Sunday 20 September 2020

ना कविता, ना कहानी, बस गूदा-गादी।


लिखना एक सक्रिय किस्म की उम्मीद है

-मानव कौल

"लेखक रोज़ लिखते हैं" - इस कथन को अगर मैं कहूँ तो "लेखक रोज़ गूदते हैं" कहूँगा. हर दिन कोई कहानी उँगलियों में नहीं उलझती, हर दिन नहीं लगता कि कोई कविता कही जाए. हर दिन कोई घटना मुतासिर नहीं करती, हर दिन किसी दृश्य से खुशबू नहीं आती. हाँ मगर लेखन हर रोज़ उतर आता है इक्का-दुक्का विचारों के रूप में, किसी तस्वीर की तफ़सील के रूप में या किसी फिल्म/किताब की अनुभूति के रूप में. ऐसे हर "लिखे हुए" को लेखन नहीं, गूदना कहूँगा - स्क्रिब्ब्लिंग. ना कविता, ना कहानी बस गूदा-गादी - नोटपैड की, मोबाइल टाइपिंग पैड की या लैपटॉप स्क्रीन पर बैठे माइक्रोसॉफ्ट वर्ड की. यह सब ना तो किसी किताब में आने का दावा करती हैं, ना किसी कवि सम्मलेन या मुशायरे में पढ़े जाने की उम्मीद. हाँ लेकिन पढ़े जाने की इच्छा इन सभी में है, जैसे मुझ में है - "लिखने की इच्छा." जो कुछ यहाँ है, वह "समेटना" है - डॉक्यूमेंटेशन. डॉक्यूमेंट, जो शायद साहित्य की किसी श्रेणी में रखाए जाने के योग्य ना हो, पर पढ़े जाने की इच्छा रखता है. फिलहाल इस डॉक्यूमेंट के पन्द्रह पन्ने आपके पाले में. सम्भाल लीजियेगा!


एक: अपनी अपनी राह

एक तस्वीर जिसे उस समय लिया गया था जब मैं पांचवी क्लास में था, में एक ऐसी बात कह दी गई थी, जो मुझे अब कहीं जाकर पता चली है। तस्वीर स्कूल के मैदान की है जहाँ मैं अपने एक दोस्त के साथ मेहरून कोट पहने खड़ा हुआ हूँ और हमारे सामने थर्माकोल का एक घर नुमा ढ़ांचा है. हमारे पीछे दिखाई दे रही हैं कई सारी रंगी-बिरंगी साइकिलें और उनके पीछे गहरी खाई. हालाँकि खाई दिखाई नहीं दे रही, दिखाई दे रही है नर्मदा नदी जो कि खाई के भी पीछे है. 

दरअसल पाँचवी में मिले एक स्कूल असाइनमेंट के तहत मैंने तस्वीर में दिख रहा घर बनाया था, घर के पीछे बना थर्माकोल का ही काल्पनिक आसमान मेरे उस दोस्त ने बनाया था जो तस्वीर में मेरे साथ खड़ा हुआ है - घर के पीछे और खाई के आगे। स्कूल में आर्ट एग्जिबिशन था और हम सब दोस्तों ने कुछ ना कुछ बनाया था, या कहना चाहिए कि घर वालों से बनवाया था. मेरा घर प्रदर्शनी में अलग रखा हुआ था और मेरे दोस्त का आसमान अलग. लेकिन जब समय तस्वीर का आया तो मेरे घर को उसके आसमान के नीचे या आगे रख दिया गया। फोटो खिंच गई, याद बन गई. और ज़हन के साथ-साथ मोबाइल और कंप्यूटरों में भी दर्ज हो गई। मगर तस्वीर की सीख जो शायद सिर्फ़ मुझे ही नज़र आ रही है, सालों बाद मिली. ग़ालिबन मैं तब एक ऐसा बच्चा था जिसे किसी तरह के ख़याल आते भी होंगे तो वह उन्हें लिखने की ज़हमत नहीं उठाता होगा, आलसी कहीं का। 

