Sunday 22 November 2020

लेखन का डेली डॉक्युमेंटेशन।


"लिख सकता हूँ।" का एहसास इतना सुखद है, कि "लिखने के लिए पुरुस्कार मिलेगा।" का विचार बड़ा छिछला और ग़ैर-ज़रूरी मालूम होता है।

-स्वयं

"लेखक रोज़ लिखते हैं" - इस कथन को अगर मैं कहूँ तो "लेखक रोज़ गूदते हैं" कहूँगा. हर दिन कोई कहानी उँगलियों में नहीं उलझती, हर दिन नहीं लगता कि कोई कविता कही जाए. हर दिन कोई घटना मुतासिर नहीं करती, हर दिन किसी दृश्य से खुशबू नहीं आती. हाँ मगर लेखन हर रोज़ उतर आता है इक्का-दुक्का विचारों के रूप में, किसी तस्वीर की तफ़सील के रूप में या किसी फिल्म/किताब की अनुभूति के रूप में. ऐसे हर "लिखे हुए" को लेखन नहीं, गूदना कहूँगा - स्क्रिब्ब्लिंग. ना कविता, ना कहानी बस गूदा-गादी - नोटपैड की, मोबाइल टाइपिंग पैड की या लैपटॉप स्क्रीन पर बैठे माइक्रोसॉफ्ट वर्ड की. यह सब ना तो किसी किताब में आने का दावा करती हैं, ना किसी कवि सम्मलेन या मुशायरे में पढ़े जाने की उम्मीद. हाँ लेकिन पढ़े जाने की इच्छा इन सभी में है, जैसे मुझ में है - "लिखने की इच्छा." जो कुछ यहाँ है, वह "समेटना" है - डॉक्यूमेंटेशन. डॉक्यूमेंट, जो शायद साहित्य की किसी श्रेणी में रखाए जाने के योग्य ना हो, पर पढ़े जाने की इच्छा रखता है. फिलहाल इस डॉक्यूमेंट के दस पन्ने आपके पाले में. सम्भाल लीजियेगा!

एक: मैं कितना लेखक हूँ?

"मैं लिखता हूँ।" का स्टेटमेंट ही इतना ज़िम्मेदारी भरा है, इतना भारी है, कि "क्या मैं अच्छा लिखता हूँ?" के प्रश्न को मैं वहन नहीं कर सकता। लिखने का दावा करने से हम लेखक नहीं हो सकते। लेकिन फ़िर भी लिखते रहने का वादा हम ख़ुद से कर सकते हैं। "मैं कितना लेखक हूँ?" का जवाब मेरे पास नहीं है। और जिस किसी के पास इसका जवाब है, यकीन मानिये उसका - कोई जवाब नहीं है।

मैंने जब पहली दफ़ा गुलज़ार साहब को ग़ालिब की बातें करते सुना था - मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे। "बल्लीमारान के मोहल्ले की तंग, पेचीदा दलीलों की सी गलियों।" का ज़िक्र करते गुलज़ार की आँखों में वही कशिश, वही चमक थी जो कि जावेद साहब कि आँखों में "कृश्न चंदर" के कसीदे पढ़ते वक़्त नज़र आती है। जब मैंने मेरे पसंदीदा लेखकों में से एक मानव कौल को अपनी किताब "तुम्हारे बारे में।" में विनोद कुमार शुक्ल, भवानी प्रसाद मिश्र, निर्मल वर्मा, काफ़्का के किस्से सुनाते पढ़ा तो मैं रो पड़ा था। भीतर ऐसी हिलौर उठ रहीं थी जिनका वर्णन शब्दों में करना फ़िलहाल मेरी ज़द के बाहर है।

जब नरेश सक्सेना को एक यूट्यूब वीडियो में विनोद कुमार शुक्ल की बातें करते सुना तो रुँधी हुई मुस्कान मेरे चेहरे पर थी। और जब विनोद कुमार शुक्ल का, मुक्तिबोध को लिखा पत्र पढ़ा तो मैं कुछ देर के लिए सुलझ गया था, मैं एक क्षण के लिए सहज और सरल हो गया था। विशाल भारद्वाज का इरफ़ान पर लिखा स्क्रीनप्ले पढ़ा तो अपने हाथों से अपनी ही उंगलियों को बार-बार मोड़ रहा था, पैरों को बार-बार समेट रहा था। पेट में अजीब गुदगुदी थी। और जब वरुण ग्रोवर का लिखा - "इरफ़ान से चार मुलाकातें" पढ़ा तो कुछ देर के पॉज़ के बाद मेरी पलकें आप ही गीली हो गईं थीं। 

