Tuesday 8 December 2020

कितना कुछ अधूरा।

"मैं लिखने की इच्छा से भरा हुआ हूँ, लेकिन शुरू करने की आशंका से घबराया हुआ"

- दान्ते


1) कितना कुछ अधूरा

कितना कुछ है जो हम शुरू करते हैं, और कभी ख़त्म नहीं कर पाते। छूटा हुआ सबकुछ जमा होता चला जाता है और हर जमा हुए "कुछ" के साथ बढ़ता जाता है मन पर पड़ रहा बोझ। बोझ - अधूरेपन, आलस और आत्मग्लानि का। जमा होना/करना कोई अच्छी बात नहीं। जमाखोरी कानूनन अपराध है, जमा हुआ पानी गंदगी का घर बन  जाता है और उसकी नियति में सड़न के सिवाय और कुछ नहीं।

मैंने पाँचवी क्लास के आसपास पैंटिंग सीखना शुरू किया, पर कभी सीख नहीं पाया। हॉकी खेलना और पतंग उड़ाना भी मुझे कभी नहीं आया, क्योंकि यह सबकुछ बस शुरू हुआ, ख़त्म नहीं। मैंने प्रेम करना भी सीखना चाहा पर यह कभी हो ना सका। शुरुआत तो हुई पर अंजाम तक मैं कभी नहीं पहुंचा। क्योंकि शायद! सीखना कभी था ही नहीं।  सृष्टि में कुछ घटनाएं स्वतः होती हैं, कुछ चीज़ें अपने आप ही आ जाती हैं। मैंने लिखना कभी नहीं सीखा। 

अपने हर छूटे हुए को मैंने लेखन से पूरा किया है - अधूरे सपने, गैर-हासिल हसरतें, कुछ सीखने के नाकाम प्रयास, प्रेम जो हमेशा कल्पनाओं में रहा और कभी यथार्थ ना बन सका। लिखते हुए इन सब को पूरा करने की कोशिश करता रहा हूँ, और करता रहूँगा क्योंकि एक सीमा के बाद हर "छूटा हुआ" परेशान करने लगता है, इससे बने स्पेस में अंधकार और अपने भीतर खींच लेने की असीमित क्षमता रखने वाली ग्रेविटी के सिवाय और कुछ नहीं होता। "छूटा हुआ" जब इस कदर परेशान करने लगे तो उसे छोड़ ही देना मुनासिब है। लेकिन यूँ ही नहीं, उस अधूरे को किसी नई शुरुआत से जोड़ देने के बाद। कोई आश्चर्य नहीं कि मैंने हमेशा अपने हर तरह के अधूरेपन को लेखन से जोड़ा है।

मंज़िल खोजते हम सभी लोग हमेशा सफ़र में होते हैं और सफ़र में ही ख़ाक हो जाना हमारी तक़दीर है। क्या मृत्यु भी एक मंज़िल है? एकमात्र मंज़िल? क्योंकि कितना कुछ है जो हम शुरू करते हैं, और कभी ख़त्म नहीं कर पाते। पर इस बात की तसल्ली हम सबको है कि कम से कम एक चीज़ को तो हम सब ख़त्म करेंगे ही। और वह चीज़ है - जीवन।


2) बुक वाले और बुकिंग वाले।

कौन अच्छा है इस ज़माने में,
क्यों किसी को बुरा कहे कोई।

-नासिर काज़मी।

मंचों के लिए सदैव वाक-युद्ध होंगे। बुक वाले बुकिंग वालों से चिड़ेंगे और अपने आप को किताब के विमोचन पर जस्टिफाय करेंगे। बुकिंग वालों को बुक वाले ना-गवार गुज़रेंगे और वे वीडियोज़ के बल पर हो-हल्ला मचाएंगे। दोनों ही एक-दूसरे को पढ़ाते रहेंगे, सिखाते रहेंगे, निकालते रहेंगे अपनी भड़ास। लेकिन पल भर रुक कर नहीं ताकेंगे आईना, नहीं झाकेंगे भीतर। क्योंकि उनकी नज़र है अपने वीडियोज़ के व्यूज़ और अमेज़न के नम्बर्स पर।

साहित्य को पढ़ने पर ज़ोर दिया जाता रहेगा और फिर भी ना पढ़ने वाले, नहीं पढ़ेंगे। अच्छा सहित्य क्या है? अच्छा सिनेमा क्या है? बुरा क्या है, गलत क्या है, कमज़ोर क्या है, परिपक्व क्या है? आखिर क्या है कविता? कहानी क्या है? यह सारे प्रश्न कल भी पूछे गए थे, आज भी पूछे जा रहे हैं और पूछे जाते रहेंगे। उत्तर की तलाश हमेशा अटकी रहेगी, अधूरी रहेगी क्योंकि खोज पर निकलने से पहले मुझ जैसे अल्पज्ञों को खोखला ख़्याल आएगा कि भीतर कोई विचार पनप रहा है, चलो पहले ख़ुद की एक और रचना रच देते हैं उसके बाद खोज पर निकलेंगे। हम लिखने बैठ जाएंगे और मुक्तिबोध खड़ा चिल्लाता रहेगा कि दिमाग की हर क्रिया विचार नहीं होती।

अधिकांशतः अंत में ख़ुद को ही सही कहकर सो जाया जाएगा और बाकी सब गलत हैं का विचार तस्कीन की नींद दे देगा। आलोचनाओं का बाज़ार हमेशा गर्म रहेगा और लिखने, बोलने वाले, पूरे माशरे को इंसानी-मूल्यों का पाठ पढ़ाते हुए भी ख़ुद ईर्ष्यालु, कुंठित, बे-ईमान, लालची और गर्वित बने रहेंगे। क्योंकि बकौल मंज़र भोपाली किसी ने अपनी कमी की तरफ़ नहीं देखा।