बहरहाल तस्वीर की सीख या कहूँ कि उसे देखकर हुई अनुभूति यह है कि "मैं उन इसांनो में से हूँ , जिसे झुकने में कभी तकलीफ़ नहीं हुई, रास्ते देने में संकोच या भय का अनुभव नहीं हुआ, मन हमेशा कुंठा मुक्त रहा. भागते हुए लोगों के बीच जब भी मैंने धक्का खाया तो मैंने पीछे हटकर हमेशा उन्हें ब-अदब आगे जाने का रास्ता दिया। क्यों? शायद इसलिए क्योंकि जिस राह पर वो मुझसे आगे निकलना चाहते हैं, वो मेरी है ही नहीं। वह तस्वीर आज भी मुझसे यही कहती है - "जल्दी में जो हों उन्हें आगे जाने दें. यथार्थ में आपकी राह में कोई आपसे आगे नहीं निकल सकता क्योंकि आपकी असल राह में भीड़ मिलना ही ना-मुमकिन है।"

दो: इकट्ठा कबूतर

किसी चौराहे पर इकठ्ठा हुए "कबूतरों" को देखता हूँ, तो लगता के ख्याल हैं सारे किसी सुख़नवर या अदीब के, और किसी बज़्म में आकर बैठे हैं। चुगते रहते हैं दाने चावल-चूरी के, वही जो आते-जाते राहगीर डाल जाते हैं पुण्य कमाने के लिए। हैरान हूं के दान में भी खुदगर्ज़ी किस तरह अपना घर बनाती है।

रह रह कर गर्दन उठाते हैं और अपनी गोटि/बटन जैसी नज़रों से तकते हैं आसपास, के कहीं कोई आकर मार ना जाए। ख्याल भी मेरे डरते हैं ठीक ऐसे, ज़हन से उठ-उठ कर देखते हैं - इधर-उधर। इकट्ठा कबूतरों में कौन पहले परवाज़ भरेगा कौन जानता है? ज़हन में बैठे ख्यालों में से, पहले किसकी नज़्म बनेगी कौन जानता है? मैं तो कतई नहीं जानता.

तीन: ग्रुप फोटो

पुरानी फाइल्स जब खुलती हैं तो उनसे निकलती हैं फड़फड़ाती यादें। किसी ऐसे परिंदे की तरह जिसे ताज़ा-ताज़ा क़फ़स से आज़ाद किया गया हो। यादों और पुराने क़िस्सों पर बात करने वाला मैं एकमात्र तो नहीं हूँ, हाँ मगर मैं भी हूँ। और हूँ इसलिए कह रहा हूँ. कई दफ़ा हम कुछ बातें केवल इसलिए नहीं कहते क्योंकि हमे लगता है के यह तो कहा जा चुका है। हमें समझना होगा की बात ख़्यालों की नहीं, लहज़े की है, कहन के तरीके की है. 

कक्षा तीन की एक ग्रुप फोटो को देख रहा हूँ। पुरानी फाइल पर लगी धूल को झाड़ते हुए यह यकदम मेरे सामने आ गई है. मैं अपनी क्लास के 39 अन्य बच्चों के साथ यूनिफॉर्मिटी में खड़ा हुआ हूँ. हमारी मुस्कानें तक यूनिफॉर्म हैं. इस फोटो में मौजूद हर शख्स आज शायद वहीँ है जहां उसे होना था. वहां नहीं जहां वह होना चाहता था/चाहती थी. ये सभी क्या-क्या चाहते थे, कितना कुछ चाहते थे, तब से चाहते थे, अब तक चाहते होंगे - शायद। तब तमन्ना और थीं, फिर कई दफ़ा बदली होंगी. जैसे शक़्ल बदलती है उम्र के साथ। हर कोई "कुछ" बनना चाहता था, आज "कुछ" बन गया है। और अब हर "कुछ" चाहता है कि मैं फिर "वही" बन जाऊं।