"मैं कितना लेखक हूँ?" का जवाब मेरे पास नहीं है। पर मैं जब कभी भी मैं अपने किसी एक दिल अज़ीज़ कलाकार को, किसी दूसरे हैरतंगेज़ कलाकार के बारे में करते सुनता/पढ़ता/सोचता हूँ, तब रो पड़ता हूँ। इस "रो पड़ने में।" ख़ुशी का भाव है। - आश्चर्य!

दो: मैं भीतर से असल में क्या हूँ?

बाहर, लोगों के सामने इतना कुछ बन चुका हूँ, इतना कुछ हो चुका हूँ कि अब हर दूसरे क्षण "भीतर से असल में क्या हूँ?" का प्रश्न परेशान करता है। बहुत कुछ बनकर इस सवाल को दबाने का काम कर पाता हूँ लेकिन इसे जड़ से ख़त्म नहीं कर पाता। यह एलोपैथी की दवा सा है - दर्द का इलाज है लेकिन दर्द के कारण का कोई इलाज नहीं, कोई निवारण नहीं। दर्द सतही है, और दर्द का कारण तह में छिपा हुआ। अदृश्य, अमूर्त।

प्रश्न बार-बार आता है, दोबारा, लौटकर - समंदर में बही रेत की तरह। अलग स्वरूप में कभी-कभी पर तासीर हर बार एक सी लिए। यह यक्ष प्रश्न बहुत भयानक है, जीवन लील लेने की क्षमता रखने वाले इस प्रश्न का उत्तर हमेशा - "इसका हल तो सब ही तलाश रहे हैं।" होता है, जो कि वास्तव में कोई उत्तर है ही नहीं। यह तो "उत्तर नहीं मालूम।" का पर्यायवाची है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं।

"मैं कितना कुछ हो जाता हूँ लोगों के सामने, मैं कितना कुछ हो सकता हूँ लोगों के सामने।" की छीटे सी ख़ुशी के बीच मेरे माथे पर गर्दिश/दुःख बन छा जाता है यह विचार कि - "मैं भीतर से असल मे क्या हूँ?" क्योंकि यथार्थ में मैं अपने सामने, अपने मन के भीतर कुछ "बन" नहीं सकता। यह कितना क्लिष्ट है और साथ ही कितना स्पष्ट कि - "अपने स्वयं के सामने हम कुछ और नहीं हो सकते। हम वही हो सकते हैं जो हम हैं। और "हम क्या हैं?" का उत्तर तो हमेशा से यही है कि - ""इसका हल तो सब ही तलाश रहे हैं।"

तीन: मानव कौल के बारे में 

मानव कौल को पहली बार फ़िल्म जजनतरम-ममनतरम के पोस्टर पर जावेद जाफरी और गुलशन ग्रोवर के साथ देखा था। स्कूल से लौटते वक़्त, ऑटो के बाहर हाथ लहराते हुए मैं अपने कज़िन से कहता - "ये टीवी पर कब आएगी?" "अभी तो रिलीज़ हुई है, होशंगाबाद तक आने में वक़्त है अभी" वह कहता। कुछ माह के इंतज़ार के बाद फ़िल्म टीवी पर आई और मैंने कज़िन के साथ उसे देखा। उस वक़्त मेरे बचपन ने कतई नहीं सोचा था कि वह सालों बाद फ़िल्म में उछलते-कूदते मानव कौल को एक लेखक के रूप में देखेगा। 

कॉलेज के फर्स्ट ईयर में एक रोज़ जब मैं पोर्च पर आकर बैठा तो अपने सीनियर के हाथ में एक किताब देखी। किताब का पिछला हिस्सा मेरी ओर था और इसलिए मैं उसे पढ़ने लगा। "कश्मीर के बारामुला में जन्मे मानव कौल की परवारिश होशंगाबाद में हुई" मैंने पढ़ा और पढ़ते ही उछल पड़ा। क्योंकि यह तो मेरा शहर था। मैंने आश्चर्य से वह किताब कुछ दिनों के लिए लेली और मानव से बातचीत करने लगा। भवानी दादा, माखन दादा और परसाई के बाद मानव कौल का नाम भी मेरी उस फेहरिस्त में शामिल हो गया जिसका उनवान था "मेरे शहर के लेखक"। आज "तुम्हारे बारे में" पढ़ना पूरा किया। 

