Sunday, 22 November 2020

जन्मदिन की सुबह।



वह सुबह-सुबह जाग गया। एकदम सुबह। और पूरे घर में मंडराने लगा। उसके पैरों की टाप मेरे कानों में सुबह के सात बजे के अलार्म की तरह बजी। मैंने उठकर देखा तो वह बीच के कमरे की खिड़की के सामने बनी पाल पर खड़ा था। वह कुछ गुनगुना रहा था और दरीचे के उस तरफ, पेड़ पर, परिंदे चहचहा रहे थे। मैंने चश्मा नहीं लगाया था सो धुंधली आँखों से मुझे सिर्फ उसका धुंधला शरीर दिखाई दे रहा था। लाल टी-शर्ट और नीले कैप्री से ढंका हुआ। लगा मानो पूरे शहर में सिर्फ तीन ही चीज़ें जाग रही हों। उसकी गुनगुन, परिंदों की आवाज़ें और मेरी धुंधली नज़र।

तब मैंने चश्मा लगा लिया। बिखरी हुई दुनिया तरतीब में आ गई और मेरी ज़ुबाँ पर उसका नाम आ गया - “तन्मय”, मेरा भांजा। आज उसका जन्मदिन था और इसलिए ही वह इतनी सुबह उठकर खिड़की पर जा बैठा था। जैसे उसे उसके जन्मदिन का पहला तोहफा बाहर बैठी चिड़ियाओं से मिलने वाला हो। मैं बिना मुँह-हाथ धोए उसके पास गया और उसके कंधों पर हाथ रखा। वह पलटा और पलटते ही पाल से नीचे कूद पड़ा। वह खिड़की से सटकर रखी हुई अलमारी के ठीक सामने कूदा, अलमारी जिसकी छाती पर एक कांच चस्पा/चिपका हुआ था और इसलिए मुझे लगा कि जैसे, दो एक से लोग एक ही वक़्त पर, एक ही जगह कूद पड़े हों।

मैंने उसे उठाने के लिए उसकी तरफ अपना हाथ बढ़ाया तो उसने मेरा हाथ झटक दिया और बीच के कमरे के बीचों-बीच उछलने-कूदने लगा। “ए! आज अपना बर्थडे है भैया, ए! आज अपना बर्थडे है भैया” वह गाता और कूदता जाता। और उसे देखते हुए मैं मुस्कुराता।

मुझे उस वक़्त, उस दस साल के बच्चे की चहलकदमी किसी बेहतरीन नृत्य से कम नहीं लग रही थी। उसका उत्साह दशहरे से कुछ दिन पहले आने वाले उन उधमी बच्चों की तरह था जो अपने हाथ में टेसू (एक पौराणिक लोक-कथा का पात्र) के सर की प्रतिमा/मूर्ती लेकर घरों के किवाड़ों पर आ जाते थे और ज़ोर-ज़ोर से गाते थे – “मेरा टेसू झइं अड़ा, खाने को मांगे दहीं बड़ा। दहीं बड़े में पन्नी, धर दो झइं अठन्नी”

“जितना जोश, उत्साह और उमंग आज इस बच्चे में अपने जन्मदिन को लेकर है, अगर ऐसा ही जुनून हर शख्स में अपने काम को लेकर होता तो क्या ही बात होती। नहीं?” मैंने सोचा। उसकी चहलकदमी ने स्मृतियों के दरवाज़े को धक्का देकर खोल दिया। लेकिन इससे पहले कि मैं उस दरवाज़े के दूसरी ओर, जहाँ मेरा “बचपन” खेल रहा था जा पाता तन्मय के “बचपन” ने मेरी शर्ट खींच दी।

“मामा, चलो सब को उठाएं” उसने कहा, और मैं ठिठक गया, दरवाज़े के इसी ओर, अलमारी के ठीक सामने - जहाँ मेरा वर्तमान मेरे समक्ष, मेरी ही तरह खड़ा था - मुस्कुराता हुआ, माज़ी की याद में

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