चार: चॉइसेज़

किसी बाग़ में बैठे परिंदों की तरह हमारी हसरतें भी ज़हन में बैठकर पँख फड़फड़ाती रहती हैं। एक साथ, एक ही जगह पर इतने परिंदों को देख भीतर का तलबगार ख़ुद को रोक नहीं पाता और उन्हें पकड़ने के लिए उनकी जानिब दौड़ पड़ता है। बिना विचारे, बिना ये तय किये की उस झुण्ड में आखिर वो कौन सा परिंदा है जिसके लिए उसने दौड़ लगाई है। उनके करीब पहुँचते ही ऐसा लगता है मानो वहां कभी कोई था ही नहीं, लगता है जैसे कोई सराब था बस। एक पल पहले तक परिंदों से भरी ज़मीन सूनी हो जाती है और हमारे पास सिवाय हांफने के कोई चारा नहीं रह जाता। फिर हम लौट जाते हैं इस इंतज़ार में के झुंड फिर लगेगी, हसरतें लौट आएंगी और दौड़ लगेगी दौबारा उनको हासिल करने के लिए। और शायद इस बार हो भी जाए, बशर्ते यह पहले से ही तय हो के हासिल किसे करना है।

पांच: क्षितिज, किताब, मैं

क्षितिज से मेरा संबंध वैसा ही है, जैसा एक पाठक और किताब के बीच होता है। किताब की ही तरह उफ़क़ चुप खड़ा रहता है और मैं ताकता रहता हूँ उसे शब्-ओ-रोज़। किताब बोलती नहीं सो क्षितिज भी बोलता नहीं, मगर इसका अर्थ कतई यह नहीं है के यह दोनों मौन हैं। ये कहते हैं, बहुत कुछ कहते हैं बस हमें सुनना होगा. बोलने और कहने में फ़र्क, ठीक वैसे जैसे अनुभव और अनुभूति में है।




छह: प्रश्न-उत्तर 

सवाल, क्यों हैं? कभी सोचा है?, जब मैं ये पूछता हूं तो दो और सवालों का जन्म हो जाता है। जैसे एक तीर से दो निशाने या एक पंथ दो काज। सवाल शायद इसलिए हैं क्योंकि जवाब हैं। अब जवाब हैं क्योंकि सवाल थे। मतलब दोनों एक दूसरे के पूरक जैसे जन्म और मृत्यु, जैसे भांप और पानी. 

सवालों की बज़्म में ख़्यालों से उपजे सवाल अत्यधिक पेचीदा होते हैं, इनके उत्तर उन्हीं पेचीदा दलीलों की सी गलियों में होते हैं जिनका ज़िक्र गुलज़ार साहब या कीट्स अपनी नज़्मों में करते हैं। कभी-कभी सवाल इतने हावी हो जाते हैं के उत्तर भी सवाल करता है और जब ऐसा होता है तो विचारों की एक ऐसी उहापोह, ऐसी रस्साकशी तख़लीक़ होती है जिसमे अंततः मन कुचला जाता है। ऐसे में बेहतर होता है के सवालों को समेट कर पानी में बहा दिया जाए। किसी कल-कल बहती दरिया के बीच बैठकर, पत्थरों से गुफ़्तगू की जाए और क्षितिज को ताकते हुए उन बहते सवालों को देखा जाए बस।

कहीं किसी जगह पर जहां पानी भांप बन रहा होगा ये सवाल वहीं से आसमान में चले जाएंगे। मगर इनसे छुटकारा तो तब भी नहीं मिलेगा, क्योंकि यही भांप कभी पानी बनकर फिर बरसेगी। भले ही देर से मगर बरसेगी ज़रूर कभी ना कभी. और फ़िर वही सवाल उकरेंगे ज़हन में जिन्हें पानी में बहाकर हम मुतमईन हो गए थे। तब शायद हम उत्तर तलाशना शुरू करें।

सात: रो लिया जाए

मेरा "रोना" अब वैसा नहीं रह गया जैसा बचपन की गलियों में हुआ करता था। उसके सबब बदल चुके हैं। अब चोट लगने पर भी मैं करहाते हूँ, चिल्लाते हूँ, यहां-वहां गदर मचाते हूँ मगर रोता नहीं हूँ। और कभी जो रोता हूँ तो वह भी डर की वजह से "हिम्मत टूट जाने के बाद" के रोने की तरह।