लेखक ने भूमिका में जिस मुक्तता की बात की है वह हर पन्ने पर उभर कर आती है। किताब के वह अंश जहां सर्जक ने अपने प्रिय लेखकों जैसे काफ्का, निर्मल वर्मा, विनोद शुक्ल, भवानी दादा, मुराकामी, बशीर बद्र, कोहेन आदि का ज़िक्र किया है रुला देते हैं। दुख वाला रोना नहीं, मुस्कान वाला रोना। पार्क, चुहल, कलरब्लाइंड, पीले स्कूटर वाला आदमी जैसे अपने मकबूल नाटकों के पीछे की कहानी भी खूबसूरती से उकेरी गई है। किताब पढ़कर खुद किताब का कोई "पन्ना" हो जाने का दिल करता है। मानव संवेदनाओं की चीर-फाड़, मानव अपने प्रिय लेखक निर्मल की तरह, या उनकी तरह के बहुत करीब जाकर करते हैं। यह किताब हमारी बहुत भीतरी भावनाओं एवं संवेदनाओं को नाटकीय पर्दे पर उतारने का काम करती है और इसलिए "तुम्हारे बारे में" कहलाती है।

चार: यात्राएं 

एक लंबी यात्रा ना कर पाने की बे-चैनी मुझे परेशान कर देती है, असहज महसूस होता है और एक कोफ़्त मन में उभरती है। एक स्पेस (खालीपन) तख़लीक़ हो जाता है जिसे भरने के लिए मैं कई सारी छोटी यात्राएं करने लगता हूँ। क्योंकि बहुत सी छोटी यात्राएं भी हमें भीतर से उतना ही गेहरा और घना कर देती हैं जितना कि एक तवील सफ़र करता।

पांच: मेरे पिता चंट क्यों नहीं?

पिता जी ने बहुत काम किया। या कहना चाहिए बहुत तरह का काम किया। आज भी कर रहे हैं। लोगों के खेतों में हार्वेस्टर चलाने से लेकर पेट्रोल पंप पर पीसीओ चलाने तक और शहर से सटकर बसे किसी इलाके में मत्स्यपालन से लेकर किसी और के खेत की देख-रेख तक पिता जी ता-उम्र काम करते रहे हैं। उम्र के जिस पड़ाव में मैंने दुनियादारी समझी, उसी पड़ाव में मैं यह भी समझ गया कि पिता जी को दुनियादारी नहीं आती। "तुम चंट नहीं हो" लोग अक्सर पिता जी से कहते और मैं सोचता कि "चंट होना" क्या कोई उपलब्धि है? अगर हां तो यह मेरे पिता को हासिल क्यों नहीं है?

जिस व्यक्ति के लिए हार्वेस्टर चलाया उसी ने पिता जी को खेत से हटाकर अपने पेट्रोल पंप पर पीसीओ चलाने का सुझाव दिया। वे मान गए। फिर नगरपालिका के अतिक्रमण में वह पीसीओ चला गया। उस व्यक्ति ने कोई और काम दिलाने का आश्वासन दिया, पिता जी मान गए। मेरे पिता माने हुआ व्यक्ति नहीं हैं, लेकिन सबकी मान ज़रूर लेते हैं। सही ही कहते हैं उनके आलोचक , वे चंट नहीं हैं। जब इर्द-गिर्द हरियाली थी तब बहुत से परिंदे भटकते थे, बैठे रहते थे। लगता था अपने हैं। वो तो चंद टहनियां कटीं तब मालूम हुआ कि कमबख्त माइग्रेटरी थे। "कभी यहां तो कभी वहां" वाले। "बिन पैंदे के लोटे" नहीं "पैसों के पैंदे के लोटे"।

