टीवी पर प्रसारित होने वाले न्यूज़ वाद-विवाद और तर्क के बीच उतनी ही दूरी है जितनी की धरती और आकाश के बीच है, हमारे और क्षितिज के बीच है और हमारे गृह और वीनस गृह के बीच है। काफी ज़ियादा। दोनों के दरमियान एक कभी ना मतरूक होने वाला बहुत बड़ा वक़्फ़ा है। इन वाद-विवाद में शामिल होने वाले कुछ वक्ताओं की पढ़ाई पर मुझे संदेह नहीं है। लेकिन उनकी बुद्धि पर ज़रूर है। ज़मीर पर ज़रूर है। बेतुकी और तर्कहीन बातों और संवादों की नदी में लगभग पूरे डूब चुके ये नेता, जानकार, वाइज़, अल्लामा मुल्क की आवाम को अक्सर उन मुद्दों पर इल्म परोसते, तक़रीर देते नज़र आते हैं जिनका इल्म खुद इन्हें नहीं है। ऐसे ही गैर-ज़िम्मेदार और जाहिल लोगों के नाम ये नज़्म। जिसका मौज़ू है - "राष्ट्रप्रेम"
राष्ट्रप्रेम।
बच्चा बोला बाबा से, तिरंगे को देखकर -
एक झंडा पन्नी का,
एक झंडा पन्नी का,
हल्का सा और छोटा सा
वो टँगा है उस दुकान पर,
दिलवा दो ना बाबा।
हरा, सफ़ेद, नारंगी
तीन-तीन पट्टी वाला
वो और उसका नीला चक्का
दिलवा दो ना बाबा।
"आज 5 रूपए का एक है, सर"
दुकानदार ने कहा
कल अगस्त 15 है, दस का एक मिलेगा,
बच्चे की भी ज़िद है,
दिलवा दो ना बाबा।
ये सुनकर फिर बाबा बोले -
चल दे दे दो-चार,
ये ले बीस रूपए।
बच्चा ख़ुश तो हम भी ख़ुश,
झंडा-वंडा क्या चीज़ है?
बाबा! बाबा! बाबा!
ये तीन-रंग का क्यों है?
बाबा! बाबा! बाबा!
ये चक्का नीला क्यों हैं?
ये डंडी इसमें जो हैं,
ट्वेंटी फोर ही क्यों हैं?
दिलवा दिया ना तुझको झंडा,
जा जाकर के खेल इससे,
बे-कार सवालों का वक़्त नहीं है,
बहुत बिज़ी हैं बाबा तेरे
खूब खेला झंडे से बच्चा
फिर बोर होकर फेंक दिया
और कई ला देंगे बाबा,
5 का एक तो मिलता है।
आजकल उस जैसे कुछ,
बच्चे टीवी पर आते हैं,
और स्क्रीन के पीछे बैठ,
आवाम को बतलाते हैं -
आवाम को बतलाते हैं -
कि क्या है राष्ट्र? क्या है राष्ट्रध्वज,
राष्ट्र-गान और राष्ट्र-प्रेम?
बहुत पहले लिखी एक कविता जिसका ख्याल बहुत जाना-माना और पहचाना हुआ है। इसे आप बचकाना और अपरिपक्व कह सकते हैं लेकिन यकीन मानिये यह कविता झूठी और मात्र शब्दों की तुकबंदी नहीं है। उन्वान है - "वन डे मातरम"
वन-डे-मातरम।
गणतंत्र है, स्वतंत्र है,
है देश यह सबका।
आते इसमें धर्म सारे,
हर जात, हर तबका।।
मुल्क-परस्ती, देश-भक्ति।
हम सभी में है।
फिर ना-जाने क्यों यह देश,
आवारगी में है?
सिर्फ दो तारिख क्यों,
देश-भक्ति का सबब बनीं?
एक है पंद्रह अगस्त।
और दूजा छब्बीस जनवरी?
रोज़ ही रोता है देश,
फ़िर एक दिन क्यों आँखें नम?
दिल से बोलो, सारे बोलो,
वन डे- वन डे मातरम।।
दिल से बोलो, सारे बोलो,
वन डे- वन डे मातरम।।
एक दिन की ये नज़्म है।
एक दिन की बातें हैं।
आज हैं बस यहाँ उजाले,
कल से फ़िर वही रातें हैं।।
गौर से गर सोच लें,
हम सारे धोखेबाज़ हैं।
क्या यही "हम लोग" रहेंगे।
दिख रहे जो आज हैं।।
छोड़ो कसमें-वसमें खाना,
खा लो थोड़ी सी शर्म।
दिल से बोलो, सारे बोलो
वन डे, वन डे मातरम।।
दिल से बोलो, सारे बोलो,
वन डे- वन डे मातरम।।
राष्ट्र-ध्वज के तीन रंग,
देते हमें हिदायतें।
यह भी हैं उतनी ज़रूरी,
जितनी प्रार्थना, आयतें।।
सफ़ेद कहता अम्न रखो और
साथ दो सच्चाई का।
पर सारे झूठे हैं मज़े में,
सच मोहताज पाई-पाई का।
केसरिया करता है बात,
हिम्मत की, कुर्बानी की।
ये बातें सारी लद चुकी हैं,
उम्र हो चुकी "जवानी" की।।
हरा निशानी समृद्धि का।
देता विविधता का ज्ञान है,
पर हमको इससे क्या फर्क,
हम तो हिन्दू-मुसलमान हैं।।
लहरा रहे यह रंग हवा में,
इन्हें मन में अब फहरा लें हम।
दिल से बोलो, सारे बोलो,
वन डे-वन डे मातरम।।
दिल से बोलो, सारे बोलो,
वन डे- वन डे मातरम।।
हर मसाइब, हर अज़ाब ओ,
हर ज़ख्म का मरहम है।
हम निहत्थे हैं मगर,
इन हाथों में कलम है।।
रूढ़िवादी खंजरों पर,
चल जाने दो अब यह कलम।
दिल से बोलो, सारे बोलो,
वन डे-वन डे मातरम।।
दूसरों की राह तको क्यों?
ख़ुद ही करदो ना पहल।
क्या बन सका है एक दिन में,
घर, इमारत या महल।।
चलो राष्ट्र-निर्माण में बढ़ाएं।
छोटे छोटे से कदम।
दिल से बोलें, सारे बोलें,
वन डे-वन डे मातरम।।
दिल से बोलें, सारे बोलें,
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