आँखों से आने वाले गिर्या भीतर कहीं सूख रहे हैं जो इस बात का इशारा है के अंदर कहीं एक बहुत बड़ा सेहरा तख़लीक़ हो रहा है। ये सेहरा संवेदनाओं के दरिया को मिटाता हुआ बढ़ता चला जा रहा है और दिल भी अब इसकी ज़द में है। महसूस करने की क्षमता बड़ी तेज़ी से मतरूक हो रही है और इंसान वह चीज़ खोता जा रहा है जो तमाम जीवित प्राणियों में सिर्फ़ उस ही को मयस्सर है "भाव"।

मैं अक्सर कुछ नग़मों और नज़्मों की मदद से रोता हूँ और कोशिश करता हूँ कि भाव जीवित रहें, ताकि मेरे जीवित रहते मैं इंसान बना रहूं।

आठ: वाटर साइकिल

समंदर की उफनती लहरें इस तरफ ज़मीन से, किनारे से टकराती हैं। ग़ालिबन उस तरफ क्षितिज से टकराती होंगी। टकराने से उचटा पानी आकाश में छाए बादलों पर बिखर जाता होगा और बादल उसे सोंख लेते होंगे। पानी से लबरेज़ हो कर हर स्याह बादल सफर पर निकल जाता होगा और उसी के दौरान जगह-जगह बरसता होगा। ज्यों ही उसमे वापस वक़्फा तख़लीक़ होता होगा वो वापस समंदर के ऊपर क्षितिज के पास लौट जाता होगा, पानी के लिए। शायद! , ग़ालिबन! , May Be.

नौ: तस्वीर के तीन लोग

माँ को तस्वीर खिंचवाने का बड़ा शौक था। है नहीं, था। मेरे और छोटे भाई के बड़े होते जाने के साथ वह शौक ज़ईफ़ होता चला गया। माँ की इच्छाएं, इलत्जाएँ, चाहतें बच्चों के लिए होती हैं और बच्चों से भी कभी-कभी। पिताजी को फोटो खिंचाने का ज़्यादा शौक नहीं था लेकिन अपने बच्चे का बचपन ऐल्बम में कैद करने के मोह से वह भी ख़ुद को बचा नहीं सके थे। अपनी सबसे अच्छी साड़ियों में से एक पहनकर और मुझे उस समय के सबसे प्यारे और चटक रंग पहनाकर माँ घर के बाहर बने चबूतरे पर खड़ी हो गई और मुझे हवा में किसी पतंग की तरह लटका दिया। मैं आज भी वह पतंग हूँ, जिसकी डोर माँ के हाथों में है। पतंग-नुमा मैं गाहे-बगाहे हवा में गौचे ज़रूर खाता हूँ लेकिन संभल जाता हूँ। यह अमल धीरे होता है मगर हाँ हो जाता है। वह चाहती थीं कि कैमरामैन एक ऐसी तस्वीर ले जिसमें वह खुद नज़र ना आएं। नज़र आऊं तो सिर्फ मैं, हवा में लटका हुआ। "असम्भव है" कहकर कैमरामैन ने अपना पल्ला झाड़ लिया और तस्वीर में हम चार लोग आ गए। माँ, पेड़, मैं और मेरी घबराहट, मेरा डर। मेरे माथे और होंठ पर रोने के बाद का बिखरा हुआ सिसकना भी कैमरे में कैद हो गया जिसे किसी भी एडिटिंग टेबल पर एडिट नहीं किया जा सकता था। हालत ए हाल जब इस तस्वीर को देखता हूँ तो अपने घबराए हुए होने पर हँसता हूँ।

इस तस्वीर के खींचे जाने के कुछ पांच साल बाद मैं उसी चबूतरे पर खेल रहा था जहाँ यह तस्वीर ली गई थी। माँ भीतर अपने काम में लगी हुई थीं और घर के बाकी सदस्य जो उस वक़्त घर पर थे, भंडारघर में गेहूँ रखवा रहे थे। .
पेड़ पर बैठी गोरैया मुझे आकर्षित कर रही थी। पिताजी के साथ पाल पर दाने, चावल सिर्फ इसलिए डालता था ताकि किसी रोज़ कोई गोरैया जब दाने खाने आएगी तो अपनी पूरी बिसात लगाकर उसे पकड़ लूँगा। "पकड़ लूँगा" का विचार मुझे इतना ख़ुश कर देता कि "पकड़ लेने के बाद क्या?" का ख्याल कभी आता ही नहीं।