कई बार हारे पिता जी, आज भी नहीं हारे हैं। यही बात मुझे ऊर्जा देती है। "मैंने कई सीढ़ियां चढ़ीं और हर बार शून्य पर आया। थोड़ा डरा, घबराया लेकिन फिर शुरुआत की , शून्य से शुरुआत क्योंकि शून्य के नीचे सबकुछ नकारात्मक है, नेगेटिव है" वे कहते। "काम करो, बहुत सारा काम और हर जगह अपनी एहमियत सिद्ध करो।" उनका मंत्र है। पिता जी की ऐसी कई बातों के बीच आज भी माँ की कही एक बात कानों में बहुत ज़ोरों से बजती है - "दुनिया पैसों की है और पैसा चंट लोगों के पास होता है"। मैं फंसा महसूस करता हूँ,
 माँ-पिता की सैकड़ों समझाइशों के बीच। 

आज जब मेरी गतिविधियों और काम को देखकर कोई मुझसे यह कहता है कि "तुम चंट हो" तो मुस्कुरा देता हूँ। और फिर सोचता हूँ कि क्या चंट होना कोई उपलब्धि है? अगर हाँ, तो यह मेरे पिता को हासिल क्यों नहीं है?


छह: मंटो का मीना बाज़ार

इंदौर के एक पोशीदा गोशे में मौजूद एक दुकान में मुझे यह किताब मिली थी। एक साल हुआ, जब इसे खरीद कर अपनी कुछ किताबों के बीच रख लिया था। मंटो ने यहां, इस किताब में अपने दौर की फ़िल्मी दुनिया को बयां किया है। वह कैसी, किस हाल में थी, किसके मातहत थी, कौन उसे चलाता-रोकता था वगैरा-वगैरा। उस वक़्त की आठ पुर-कशिश और दिल-सोज़ अदाकाराओं के दस्तखत के उनवान तले इस किताब में छपे आठ मज़मून लिखे गए हैं।

मंटो हमारे दरपेश फ़िल्मी जगत से जुड़े कुछ बेहद मशहूर नामों को बेबाक अंदाज़ में पेश करते हैं। वे उनकी आदतों, आफतों, अक़ीदतों और अरमानों के मुतालिक बिना किसी रंग-रोगन के जस का तस लिखते हैं। शशधर मुखर्जी से लेकर अशोक कुमार और कमाल अमरोही से लेकर के.आसिफ तक सब इन मज़मून में किसी अफ़साने के किरदारों की मानिंद दिखाई पड़ते हैं। एक रंगीन किताब है। एक रंगीन किताब, जिसे उर्दू अफसानानिगारी के ऐसे अदीब ने लिखा है जिसपर उसके दौर में, मुसलसल सियाह फ़साने गढ़ने के आरोप लगते रहे। ख़ैर! किताब मिले तो पढ़ियेगा

सात: मुलाक़ात सूरज के सांतवे घोड़े से

धर्मवीर भारती के इस रोचक और प्रयोगात्मक उपन्यास के विषय में बहुत ही मुख़्तसर तफ़्सीर दिये देता हूँ। यह किताब असल में किसी निश्चित तकनीक के इस्तेमाल से लिखे जाने वाली कहानियों के खिलाफ एक आंदोलन है। बहुत से पूर्वाग्रह टूटते नज़र आते हैं और कहानी में नई संभावनाएं उजागर होती दिखाई पड़ती हैं। कहानी के नायक माणिक मुल्ला की ज़ुबान में लिखा गया यह लघु उपन्यास एक बात स्पष्ट कर देता है कि - "कहानी कहना कोई मुश्किल काम नहीं है, बशर्ते जो कहा जा रहा है, वह ईमानदारी से कहा जाए"

बाकी माणिक मुल्ला के प्रेम, कहानी, किताब, उपन्यास, गांव, शहर, नुक्कड़ आदि के विषय में क्या विचार हैं, यह जानने हेतु आपको किताब खुद पढ़नी होगी। तो जाइये और करिए मुलाक़ात - "सूरज के सांतवे घोड़े" से।

आठ: यथार्थ की सांसें। 

अपने बहुत ही खाली समय में, जब हम कुछ नहीं कर रहे होते। हम गर्व करना शुरू कर देते हैं। अपने धर्म पर, जाती पर, देश पर, कुछ इक्के-दुक्के अच्छे कामों पर और बुरे कामों को किसी तरह जस्टिफाय कर उनपर भी गर्व करने से हम नहीं चूकते। 