लेकिन ये सब हो जाने के बाद भी, कविता तो बची रहेगी। जीभ चिढ़ाते हुए। बची रहेगी अपनी पूरी ताकत और सौंदर्य के साथ। आंखों में आँसू और शरीर में रोन्टे उठाने को तैयार - बचे रहेंगे शुक्ल, केदारनाथ, निर्मल और विष्णु खरे के शब्द जो करुणा, सत्य, ईमान और वात्सल्य से भरे हुए हैं। विष्णु खरे की कविता की पंक्तियाँ हैं - 

मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से
मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं
मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम
कम से कम एक आदमी से तो निश्चिंत रह सकते हो।


3) मैं बीमार हूँ

"मैं बीमार हूँ।" यह सोचता हूँ और चेहरा दो हाथों में ढांप कर सो जाता हूँ। सियाह, तारीक रात को, मेरे भीतर का अंधेरा, रात के तमस को जीभ चिढ़ाता है। और मेरी अंतर्ध्वनि दब जाती है खर्राटों की आवाज़ तले।

भीगे हाथ लिए उठता हूँ और चेहरे पर मल लेता हूँ। "क्या/कौनसी बीमारी है?" के सवाल को टटोलता हूँ। पर कुछ नहीं मिलता। "लिखने में सारे जवाब हैं, हर सवाल के जवाब।" का ख़्याल आता है और तब कोई और मार्ग ना मिलने पर लिखने बैठ जाता हूँ। लिखने बैठता हूँ और बहुत सोचने के बाद लिखता हूँ - "लिखूंगा।" सादे कागज़ पर कभी, कभी मोबाइल स्क्रीन पर। "लिखूंगा।" में जान है। जीव सी जान। मेरे आलस से उसकी भूख मिटती है और अल्पज्ञता से प्यास। अन्य हम-उम्र लिखने वालों के लिए फ़िज़ूल का आंतरिक द्वेष/जलन जो कि लाख कोशिश करने पर भी नहीं मिटती और दूसरों पर की गई गैर-ज़रूरी आलोचनाएं "लिखूंगा।" की पूरे कागज़ पर फैल जाने में मदद करती हैं। "लिखूंगा।" स्थापित हो जाता है। और जगह ही नहीं बचती कुछ लिखने के लिए।

यह "लिखूंगा।" ही है मेरे पेट की बेचैनी, माथे की नसों में खिंचाव, आंखों का धुंधलापन, हाथ का भारीपन, जांघ का दर्द और मिज़ाज का चिड़चिड़ापन। इसके अतिरिक्त मुझे कोई और बीमारी नहीं है। "मैं बीमार हूँ।" सोचता हूँ और चेहरा दो हांथों में ढाँप कर सो जाता हूँ।


4) बरसात की एक शाम।

"आसमान साफ है।" मैं यह देख रहा हूँ। सामने नीम पर गिलहरियां दौड़ रही हैं, उनकी चहलकदमी से पत्तियों पर ठहरा पानी छिटक कर नीचे गिर रहा है। नीचे सोए कुत्ते के माथे पर छिटके हुए पानी की बूंदें पड़ रही हैं, मगर वह नींद में है। वह काले बादल देख सो गया था और अब उसके ख़्वाब हक़ीक़त में फैली खूबसूरती से अधिक प्यारे हैं - शायद! इसलिए वह जाग नहीं रहा।

चीटियां अपने बिलों से निकल आई हैं, वे कुत्ते के पैर के नीचे से होते हुए एक लाइन में "हद ए नज़र" तक चल रही हैं। "चीटीयों रेंगती तो नहीं?" एक पल के लिए विचार आता है। बादल फिर गरज उठते हैं - कालापन छा जाता है। कुत्ते की नींद खुल जाती है और उसकी आँखें काले बादलों पर टिक जाती हैं। वह यह देखकर फिर सोने चला जाता है - नीम के नीचे। और बादल बिन बरसे ही गुज़र जाते हैं। "आसमान साफ है।" मैं यह देख रहा हूँ।


5) देश, राजनीति और सिनेमा।

प्रकाश झा की फ़िल्म गंगाजल याद आ रही है। नीरज पांडे की वेडनेसडे के कुछ एक संवाद आंखों के सामने चस्पा हो रहे हैं। जय गंगाजल फ़िल्म से बबलू भैया, डब्लू भैया, सर्कल बाबू और लकिसराय के लोगों के किरदार दिखाई पड़ रहे हैं। शूल के मनोज बाजपाई और अर्धसत्य के ओम पुरी खड़े हुए हैं। उनके ठीक पीछे मुंह छिपा रहे हैं मक़बूल के नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी साहब। मंटो की कहानी ठंडा गोश्त दिमाग में बार-बार आ-जा रही है। दुष्यंत की किताब साये में धूप के पन्ने ज़हन में फड़फड़ा रहे हैं। परसाई के व्यंग्य चीख रहे हैं कानों में, मन में तिरछी रेखाएं बना रहे हैं।

गणतंत्र पर ताली वही पीटते हैं जिनके पास हाथ गर्म करने के लिए ओवरकोट के जेब नहीं होते। ख़ैर! इस शहर में अब किसी भी बात पर खिड़कियां नहीं खुलती क्योंकि लोग मुतमइन हैं। नाव जर जर है, लहरों से टकराती भी है लेकिन हिम्मत से सच कहो तो लोग बुरा मानते हैं। वही कैफ़ियत है - जिस तरह चाहे बजाओ इस सभा में, हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं। पर बकौल फिल्म "ए वेडनज़डे" के नसीरुद्दीन शाह - "लोगों में गुस्सा बहुत है राठौर साहब।"

Keep Visiting!

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