परिंदों ने मुझे हमेशा मुतासिर किया है सो उस दिन किसी को आसपास ना पाकर मैं उस गोरैया को पकड़ने के मज़बूत इरादे से पाल पर चढ़ गया। मैंने अपना हाथ बढ़ाया और हाथ बढ़ाने के साथ ही गोरैया उड़ गई। वह उड़ी और मैं अधर में लटक गया। पैर पाल में फंस गए, हाथों को पेड़ की शाख ने थाम लिया, सर धरती की तरफ हो गया और शरीर हवा में झूल गया। ठीक त्रिशुंक की तरह जो कि मान्यताओं के अनुसार धरती और आसमान के बीच उल्टा लटका हुआ है। सोचता हूँ कि माँ की मुझे पतंग की तरह हवा में लटकाने की इच्छा कितने ख़ौफ़नाक तरह से पूरी हुई।

दस: होशंगाबाद

मैं तमाम उम्र अपने शहर "होशंगाबाद" का कर्ज़दार रहूँगा। कर्ज़दार शहर की आब ओ हवा का, घाटों का, गलियों, मोहल्लों का, चौक, चौराहों का, यहां के अज़ीज़ दोस्तों का, अपने स्कूल, अपने उस्तादों का और माँ नर्मदा का। 

बचपन के थोड़े बाद और टीनएज में आने के पहले जो वक्फा बनता है उसमें मुझे बताया गया था कि होशंगाबाद में पैदा होने वाले शख़्स को दो अमल करने ज़रूर आने चाहिए। पहला - माँ नर्मदा की दिलकश और पुर-जमाल प्रार्थना "नर्मदाष्टक" का पाठ और दूजा - माँ नर्मदा के आंचल में बे-फ़िक्र होकर तैरना। बहुत खुश और गर्वित महसूस करता हूँ कि यह दोनों ही काम मैंने जैसे-तैसे सीख लिए थे और आज भी ज़हन में हैं। व्यक्ति तैरना, साइकिल चलाना, वक़्त देखना और प्रेम करना कभी नहीं भूलता। 

आँखों पर लगे इस कमबख्त चश्मे की वजह से अब उतना नहीं तैरता जितना पहले तैरा करता था। "करता था" का ख़्याल अक्सर मलाल का सबब होता है। हम छह दोस्त एक ट्यूब के सहारे पल्ले-पार(इस पार से उस पार) जाते और वहां पहुंच क्रिकेट खेलते। आधे रास्ते तीन दोस्त ट्यूब पर होते और बाकी के तैरते। आधी राह पार होते ही मामला उल्टा हो जाता। हम एक छोर से तैरना शुरू करते तो बहाव के कारण किनारे लगते-लगते अगले ही छोर पर पहुंचते। ठीक जीवन के बहाव की तरह। "तैरकर आने के बाद" कि भूख को कई मायनों में सच्ची भूख माना जा सकता है। इस "भूख" में व्यक्ति प्याज़-रोटी भी सहर्ष खा लेता है। "हमारी ज़रूरतें वाक़ई बेहद कम हैं" का एहसास भी इस तरह की "भूख" शांत होने के बाद अक्सर आ ही जाता है। मैं अब ख़ुद को उस "भूख" का कर्ज़दार भी मानता हूँ और मानता रहूँगा। 

समस्त देश-दुनिया में नर्मदा कही जाने वाली यह नदी होशंगाबाद वासियों द्वारा "नर्मदाजी" कहलाती हैं। सम्मान में लगा जी लोगों के दिल ओ दिमाग में इस क़दर चिन्हित है कि इसे पृथक करने की कल्पना भी किसी के तसव्वुर में नहीं आती। माँ नर्मदा का पानी पीकर बड़ा हुआ "मैं" जब भी अपनी दबी हुई आंखों से नर्मदा का दीदार करता है तो उसकी आंखें छलक उठती हैं। गोया माँ का कर्ज़ उतारने की रिरयाती, ना-काम कोशिश कर रहीं हो। वे बार-बार, लगातार, सतत, अनवरत यह कोशिश करती रहेंगी। करती रहेंगी ज़िन्दगी फ़ौत होने तक।



