२०१४ का लोकसभा चुनाव एक आंदोलनकारी चुनाव था और उस आन्दोलनकारी चुनाव की ऐतिहासित जीत भारतीय जनता पार्टी की झोली में आ गिरि थी। २०१४ से पूर्व में हुए चुनावों की तरह ही इस चुनाव में भी दो मुख्य पार्टियों ने कई क्षेत्रीय दलों के साथ सांठ-गाँठ की, गठबंधन बनाए, अपने प्रत्याशी खड़े किये, चुनावी घोषणापत्र पेश किए, चुनावी रणनीति बनाई, अपने स्टार प्रचारकों की सूची तैयार की, कार्यकर्ताओं को सतर्क किया और प्रचार में लग गए। तो फिर ऐसा क्या था इस चुनाव में जिसे मैं आन्दोलनकारी होने का तमगा दे रहा हूँ? सोश्यल मीडिया। जी, सोश्यल मीडिया ही वह चीज़ थी जिसका इस्तेमाल २०१४ के चुनाव में एक आंदोलन के रूप में हुआ। शायद भारत में सूचना क्रांति के बाद जो दूसरी सबसे बड़ी क्रांति आई वह यही थी “डिजिटल क्रान्ति” और जिस तरह सूचना क्रांति के जनक राजीव गांधी थे, इस क्रान्ति की जनक बनी भारतीय जनता पार्टी और उसके शीर्ष नेता। कांग्रेस इस क्रांति को भांपती उससे पहले ही २०१४ और फिर २०१९ के नतीजे आ गए। एक बार ४४ और दूसरी बार ५२ सीटों पर सिमटी कांग्रेस अब ना खुद का आन्तरिक ढ़ांचा मज़बूत कर पा रही है और ना ही अपना स्वयं का आई टी सेल।
हाल-फिलहाल के आंकड़े देखें तो ट्विटर पर भाजपा के एक करोड़, सोलह लाख फॉलोअर्स हैं तो वहीँ कांग्रेस के सिर्फ पचपन लाख। फेसबुक पर भाजपा के पास एक करोड़, पचास लाख लाइक्स हैं तो वहीँ कांग्रेस के पास मात्र 53 लाख। इसी तरह से अपने औपचारिक सदस्यों से लेकर अन्य सोश्यल मीडिया प्लेटफॉर्म्स तक हर जगह कांग्रेस भाजपा से पिछड़ी हुई है। इस पिछड़ेपन के अलावा एक और बात जिसने कांग्रेस की लोकप्रियता को घटाने का काम किया है वह यह कि उनके सोश्यल मीडिया हैंडल्स पर हर दूसरा पोस्ट गाँधी-परिवार से जुड़ा हुआ होता है। गांधी परिवार को अपनी सबसे बड़ी मज़बूती मानना कांग्रेस की बहुत बड़ी भूल है जिसका अनुभव तो उसे हो रहा है लेकिन बदकिस्मती से उसकी अनुभूति नहीं हो रही। संगठन स्तर पर यह अवश्य सच हो सकता है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर जनता की नब्ज़-नब्ज़ में यह बात बैठा दी गई है कि कांग्रेस एक परिवार की पार्टी है और इसलिए सिर्फ इस एक परिवार का महिमामंडन, सिर्फ इन्ही का कवरेज, विपक्षी पार्टी की बात को ना केवल और अधिक मज़बूत करता है बल्कि जनता के दिल ओ ज़हन में कांग्रेस पार्टी की विश्वसनीयता पर सवाल भी खड़े करता है। हालाँकि गौर करें तो हम पाएँगे कि भाजपा का आई टी सेल भी केवल अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष और अपने शीर्ष नेता को ही कवरेज देता है लेकिन वह उनकी ताकत है। जनता मोदी-शाह को देखना चाहती है, गांधी परिवार को नहीं। बकौल अकबर अलाहाबादी (या प्रयागराजी) हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।
एक कुंठित और आत्ममुग्ध व्यक्ति से लड़ने के लिए कांग्रेस को चाहिए कि सबसे पहले वह खुद को गाँधी-मुग्धता से दूर करे। परिवार-प्रेम के अलावा राहुल गांधी का इस्तीफा देना और फिर उसके बाद एकदम चुप बैठ जाना, राफेल मुद्दे पर चूं तक ना करना, विभिन्न मुद्दों पर सिर्फ ट्वीट करना और संसद में अपना सा मुँह लिए बैठे रहना, कश्मीर जाना पर वहां से बिना किसी विरोध और रस्साकशी के वापस दिल्ली लौट आना और पार्टी का अपनी व्यर्थता और ना-उम्मीदी का प्रत्यक्ष प्रमाण देते हुए इतनी माथा-पच्ची और सस्पेंस के बाद फिरसे सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाकर, दल को और दस साल पीछे ले जाना जैसी अनगिनत गलतियों के बल पर ही आज कांग्रेस की यह गत हुई है। याद आते हैं दुष्यंत कुमार, जिनका शेर है कि “बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं, और समंदर के किनारे घर बने हैं”।
कांग्रेस को अपनी इस बिगड़ती छवि को संभालने का काम अपनी चाटुकारिता की प्रवत्ति को अलग रखकर पूरी सच्चाई, ईमानदारी और निष्ठा से करना होगा। नहीं तो उसका चुनाव चिन्ह (हाथ का पंजा) निकट भविष्य में दिल्ली के किसी ज़याबबखान (संग्रहालय) में रखा मिलेगा।
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