Wednesday 7 October 2020

मेरे साथी लिखने वालों के नाम।



छटवी कक्षा में अपनी अंग्रेज़ी की शिक्षिका द्वारा दिए गए होम-वर्क के तहत मैंने अपने जीवन की पहली कविता लिखी। उस कविता को जिसका उन्वान जहाँ तक मुझे याद है "माई पैरेंट्स" था लिखते हुए मैंने यह कभी नहीं सोचा था कि लगभग आठ साल बाद "ओपन माइक" नाम की एक बेहद प्रसिद्द प्रक्रिया से मेरा तआरुफ़ होगा। लेकिन जब यह भेंटा हुआ तो मुझे बहुत अच्छा लगा। एक साल के अंदर मैंने नहीं-नहीं करके पचास ओपन माइक में अपनी कविताएं पढ़ीं। लोग जानने लगे, पहचानने लगे और बेवजह की तारीफ भी करने लगे। पता नहीं क्यों? इस घटना पर मैंने उस समय के जोश के चलते एक शेर भी कहा -

"किस ओर से हवा बदली जा रही है,

मिसाल मेरे नाम की दी जा रही है?"

फ़िर कुछ समय बाद मैंने ही यह लिखा - 

"जो कहते हैं मुझसे बड़े शायर हो तुम,

ऐसे ही लोगों को टालता है प्रद्युम्न।।"

सच कहूं तो तारीफों से मेरा मन कभी भी ज़्यादा खुश नहीं हुआ है। आज का दौर ऐसा है जिसमे कवि की तारीफ़ हो रही है। मेरा मानना है कि तारीफ़ कवि की नहीं वरन कविता की होनी चाहिए। किसी कविता को तख़लीक़ करते वक़्त शायर, कवि या सुख़नवर उस लम्हे को जी रहा होता है जिसमे उसने कविता लिखी है। कविता लिखाए जाने के बाद उसकी मनोस्थिति बदल जाती है, वो लम्हा गुज़र जाता है। मगर कविता के भीतर वो पल मौजूद रहते हैं। कविता जीवित रहती है, कवि नहीं। 

कविता करते-करते मैं शायरी करने लगा और राफ़ता अफ़साने भी कहने लगा। कुल मिलाकर इस काम में मुझे मज़ा आता है। ऐसा लगता है कि कुछ अच्छा कर दिया। मेरी कोई कविता कभी भी इस उद्देश्य से नहीं लिखी गई की इसे परसो वाले इवेंट में पढूंगा या कल वाले ओपन माइक में इसके ज़रिये ही तालियां बटोर लूंगा। मैं तो लिखने के लिए लिख रहा था, लिख रहा हूँ, लिखता रहूँगा। आप भी विचार करके देखें की क्या आप कोई शेर सिर्फ इसलिए कह रहे हैं क्योंकि आपने किसी इवेंट में रजिस्ट्रेशन कर दिया है? या किसी मोबाईल एप्लिकेशन ने आपसे ऐसा करने को कहा है। किसी किताब को पढ़ते हुए क्या आप ये सोचते हैं कि आज से दो साल बाद मैं इसी तरह एक किताब लिख दूँगा? जावेद अख्तर साहब ने फरमाया है कि - किताब मज़े लेकर पढ़ें। पढ़ते हुए ये ना सोचें कि आप भी किसी रोज़ इस तरह का लिखेंगे। पढ़ने के लिए पढ़ें ना की लिखने के लिए। इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता के आप कितना लिखते हैं। कुछ लोग महीनो महीनो में एक कविता करते हैं। कुछ मेरी तरह होते हैं जो हर चौथे दिन कुछ लिखते हैं। सबका अपना तरीका होता है। मैं रोज़ लिखता हूँ, कुछ ना कुछ , थोड़ा बहुत। यह बात अलग है कि सबकुछ प्रकाशित नहीं करता। गुलज़ार ने कहा है - आई एम् अ डिसिप्लिन्ड राइटर। आई राइट डेली।

 पिछले दिनों मुझे ढेरों छोटे-बड़े मंचों पर जाने का मौका भी मिला। हर इवेंट से लौटकर जब मैं घर आता तो लोगों द्वारा की गई तारीफ, दाद, तहसीन वगेरा को याद करके खुश होता। मगर बहुत कम समय के बाद ही मेरा ज़मीर मुझे दो चांटे लगा देता। चांटे खाते ही मैं कुर्सी से नीचे गिर जाता और फिर कुछ देर वहीँ पड़ा रहता। 

स्वयं के ज़मीर को मज़बूत बनाएं रखे, स्वयं की औक़ात, स्वयं परखें और दूसरों को मौका ही ना दें। आधे से ज़्यादा समय मैं बे-सबब ही परेशान रहता हूँ। किसी से मिलना मुझे पसंद है मगर उससे रोज़ ही मिलने लगना मुझे विचलित कर देता है। मैंने ये कभी नहीं सोचा की आज यदि मैं पंद्रह ओपन माइक करूँगा तो सौलवीं दफ़ा मुझे बड़े मंच पर पढ़ने का मौका मिलेगा। कविता की राह तय थोड़ी की जाती है। वो तो बनती चली जाती है। खुद-ब-खुद, अपने-आप। सम्मान पहले कविता का हो उसके बाद कुछ बच जाए तो कवि का। आत्म-निरक्षण बहुत अच्छी चीज़ है, आइने से बेहतर दोस्त कोई नहीं और ज़मीर से अधिक इल्मी उस्ताद दूसरा कोई नहीं। महान कवि और भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न श्री अटल बिहारी बाजपाई साहब की कविता है -

उँचे पहाड़ों पर घांस नहीं उगती,

ना ही पेड़ लगते हैं।

वहां जमती है तो सिर्फ बर्फ,

जो मौत से ठंडी और कफ़न सी सफेद होती है।

है प्रभु! मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना।।

लिखना मेरा शौक़ है और यही काम एवं जीविका भी है। इसलिए मैं लिखता रहूँगा मज़े से, अपनी टेबल-कुर्सी पर बैठकर, अपनी कलम से अपनी डायरी में या अपने लैपटॉप में। लिखने के लिए मुझे किसी मंच की आवश्यकता नहीं है और ना ही किसी और को होनी चाहिए। 

Keep Visiting!

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