कुल मिलाकर हम सब गर्वित, आत्ममुग्ध और स्वयंसिद्ध लोग हैं। जो यथार्थ में ना रहकर सपनों में रहना अधिक पसंद करते हैं। बस, ट्रेन, कार आदि में सफर करते हुए हम बाहर घट रहा सच कभी देखना ही नहीं चाहते। हम इयरफोन्स लगाकर, गीत सुनते हुए भीतर ही संसार रचना जानते हैं, कल्पनाओं से सराबोर संसार। जहां संगीत के प्रकार की तरह हमारा प्रकार भी बदल जाता है। और हर प्रकार में नायक हम ही होते हैं। गीत देश के लिए हो तो हम सैनिक, नेता, देशभक्त। प्रेम पर हो तो हम हर उस नायिका के नायक जिसे देखते ही यथार्थ में हमारा मुंह सिल जाता है। ख़्वाब कितने ज़रूरी हैं मालूम होता है। 

मछली को पानी से निकाल देने पर वह कुछ तड़प कर मरती है। फूल को पौधे से अलग कर देने पर भी वह पूरा एक दिन अपनी सुगंध, अपना सौंदर्य बचाए रखता है। हम ऐसा नहीं कर पाएंगे, हमें लगता है। ख्वाब हमारे लिए ऑक्सीजन जितने महत्वपूर्ण हैं, हम सोचते हैं। लेकिन यथार्थ सत्य रूपी कार्बन डाई ऑक्साइड से भरा हुआ है। हम गहरी सांस भरते हैं और ढेरों ख्वाब भीतर खींचना चाहते हैं लेकिन ना चाहते हुए भी थोड़ी सी सच्चाई अंदर ले लेते हैं। यकीन मानिए हम इस थोड़ी सी सच्चाई की वजह से ही जीवित हैं। नहीं तो अब तक ख्वाब में डूबे हुए मुर्दे बन चुके होते।

नौ: अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा इसलिए आता है

अक्सा बीच पर घूमते हुए एक दिन यूँ ही अपने दोस्त से बात करते हुए कहा था कि हम सब कौए हैं। हालांकि वह मज़ाक और राजनीतिक वार्तालाप के बीच मेरे मुंह से आप ही निकल गया था। जुमले के पीछे कोई विचार, तर्क, ख़्याल नहीं था। लेकिन अल्बर्ट पिंटो जब यही वाक्य दोहराता है तो उसके पीछे कई कारण हैं। मज़बूत और वाजिब कारण। क्रांतिवीर में प्रताप ने अपने गुस्से का तर्जुमा करते हुए हमें "कीड़ा" कहा था। अल्बर्ट पिंटो ने हमें फिर भी "कौए" कहा है। रेंगने से शायद ऊपर उठ गए हैं हम। लेकिन मूक दर्शक आज भी बने हुए हैं। मरे हुए कुत्तों या कुचले गए कहना शायद बेहतर हो, को नोचना हमने आज भी नहीं छोड़ा है। हम "वेगन" का ढोंग रच रहे हैं यह जानते हुए की अंदर से हम कितने बड़े मासाहारी हैं।

अ-कारण हम कुछ नहीं करते। लेकिन हमारे कारण कितने छिछले और फूहड़ हैं, सोचकर ही लानत जीभ को कड़वा कर देती है। लानत, लानत समझते हैं ना? शर्म। कभी किया है टेस्ट शर्म को? जीभ पर? अल्बर्ट पिंटो ने कर लिया था। हताशा व्यवस्था से, खुद की हस्ती से, ने उसे ऐसा बना दिया था। वह किसी को खुश देखता तो उसे बेवकूफ कहता। दुखी ही वर्तमान के समझदार हैं। अल्बर्ट पिंटो का गुस्सा लाज़मी भी है और लाज़िम भी। उस गुस्से के परिणामस्वरूप लिया गया उसका फैसला भी सार्थक है। फैसला वह अमल करने का जिसके लिए उस जैसों की एक पूरी भीड़ लगती है, कभी-कभी। हालांकि वो वह अमल कर नहीं सकेगा, कर ही नहीं सकता क्योंकि "तुम अच्छे इंसान हो" का टैग चस्पा है उस पर, जैसे उसके पिता पर था। हम पर क्यों लाद दिए जाते हैं यह टैग्ज़, यह तमगे। वही जाने जो है नहीं, शायद। और है तो हो, फ़र्क़ नहीं पड़ता। क्योंकि अब तो लगता है कि शायद वह भी हमें कौए से वापस इंसान नहीं बना सकेगा। महसूस होता है कि मानो हमारे अंदर का इंसान ही भीतर बैठे खानाबदोश, काले कौए के लिए सुबह-शाम गाता हो - आज जाने की ज़िद ना करो।

