Wednesday, 29 May 2019

सबसे पुराने दल में नयेपन की आवश्यकता।



1885, अर्थात देश की स्वतंत्रता से भी 62 साल पहले कांग्रेस पार्टी की स्थापना हुई थी। ए. ओ. ह्यूम और दादा भाई नारोजी से लेकर महात्मा गांधी और मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद तक और जीवटराम कृपलानी से लेकर जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल तक कांग्रेस पार्टी ने ना-जाने कितने नायक, कितने अध्यक्ष, कितने कार्यकर्ता देखे। स्वतंत्रता संग्राम देखा, बंटवारा देखा, दुनिया का सबसे बड़ा विस्थापन देखा और भारत को इक्कीसवीं सदी में कदम रखते भी देखा।

क्या विडम्बना है कि देश की सबसे पुरानी, सबसे शुरुआती राजनीतिक पार्टी को आज पूरे देश की लोकसभा में 60 से भी कम सीटें हासिल हैं। 23 मई 2019 को जब भारत की सत्रहवी लोकसभा के गठन के लिए हुए चुनावों के नतीजे आए तो कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर आखिरी पंक्ति के कांग्रेसी तक के पांवों तले जमीन खिसक गई। 2014 में मात्र 44 सीटों पर सिमटने वाली कांग्रेस पार्टी पांच साल बाद भी सिर्फ़ 8 ही सीटों का इज़ाफ़ा देख सकी। जबकि कुछ ही माह पूर्व इसी पार्टी ने मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगड़ में अपनी सरकारें बनाई थीं। कांग्रेस अध्यक्ष खुद अपनी पारिवारिक एवं पारंपरिक सीट, अमेठी से हाथ धो बैठे। गुना के महाराज कहे जाने वाले गद्दावर नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने दम्भ के चलते एक लाख से भी अधिक वोटों से हारे तो राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेटे जोधपुर से चुनाव हार गए। उत्तराखण्ड के पूर्व सी.एम. हरीश रावत चुनाव हार गए, मल्लिकार्जुन खड़गे हार गए, पृथ्वीराज चव्हाण हार गए, दिग्विजय सिंह हार गए, सुशील कुमार शिंदे और शिला दीक्षित भी हार गए। ठीक 2014 की तरह 2019 में भी मोदी जी के तूफान के आगे कांग्रेस के बड़े-बड़े और बोसीदा दिग्गज नतमस्तक हो गए।

चुनाव नतीजों के ठीक बाद जब देश के इस सबसे पुराने दल की बैठक हुई तो अध्यक्ष पद पर आसीन राहुल गांधी ने इस्तीफे की पेशकश कर दी जिसे कि नियमानुसार पार्टी की कार्यकारी समिति ने ना-मंज़ूर कर दिया। अटकलें लगाई जा रही हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष कुछ स्थानीय नेताओं से नाराज़ हैं और इस्तीफा देने पर अड़े हुए हैं। सूत्रों के मुताबिक वे ना अशोक गहलोत से मुलाकात कर रहे हैं, ना सचिन पायलट से और अहमद पटेल, केसी वेणुगोपाल एवं रणदीप सुरजेवाला के अलावा ना ही कांग्रेस के किसी और नेता से। नाराज़गी जाहिर है और वाजिब भी लेकिन क्या कांग्रेस पर आया ये संकट देश के लोकतंत्र के लिए संकट नहीं है? मेरी नज़र में हां, यह एक संकट है। क्योंकि अगर विपक्ष लगातार कमज़ोर, और कमज़ोर होता चला गया तो सत्ताधारी दल को बिना किसी रोक-टोक, बिना किसी अंकुश के अपनी मनमानी करने की शह मिल जाएगी और यह बात कम से कम मेरे हिसाब से तो एक प्रजातान्त्रिक देश के लिए बिल्कुल सही नहीं है।

