Wednesday 18 November 2020

कामयाब : हर किस्से के हिस्से।

मैंअदाकारहूँलेकिन,

सिर्फ़अदाकारनहीं,वक़्त की तस्वीर भी हूँ

-गुलज़ार


ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा और हाल ही में लोगों एवं समीक्षकों(क्रिटिक्स) द्वारा पसंद की गई फ़िल्म गली बॉय की निर्देशक ज़ोया अख़्तर ने मुझे मालूम नहीं कब - "लक बाय चांस" नामक अपनी पहली फ़िल्म रची और अपने भाई फ़रहान अख़्तर को मुख्य भूमिका में लिया। फ़िल्म का ओपनिंग ट्रैक सिनेमाई दुनिया के उन कलाकरों को रेखांकित करता नज़र आया जो पर्दे/स्क्रीन के पीछे काम करते हैं। ये लोग कभी भुलाए नहीं जा सकते क्योंकि इन्हें याद ही कभी नहीं किया गया। गैंग्स ऑफ़ वासेपुर और दम लगा के हईशा के लिए लोकप्रीय और अलहदा गीत लिखने वाले गीतकार वरुण ग्रोवर अक्सर अपने इंटरव्यूज़ में मुखर होकर टेक्निशियंस को ना मिलने वाले सम्मान पर बात करते हैं और उन अवार्ड शोज़ का ज़िक्र करते हैं जिनमें टेक्निकल अवार्ड्स को लाइव टेलीकास्ट भी नहीं किया जाता। वे बात करते हैं और बातों का क्या है? आती हैं, चली जाती हैं। "इसको ही जीना कहते हैं तो यूँ ही जी लेंगे, कुछ ना कहेंगे, लब सी लेंगे, आँसू पी लेंगे।"

गुरुदत्त ने कागज़ के फ़ूल रची और फ़िल्म की शुरुआत में एक बूढ़े हो चुके निर्देशक को अपने टूटे-फूटे सेट में दाखिल होते दिखाया - "हम ने तो जब खुशियां माँगी, तो ग़म की गर्द मिली।" इस फ़िल्म के पर्दे पर आने से पहले गुरुदत्त ने ही प्यासा रची, जिसके बारे में यह कहा जाता है कि यह आज भी आज की नहीं, आज से आगे की सिनेमाई संरचना है. प्यासा के क्लाइमैक्स में गुरुदत्त ने मुख्य किरदार विजय के इर्द-गिर्द भावों का ऐसा इंद्रधनुष रचा की एक व्यक्ति के लिए यह तय कर पाना मुमकिन नहीं कि वह किस भाव को महसूस कर रहा है। आश्चर्य है कि ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार को कहा जाता है और गुरुदत्त को नहीं। क्या हम कभी ओमप्रकाश या ऐके हंगल को ट्रेजेडी किंग कह पाएंगे? या कम से कम ट्रेजेडी सोल्जर?

कुंदन शाह ने जाने भी दो यारों के अंत में कलाकरों का मजमा दिखाया है और प्रियदर्शन अपनी हर फ़िल्म में यही करते हैं। दर्शक बहुत गौर से मजमा देखते हैं। लेकिन अगर इस मजमे के सामने कोई शर्ट फाड़ता नायक खड़ा कर दिया जाए तो दर्शक की आँखें उसकी ओर मुड़ जाती हैं। हार्दिक महता "कामयाब" रचकर कामयाब हो गए हैं और संजय मिश्रा ने अदाकारी की अपनी इमारत में एक मंज़िल और कंस्ट्रक्ट कर ली है। "सुधीर" जो कि इस फ़िल्म(कामयाब) का नायक है अपनी पूरी जान लगाकर दर्शकों को एंटरटेन करता है, वह अपने भीतर के सभी आर्टिस्ट्स लोगों के सामने रख देता है और अपनी अदाकारी के उरूज़ पर पहुंचकर मंच पर ओंधा गिर जाता है - यह बेहद ख़ूबसूरत द्रश्य है और इसे सूर्यास्त के मनोरम द्रश्य की उपमा दी जा सकती है. लेकिन जैसे किसी देखने वाले का ध्यान सूर्यास्त के मनोरम द्रश्य से मोहल्ले के शोर-शराबे की ओर मुड़ जाता है, ठीक उसी प्रकार दर्शकों की आँखें अभिनय में डूबे "सुधीर" से हटकर चका-चौंध में नहाए हीरो की ओर घूम जाती हैं। और पर्दा गिर जाता है. हंसल महता रचित "स्कैम 1992" में हर्षद महता का किरदार कहता है - "भारत में सबसे ज़्यादा दो चीज़ें मेनूफेक्चर होती हैं - हीरो और भगवान।"

इस संवाद को सुन महेश माँजरेकर की नटसम्राट के गणपत बेलवालकर ठहाका मारकर हँसते हैं और प्यासा के क्लाइमेक्स से उतरा विजय आँखें खोल कर रोता है। यह दोनों दृश्य मंच के हैं। कुंदन शाह की जाने भी दो यारों में भी क्लाइमैक्स मंच का है, हार्दिक महता ने भी क्लाइमैक्स में मंच दिखाया है और राज कपूर की मेरा नाम जोकर भी मंच को समर्पित है। इम्तियाज़ अली की तमाशा पर्दा उठने और गिरने के बीच की खूबसूरत कहानी है और ह्यू जैकमैन की दी ग्रेटेस्ट शोमैन भी सर्कस का मंच दिखाती है। यह महज संयोग है - हम ऐसा मान सकते हैं।

क्या हम मंच की सराहना करना कभी भी सीख पाएंगे, ठीक वैसे जैसे हमे कवि से पहले कविता और फ़िल्म से पहले सिनेमा की सराहना करना सीखना है? मालूम नहीं कब

खैर तब तक मेरे ख़याल में विजय, सुधीर, विनोद, अहुजा, तरनेजा, राजू, सुरेश सिन्हा, गणपत, वेद और बारनम - इन सभी को लूप में साहिर का लिखा यह गीत सुनना चाहिए - "कल कोई मुझको याद करे, क्यूँ कोई मुझको याद करे मसरूफ़ ज़माना मेरे लिये क्यूँ वक़्त अपना बरबाद करे, मैं पल दो पल का शायर हूँ......" और इसके बाद अगर कुछ समय बचता है तो वे सभी शैलेन्द्र का "जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ।" और फ़िर कैफ़ी आज़मी का "देखि ज़माने की यारी, बिछड़े सभी बारी-बारी." सुन सकते हैं।

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