Sunday, 7 July 2019

जीना यहां, मरना यहां।



मुंबई में अपने बहुत छोटे से फ्लेट की बड़ी सी खिड़की के बाहर जुलाई को बरसता देख रहा हूँ। किसी घरेलु शॉवर की तरह पानी बहुत धीरे बरस रहा है और दरीचे पर लगी लोहे की मोटी जाली से यह द्रश्य देखने पर लगता है मानो बारिश जाली के उस तरफ कैद है और मैं उसके इस तरफ। मेरे सामने खिड़की है और खिड़की के सामने बारिश। बारिश के उस तरफ एक और खिड़की है जिसके पीछे एक बूढी औरत को किचन में खाना बनाते देख पा रहा हूँ। वह जल्दी में नज़र आ रही है। उसके हाथ चूल्हे पर रखी कढाई और कूकर के बीच इतने तेज़ चल रहे हैं कि यह बता पाना कठिन है कि पहले चावल बन जाएंगे या फिर सब्ज़ी। संभवतः वह अपने काम पर जा रहे पति या बेटे/बेटी के लिए टिफिन बॉक्स तैयार कर रही है। और इसलिए ही वह इतनी उजलत में है।

धीमे बरसते पानी के पीछे घटता यह द्रश्य देखते हुए जापानी फिल्म निर्देशक अकीरा कुरोसावा और उनकी फिल्म रोशोमोन याद आ जाती है। एक औरत को जल्दी में टिफिन बॉक्स तैयार करता देख दिमाग में रितेश बत्रा की दी लंच बॉक्स कौंध उठती है। खुद को इस छोटे से फ्लेट में अकेला पाकर दिमाग, विक्रमादित्या मोटवानी की फिल्म ट्रैप्ड के एक्सट्रीम क्लोज़ अप शॉट्स दिखाने लगता है। दरीचे के बाहर बरस रही मद्धम बारिश को गौर से देखने पर बासु चटर्जी की मंज़िल का लता ताई द्वारा गया गीत “रिमझिम गिरे सावान सुलग-सुलग जाए मन, भीगे आज इस मौसम में लगी कैसी ये अगन” कानों में बजने लगता है। इस ही रिमझिम बारिश के रफ़्तार पकड़ने पर लता ताई का ही मन्ना डे संग गाया गीत जो कि राज कपूर की श्री 420 के लिए शंकर दास केसरी लाल उर्फ़ शैलेन्द्र ने लिखा था मेरी ज़ुबान पर अपने आप चढ़ जाता है। “प्यार हुआ, इकरार हुआ है...प्यार से फिर क्यों डरता है दिल”।

तेज़ बारिश में खिड़की से नीचे झाँकने पर बहुत से लोग सर पर छाता, बरसाती या फिर कोई पन्नी लगाए दौड़ते-भागते दिखाई देते हैं। इस दौड़-भाग में किसी एक अंजान लड़के को गर्दन झुकाए बिना छाते या बरसाती के, बारिश से बचने के लिए एक ओट या एक छत तलाशते देखता हूँ तो अमोल पालेकर अभिनित फ़िल्म घरोंदा का वो गीत जिसे गुलज़ार साहब ने बुना है दिल से निकलकर लबों तक आ जाता है और तब मैं अपनी बेसुरी आवाज़ में गुनगुनाता हूँ “एक अकेला इस शहर में, रात में और दोपहर में, आब-ओ-दाना ढूंढता है, एक आशियाना ढूंढ़ता है”। भागते-घबराते लोगों के बीच एक जवान लड़की को भीगते हुए अपने रस्ते जाते देख रहा हूँ। वह बेफिक्र नज़र आ रही है। उसके हाथ में छाता है लेकिन वह उसे खोल नहीं रही। उल्टा वह अपनी गर्दन ऊपर उठाकर बरसते हुए पानी को अपने बालों, लबों, गालों और उसमें बन रहे भवरों में भर रही है। उसकी हर मुस्कान पर पानी को, और तेज़ होते हुए देख रहा हूँ। वह गर्दन ऊपर उठाए, बिना रास्ते पर ध्यान दिए आगे बढ़ रही है। तभी अचानक मैं उसे एक लड़के से टकराते हुए देखता हूँ। उस ही लड़के से जो कि बिना छाते या बरसाती के बारिश से बचने के लिए एक ओट या एक छत तलाश रहा है। वह दोनों आपस में टकराते हैं, लड़की अपनी गर्दन नीचे करती है, लड़का अपनी गर्दन ऊपर उठाता है और उनकी आँखें मिल जाती हैं। यह देखकर मैं खिड़की से पीछे हट जाता हूँ और फिल्म चलती का नाम गाड़ी के एक गीत के शब्दों को मन ही मन पढ़ना शुरू कर देता हूँ – “एक लड़की भीगी-भागी सी, सोती रातों में जागी सी...मिली एक अजनबी से, कोई आगे ना पीछे, तुम ही कहो ये कोई बात है...”

सड़क पर चलती साइकिल को देखकर इटेलियन फिल्म “बायसाइकिल थीव्स” की याद आती है तो टैक्सी को देखकर रॉबर्ट डी नीरो की “टैक्सी ड्राईवर” की। जहाँ देखता हूँ, जिसे देखता हूँ कोई ना कोई फिल्म या उससे सम्बंधित कोई द्रश्य आँखों के सामने तैरने लगता है। जैसे सबकुछ जुड़ा हो। लिंक्ड हो। इंटरडिपेंडेंट हो। एक द्रश्य से दूसरा द्रश्य, एक गीत से दूसरा गीत, एक फिल्म से दूसरी फिल्म, एक किरदार से दूसरा किरदार। एक दुनिया से दूसरी दुनिया जैसे कि सिनेमाई और असल।
 
इसी बीच बारिश थम गई है। और अब बारिश के उस तरफ मौजूद खिड़की में कोई दिखाई नहीं दे रहा। ना औरत, ना कढाई, ना कूकर। कानों में पंछियों की मुख़्तलिफ़ आवाज़ें सुनाई पड़ रही हैं और खिड़की के उस तरफ इमारतों पर हल्की धूप की चादर बिछ गई है। मैं अभी भी जाली के इस तरफ कैद हूँ लेकिन उस तरफ का कैदी बदल चुका है। अब उस तरफ बरसात की जगह धूप कैद है।

जाली के इस तरफ बैठे हुए असल दुनिया के नज़ारों, घटनाओं, प्रसंगों में सिनमाई संसार को खोजते और उसे कागज़ पर उतारते हुए मैं गुनगुना रहा हूँ “जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ....जी चाहे जब हमको आवाज़ दो, हम हैं वहीँ, हम थे जहाँ....अपने यहीं दोनों जहाँ...इसके सिवा जाना कहाँ...जीना यहाँ, मरना यहाँ”

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2 comments:

  1. बहुत सुँदर! 💕✨💓 सिनेमा की दुनिया का सफ़र कर लिया मैंने इस लेख में! और सबसे सुँदर बात क्षण भर के लिए मेरा लेख से दूर जाने को जी नहीं करा! उसको पढ़ते वक्त सारे दर्शय आँखों के सामने थे मानो! 🙌✨💕🙌

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  2. वाकई क़ाबिले तारीफ़, वैसे यहाँ तो बरसात हो नहीं रही है, पर लेख को पढ़ लग रहा है कि मैं जुलाई वाली उस बरसात से भीग ठिठुर रहा हूँ... और मेरी उंगलियां ना चाहते हुए भी यह कमेंट लिख रही है।

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