान एक धर्म आधारित देश बना और आज उसके हालात बद्तर हैं - यह साफ़ है. जब कि भारत ने अपनी पहचान एक ऐसे राष्ट्र के रूप में स्थापित की, जिसने सर्वधर्म संभाव और नर ही नारायण है जैसे सन्देश पूरे दुनिया को दिए. जिसने अनेकता में एकता के विचार को पूरे विश्व में संप्रेषित किया और जिसने सारे संसार को बताया कि - उदार चरितानां वसुधैव कुटुम्बकम्.
शायद गाँधी की इसी नीति, गाँधी के इन्हीं विचारों के विरुद्ध थे वो लोग जिन्होंने उनके सामने अपने विचारों को रखने कि बजाय उनकी बे-रहमी से हत्या कर दी. उनके सामने अपनी बन्दूक तान दी. मगर किसी भी सूरत ए हाल में इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि आज भी भारत गाँधी और उन जैसी सैकड़ों विभूतियों का देश है. ना सिर्फ़ गांधी बल्कि भगत सिंह ने भी कहा है - "आप मुझे मार सकते हो, लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकते."
“मैं गांधी को नहीं मानता।”
कोई अकेला वाक्य
नहीं
इसके पीछे सन 1922
से ही
जुड़े हुए हैं कई और
कहे-अनकहे वाक्य
“मैं हिंसा में
मानता हूँ।”
“मैं नरसंहार में
मानता हूँ।”
“मैं आवेश का हूँ
समर्थक।”
“मैं प्रतिकार में
मानता हूँ।”
ये सब बस हैं उदाहरण
ऐसे कई और वाक्य हैं
जो जुड़ते रहे हैं,
जुड़ते रहेंगे
हर “मैं गांधी को
नहीं मानता” के साथ,
फेविकॉल के मज़बूत
जुड़ की तरह
गांधी को ना मानना
दरअसल
शांति से इनकार कर
देना है
युद्ध के लिए हाँ कर
देना है
आज से नहीं, सन 1922
से ही
1922 में चोरी-चौरा
काण्ड के बाद
जब गांधी ने रोक
दिया असहयोग आंदोलन
तब से ही शुरू हुआ
“गांधी का असहयोग”
और ना-जाने कब जुड़
गया
“गांधी के लिए नफ़रत”
से
फेवीकॉल के मज़बूत
जोड़ की तरह
“मैं गांधी को नहीं
मानता।” वास्तव में पर्याय
इस सर छिपाती बात
का,
इस दबी हुई आवाज़ का
कि “गांधी आज़ादी नहीं
लाए।”
मेरी भी है ऐसी कुछ
राय
गांधी अकेले आज़ादी
नहीं लाए
लेकिन मेरे कथन में
“अकेले” का फ़र्क है
यही फ़र्क मेरा तर्क
है।
आज़ादी तो सभी की
बदौलत आई है
सभी ने गोली झेली
हैं, सभी ने लाठी खाई है।
वो लोग जो लक्ष्मी
बाई, भगत सिंह, गांधी के पीछे खड़े थे
नाम उनका कहीं नहीं हैं, पर वो सब भी लड़े थे।
1857 से 1947 तक
देश में अंग्रेज़ थे और उनके ख़िलाफ़ भारतीय।
विभाजन के बाद, सन
48 तक,
देश में रहे बस भारतीय।
लेकिन 30 जनवरी, सन
48 शाम पांच बजे
दिल्ली और फ़िर देश
में “हे! राम” के स्वर के साथ
देश दोबारा बंट गया
2 धड़ों, 2 विचार में
1922 के “मैं गांधी
को नहीं मानता” के साथ
अब जुड़ गया था “मैं
हत्या में मानता हूँ।”
का उग्र, उन्मादी
विचार
फेवीकॉल के मज़बूत
जोड़ की तरह।
वो जो नहीं कर सके
गांधी की नीति afford
उन्होंने ये एलान
किया कि – गांधी worthless
हैं।
और पूरी उर्जा, तन-मन-धन
के साथ
करने लगे एलान का
प्रचार, प्रसार, व्यापार!
गांधी की नीति
प्रीति की है
इसलिए राजनीती से
ऊपर हैं वे
बावजूद कुछ लोग अपनी
राजनीतिक कुर्सी में
जोड़ लेते हैं “गाँधी”
चाहे जब जहाँ
फेवीकॉल के मज़बूत
जोड़ की तरह।
फेवीकॉल का जोड़ तो
शायद
टूट भी जाए कभी
पर जो जोड़, जोड़ा गया
हो
लगभग एक सदी पहले?
क्या वह टूटेगा कभी?
“शायद!” नहीं।
इस “शायद!” से मुझे
ज़रा सी
उम्मीद मिल पाती है –
वर्तमान में यह “शायद!”
ही
मोहनदास गांधी है।
सही बहुत सही ��
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