ग्यारह: कन्फेशन

निराश, असफल, स्वार्थी, डरपोक। ये चार शब्द मैंने अपने हर एक सोश्यल मीडिया अकाउंट के बायो में लिखे हैं। या लिखे थे. इसपर "क्यों" का सवाल आए दिन मेरे पास रेंगते हुए चला आता है, कीड़े की तरह। कीड़ा, जिससे घिन आती है। कीड़ा, जिसे अपने पास आता देख में सिहर जाता हूँ। कीड़ा, जिसका सामना मैं नहीं कर सकता, जिसे अपनी उंगलियों से उठाकर कहीं दूर नहीं फेंक सकता, ना ही उसे कुचल सकता हूँ। कुचला तो उसकी दुर्गंध मुझे ता-उम्र सताएगी। मैं सिर्फ उससे बच सकता हूँ। उसे स्किप कर सकता हूँ। किसी रोज़ ऐसे ही सैकड़ों कीड़े, जिनसे मैं बचता रहा हूँ मुझे चारों ओर से घेर लेंगे और ना चाहते हुए भी मैं उनमें से दर्जनों पर पांव रख दूंगा। वे कुचले जाएंगे और मेरा "भीतर" उनकी दुर्गंध से भर उठेगा। लाज़िम है कि जो "भीतर" हो रहा है वह देर-सवेर "बाहर" भी आएगा और तब मेरी पूरी काया से कीड़ों की दुर्गंध आएगी, कुचले गए कीड़ों की।

बारह: नमक

क्षितिज के साथ बिताए पल, जीवन की सबसे खूबसूरत स्मृतियों का हिस्सा बन जाते हैं। क्योंकि वे पल माज़ी की ऐसी स्मृतियों में जगह पाते हैं जिनमें मुस्तक़बिल का कोई अंश नहीं था। वो स्मृतियां जिनमें केवल वो वक़्त था, जिसमें वे बनीं, स्मृतियां जिनमें केवल उस समय का "वर्तमान" था, अपनी सबसे छोटी आयु में। कोहसार पर बैठ अताह, अनहद, बे-कनार समंदर का "वो पार" देखने में गाहे हम इतने मसरूफ़ हो जाते हैं कि हमें "उस पार क्या होगा?" का वैज्ञानिक-नुमा ख़्याल कभी नहीं आता। दोनों "ओर" के बीच पड़ा समंदर अक्सर सफेद चादर सा लगता है जिसके दोनों छोर, दोनों तरफ बसी पत्थरों की बस्तियों ने पकड़ रखे हैं। गोया वहां पत्थरों की पकड़ ढ़ीली हुई और यहां हवा ले उड़ी समंदर। किसी दक्षिण भारतीय निर्देशक की ऊंची और कभी पकड़ में ना आने वाली कल्पना की भांति कहूँ तो - "किसी रोज़ वाक़ई जब पत्थरों की पकड़ ढीली पड़ेगी और हवा समंदर उड़ा ले जाएगी तो नीचे केवल नमक बच जाएगा। इतना नमक, जितना आज समस्त मानवता की आँखों में बचा हुआ है।