कांग्रेस की हार का एक बहुत बड़ा कारण वर्तमान सत्ताधीश की लोकप्रियता और मज़बूत छवि अवश्य है लेकिन यह कांग्रेस की इतनी बुरी हार का कारण नहीं है। अपनी बुरी हार की ज़िम्मेदार कांग्रेस स्वयं है। देश के सबसे पुराने दल के साथ समस्या ही यह है कि यह आज भी नयेपन में विश्वास नहीं कर पा रहा। कांग्रेस कार्यकारी समिति में आज भी इंदिरा गांधी के वक़्त के नेता बैठते हैं जो कि अपने आप में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर सवाल खड़े करता है। मसलन मोतीलाल वोहरा, हरीश रावत, सिद्धआरामय्या, अशोक गहलोत, मल्लिकार्जुन खड़गे, मनमोहन सिंह, ओमान चंडी आदि जैसे नेता, जो कि देश की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता और ज़रूरत दोनों को पूरी तरह से खो चुके हैं ना-जाने क्यों आज भी पार्टी में अपने पद पर जोंक की तरह चिपके हुए हैं। 2018 में हुए विधानसभा चुनावों में जीत के बाद कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाया, ना कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को और राजस्थान में सचिन पायलट जैसे युवा और तेज़-तर्रार नेता के स्थान पर अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाया गया। गौरतलब है कि इन दोनों नेताओं के नेतृत्व में कांग्रेस संयुक्त रूप से सिर्फ एक सीट (छिंदवाड़ा) ही जीत सकी।

अगर हम भाजपा का रुख करें तो हम देखेंगे कि नितिन गडकरी से लेकर राजनाथ सिंह और फिर अमित शाह तक पार्टी में निरन्तर संगठन स्तर पर बदलाव हुए और पार्टी ने बड़ी चतुराई से लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह, सरताज सिंह और बाबूलाल गौर जैसे उम्रदराज़ नेताओं को मुख्य धारा की रजनीत से अलग कर दिया। ऐसा कर के भाजपा ने अपनी एकजुटता और संगठन से ऊपर कोई नहीं की अपनी बात को मजबूती से जनता के सामने रखा। और फिर इसके बाद प्रधानमंत्री मोदी की राष्ट्रीय लोकप्रिय छवि और बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद राष्ट्रवाद का मुद्दा ही भाजपा के लिए चुनावों में 303 सीटों वाली प्रचंड जीत हासिल करने के लिए काफी था।

पिछले 120 सालों की अपनी सबसे बुरी स्थिति में आ चुकी कांग्रेस को चाहिए कि अपने संगठन को पुनर्गठित करे और उम्रदराज़ कांग्रेसियों को चाहिए कि आत्ममंथन कर स्वयं अपने विवेक से पार्टीहित के लिए इस्तीफा दें। रही बात राहुल गांधी के इस्तीफे की तो यह कांग्रेस पार्टी के लिए एक आत्मघाती कदम होगा। ऐसा करके राहुल गांधी ना केवल अपने बल्कि अपनी पार्टी के पांवों पर भी खुद कुल्हाड़ी मारने का काम कर देंगे। क्योंकि इतिहास गवाह है कि आज़ादी के बाद से जब-जब कांग्रेस ने गांधी परिवार से इतर जाकर किसी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया है तब-तब पार्टी में फूट पैदा हुई है। और अगर किसी कारणवश राहुल गांधी इस्तीफा देकर किसी और को अध्यक्ष बना भी देते हैं। तब भी भाजपा यह कहकर उन्हें घेरेगी कि - नया अध्यक्ष तो रिमोट कंट्रोल से चलता है इत्यादि इत्यादि। विपक्ष चाहे कुछ भी कहे लेकिन यह बात जगजाहिर है कि गांधी परिवार ही कांग्रेस पार्टी का मदरबोर्ड है, ठीक उस तरह जैसे कि संघ, भाजपा का है। बहरहाल इस बात में कोई दोराय नहीं कि कांग्रेस को आंतरिक तौर पर अपने संगठन में  विस्तृत फेरबदल की आवश्यकता है और इस फेरबदल के लिए राहुल गांधी की मौजूदगी अत्यधिक आवश्यक।

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