दस: ज़ाकिर खान की नज़र

फ़िल्म दीवार की शुरुआत में एक दृश्य है जहां पर बालक विजय का किरदार बूट पॉलिश के बदले मिले पैसों को यह कहकर नकार देता है कि - "मैं फेंके हुए पैसे नहीं उठाता।" फ़िल्म में आया यह संवाद ठक करके दिल में लगता है और टकराकर वहीं कहीं आसपास गिर जाता है। कहानी आगे बढ़ती है और इसके साथ ही बढ़ती है विजय की उम्र। आगे चलकर वह एक और बार फेंके हुए पैसों को उठाने से इनकार कर देता है और पूरे जोश और आत्मविश्वास के साथ कहता है कि "मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता।" संवाद अब ठक करके नहीं लगता बल्कि चुभ जाता है। क्योंकि वह अब भी वहीं मौजूद रहता है, जहां पर वह गिरा था या यूं कहें कि जहां कहानीकार(जावेद-सलीम) ने उसे छोड़ा था। दिल के आसपास कहीं। यह चुभन ही असल में कहानी की लज़्ज़त, फ़साने का ज़ायका साबित होता है। ज़ायका जिसे एक दर्शक अंत तक अपनी ज़ुबाँ पर महसूस कर पाता है।

किसी संवाद, जुमले या स्टेटमेंट को अफ़साने के बीच में कहीं छोड़कर आगे बढ़ जाना और फ़िर कहीं बहुत आगे चलकर उसे फिर से जीवंत कर देना। उसकी एहमियत को, उसकी ज़रूरत, उसके स्वाद को कई गुना से बढ़ा देता है। यही वह खेल है, वह जादू, वह एजाज़ है जो इस दुनिया की तमाम मुक़म्मल कहानियों और पुर-जमाल अफसानों में शरीक होता है। या कहें कि शरीक किया जाता है।

ज़ाकिर खान, जो कि असल मायनों में एक मंझे और सधे हुए कहानीकार और क़िस्सागो हैं। ने आज एक ऐसी ही तवील कहानी दर्शकों के सामने पेश की और ब-कमाल करीने से अपनी बहुत ही ज़ाती कहानी को सबके मुक़ाबिल रखा। मुस्कान छाई, लेकिन भीनी-भीनी सी। ठहाके लगे लेकिन होंठों ने कई दफ़ा चुप्पी भी साध ली। यादों का एक रेला आंखों के सामने से गुज़र गया। लगा जैसे किसी ने बरसों से सुस्त पड़े हाफ़िज़ा को दोबारा दुरुस्त कर दिया हो।

ज़ाकिर खान के इस अफ़साने ने मुझे मेरी जड़ों से मिलवा दिया, यह तो नहीं कहूंगा लेकिन हाँ, इस कहानी ने उन जड़ों में पानी देने का अमल ज़रूर किया है। "कहाँ से हो?" का मेरा जवाब बदल दिया है। "होशंगाबाद से हैं।" अब डंके की चोट पर कह सकता हूँ। हिम्मत और एतमाद के साथ ज़ाहिर कर सकता हूँ। क्योंकि हम इंसानों की सभी उड़ानें टेम्पररी होती हैं। लेकिन घोंसला, अक्सर परमानेंट होता है। एकदम स्थाई। तो बस, आप पूरे यकीन और जोश के साथ कहिये - "अपना घर ज़िंदाबाद! अपना शहर ज़िंदाबाद!" और ज़ाकिर भाई का जवाब होगा - "तथास्तु!"


अगले ब्लॉग में पढ़िए ऐसे ही और लघु-लेख(शॉर्ट राइटिंग्स)
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