तेरह: सृजन और दुबलापन

"जितना सोचेगा, उतना दुबला होगा" माँ ने कहा था। और "सोच मत, बस काम कर" पिता ने। विडंबना यह है कि अगर मैं सोचूंगा नहीं तो सृजन नहीं कर पाऊंगा और सृजन करना ही मेरा काम है। काम ना करना, मुझे वित्त से दूर रखेगा जिसकी चिंता मैं मेरा चित्त पुनः सोच-विचार में पड़ जाएगा. जिसके परिणामस्वरूप मैं और दुबला हो जाऊंगा। वर्तमान हालात यह हैं कि या तो मैं सृजन सोच रहा होता हूँ या सृजन कर रहा होता हूँ। बचने वाले वक्त में भी मैं निरंतर सोच ही रहा होता हूं। सोच रहा होता हूँ राजनीति के बारे में, किसी कहानी के बारे में, किसी फिल्म, किसी नज़्म, किसी लेखक के बारे में, किसी सिग्नल पर भीख मांगते बच्चे के बारे में, पैसों के बारे में, उन जगहों के बारे में जहां जाने के सपने मैंने देख रखे हैं और कभी-कभी सपनों के बारे में भी। 

माथे के इर्द-गिर्द नसों का उठना और खिंचना अब महसूस करने लगा हूँ। आँखों से भीतर जाने वाले ख़्याल और दिमाग से उपजे ख़्याल माथे की नसों के आसपास कहीं टकराते होंगे। संभवतः टकराव से पैदा होने वाला दर्द नसों में उठता होगा। कई सारे विचारों के बीच मेरे अंदर मौजूद स्वार्थ, द्वेष, दुःख, निराशा, हताशा, जलन, चिड़, डर और ना-उम्मीदी/मायूसी जैसी भावनाएं भी दिमाग में अपनी क्षमता अनुसार दर्द पैदा करती हैं और अंतर्मन कराह उठता है। यह दर्द इतने अंदर उठता है कि उठने वाली चीख सुनाई नहीं पड़ती और ना ही उठता दर्द दिखाई देता है। 

लेकिन यह होता है, "बहुत छोटे हिस्सों में" "मन के बहुत अंदर।" भीतर मौजूद भावनाओं और विचारों का बुरा होना मुझसे कहता है कि मैं इन्हें अपने अंदर से निकाल दूं। लेकिन मैं सोचता हूँ कि अगर यह भावनाएँ हमारे अंदर मौजूद हैं तो इनके बारे में पूरी ताकत से क्यों ना लिखा जाए। बकौल मंटो क्या सच्चाई से इनकार करने हमें एक बेहतर इंसान बना देगा? अकेले वक़्त में अब "कब तक अकेला रहूँगा" का विचार "अकेले रहना आनंदमई है" से बदल रहा है और इसलिए अब मेरा सृजन बहुत निजी होता चला जा रहा है। और बहुत निजी चीज़ें, बहुत अधिक काली होती हैं। चूंकि हम उन्हें काफ़ी दिनों तक अपने भीतर रखते हैं, वे सड़ कर काली पड़ जाती हैं। भयंकर उहापोह सहने वाला ये ज़हन, ये दिमाग किसी रोज़ दर्द से फट पड़ेगा। निश्चित फट पड़ेगा। मैं बस चाहता हूं कि जब यह अमल हो तो मैं सृजन करने की प्रक्रिया में होऊं ना कि सृजन सोचने की।

चौदह: शुरुआत पर

मैं छटवी जमात में था। वो साल "याद नहीं कौनसा" के अप्रेल माह की आलसी दुपहर थी। अंग्रेज़ी की क्लास चालू थी और हम सब एक अंजान लेखक के लिखे उबाऊ किरदारों से मुलाक़ात कर रहे थे। आगे की बेंचों पर बैठे बच्चे आंखें फाड़कर टीचर को सुन रहे थे और पीछे बैठे बच्चों की आंखें रह रहकर बंद हो रही थीं। उनकी काया ज़रूर क्लास की चार दीवारी में बंद थी लेकिन वे अपनी कल्पनाओं में मुक्त थे। मुक्त और तल्लीन।

एकाएक पीरियड खत्म होने का संकेत देने वाली घण्टी बज गई। घण्टी बजते ही हकीकत और कल्पना के बीच की रेखा टूट गई और सभी एक संसार में आ गए, यथार्थ के संसार में। पीरियड खत्म हुआ और टीचर ने अपनी आदत अनुसार होमवर्क देना शुरू कर दिया। "कल सब, खुद से तीन कविताएं लिखकर लाएंगे" उन्होंने कहा। और "यस मै...डम" नाम का गीत एक निश्चित ताल के साथ प्ले हुआ। अगले दिन उन दस बच्चों में मैं शामिल किया गया जिन्होंने कविताएं लिखी थीं। कविताएं सुनाने पर तालियां मिलीं और उसके बाद तारीफें। "ये काम अच्छा है" का ख़्याल दिल ओ ज़हन में कौंध गया। 

इसके बाद और कविताएं रचने का सिलसिला शुरू हुआ। "लिखना" उस वक़्त "कविता" था और "कविता" उस समय "तुकबंदी" थी। "सोचना" असल में "खोजना" था। "खोजना" था समान तुक वाले शब्दों का। उसी दौरान मुझे याद है पिता जी ने मेरी लिखी कुछ लाइनें पढ़ी थीं और उसके बाद मुझे फटकार लगाते हुए उन्होंने कहा था कि "तू कविता नहीं लिख रहा, बस तुकबंदी कर रहा है।" उस दिन से लेकर आजतक मैं उस फटकार से उभरने की कोशिश में लिखे जा रहा हूँ। इस बात का गवाह स्वयं मैं हूँ कि इस ही छिछली कोशिश में मैंने नज़्म ओ ग़ज़ल के नाम पर कितने "हादसे" रचे हैं। लानत है। लेकिन फिर भी कोशिश जारी है। और जारी रहेगी क्योंकि - "ये दिल है के मानता नहीं!"

पन्द्रह: परजीवी/पैरासाइट 

डर गया था, जब माँ ने ढाई साल की उम्र में मुझे स्कूल भेजने का मन बना लिया था। डर गया था, जब पिताजी मुझे स्कूल कंपाउंड में छोड़कर गेट के बाहर चले गए थे। डर गया था, जब गणित में दो से दस तक के पहाड़े याद करने को कहा गया था और डर गया था जब अपने जन्मदिन के रोज़ मुझे रंगीन कपड़ों में स्कूल जाना था। घबरा गया था, जब पांचवी में पहली बार मेरे "बचपन" को इस बात का एहसास हुआ कि उसकी आंखें कमज़ोर हैं। घबरा गया था, जब नानी ने माँ के साथ मिलकर मुझे आई स्पेशलिस्ट के पास ले जाने का फैसला लिया था। घबरा गया था जब, डॉक्टर ने मेरे थरथराते हाथों में चश्मा थमा दिया था और बेहद घबरा गया था, जब एक रिश्तेदार ने मेरी आंखों पर चढ़े चश्मे को देखकर अपना मुंह सिकोड़ लिया था।

बचपन में जब कभी भी पिता जी किसी से झगड़ा कर लेते तो मैं उन्हें लड़ता देख रो पड़ता। मैं उन्हें रोकने की कोशिश करता क्योंकि मुझे लगता था कि अगर बात हाथापाई तक पहुंची तो मेरे पिताजी ही हारेंगे। मैं इस क़दर ना-उम्मीदी और नकारात्मकता से भरा था कि मुझे अपनों की जीत पर संदेह रहता और दूसरों की विजय का विश्वास। दसवीं के आसपास कहीं जब मेरे मासूम "लड़कपन" ने इश्क़ करना सीखा तो कुछ ही दिनों के अंदर उसे "लोग क्या कहेंगे" का ख़ौफ़ सताने लगा। वह अपने इर्द-गिर्द मौजूद लोगों से डरने लगा, शिक्षकों से घबराने लगा, यहां तक कि वह उस लड़की से नज़रें मिलाने में भी ख़ौफ़ खाने लगा जिसके प्रति उसके दिल में "बचपना" था।

डरपोक "बचपन" आख़िर बड़ा होकर बनता भी क्या? सो वह डरपोक "युवा" बना। मेरे साथ, मेरे भीतर पैदा हुआ मेरा "डर" , मेरी "नकारात्मकता" अंजाने में मेरे साथ ही जवान हुई और अब मुझे भीतर से खोखला करने पर आमादा है, किसी परजीवी की तरह।

अगले ब्लॉग में पढ़िए ऐसे ही और लघु-लेख(शॉर्ट राइटिंग्स)
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