Saturday, 18 May 2019

प्रेम-कहानी।



नई कहानियों की तलाश में हम इतने आगे निकल आए हैं कि हमें वो किस्से और कहानियां याद ही नहीं आतीं जिनके हिस्से हम में थे और जिनके हिस्सों में हम। खुद को कम, बहुत कम आंकने की हमारी आदत ने हमें हमेशा दूसरों की कहानी कहने पर मजबूर किया है। हमने कभी खुद को नायक नहीं माना। और ना सोचा। सोचते तो शायद हो जाते। लेकिन हम नहीं हो सके। असल में कहानियों की तमाम नस्लों में वही कहानियां सबसे श्रेष्ठ हैं जिनमें हम पूरी ईमानदारी के साथ खुद को लिखते हैं। और प्रेम-कहानियों में तो ऐसा करना लगभग अनिवार्य हो जाता है। अरे! आखिर आप कैसे जान सकते हैं कि किसी को किसी से कितना प्यार है? सच्चा प्यार है? या झूठा प्यार है? दिल का प्यार है? या ज़हन का प्यार है? और अगर जान नहीं सकते तो लिख कैसे सकते हैं?

किसी भी युवा की प्रेम-कहानी की शुरुआत उसके स्कूली दिनों में ही होती है। स्कूल का प्रेम असल में वह बला है जिसे ना आप कभी भूल पाते हैं और ना ही कभी गंभीर रूप से उसका ज़िक्र कर पाते हैं। आप बस उसे बचपना कहकर टाल देने में अपनी समझदारी समझते हैं। लेकिन हक़ीक़त में स्कूल की मुहब्बत रह-रहकर याद आती है। वो याद आ जाती है स्कूल की लाइब्रेरी देखकर, क्लासेस देखकर, चाट के ठेले देखकर, शहर के पुराने आइसक्रीम पार्लर देखकर और वो गाने सुनकर जो उस वक़्त आपके दिल-ओ-दिमाग पर ठीक उस तरह सवार रहते थे जैसे चेतक घोड़े पर महाराणा प्रताप। स्कूल के दिनों को याद करें तो मालूम पड़ता है कि - "हम भी कभी नायक थे। अपनी खुद की कहानी के नायक। जो कि अजेय था, सबसे तेज़ था, चुस्त था, पुर-जमाल था। लेकिन सिर्फ़ अपनी कहानी में।"

एक रोज़ शाम की कोचिंग के लिए आनन-फानन में तैयार होकर मैं अरुण के यहां पहुंचा। अरुण, गोरा चेहरा, छोटा कद, पतली-काली घुंघराली दाढ़ी और काले-झबरीले बाल। अरुण शक्ल से युवा और अक्ल से बच्चा था। वह मेरे सबसे करीबी दोस्तों में से एक था और हम रोज़ शाम ठीक साढ़े चार बजे उसके यहाँ से ही कोचिंग के लिए रवाना होते थे।

"अरुण....आ जाओ" मैं चिल्लाया।

"आ रहे" उसकी आवाज़ पूरे घर में दौड़ते हुए मेरे कानों तक आई।

मैंने उसके घर का मैन गेट खोला और भीतर जाकर ओटले पर बैठ गया। अपने बैग से "क्षितिज" नामक किताब निकाली और एक अफसाना पढ़ने में मसरूफ हो गया। एक वक्त ऐसा भी था जब खाली रहने पर जेब से मोबाइल नहीं, बैग से किताब निकलती थी। मैंने गहरे लाल रंग की हाफ टी-शर्ट पहन रखी थी। आधे से ज़्यादा हाथ नंगा था। मैं किताब में व्यस्त था कि तभी अरुण की माँ वहां आ गईं।

"ये हाथ पर क्या गुदा है?" उन्होंने सन्देह भरी आवाज़ में पूछा। 

"क.. क..क्या, कहाँ अंटी?" मैं अक्टूबर की शाम में पसीना से तर हो गया। उनका इशारा मेरे दाहिने हाथ पर गुदे "A" पर था। बे-तरतीब और सुर्ख "A" पर। 

"हाथ पर और कहां पर" उन्होंने मेरी घबराहट भांप ली। 

"कहाँ?...अच्छा ये" मैं मुस्कुराया और अपना स्वेद भरा चेहरा उनकी तरफ मोड़ दिया। 

"हाँ यही" वे भी मुस्कुरा दीं। हालांकि हम दोनों की हंसी में फ़र्क़ था। मेरी मुस्कान जहां घबराहट की पैदाइश थी वहीं अरुण की माँ की मुस्कान से व्यंग्य और एक ग़ज़ब की ख़ुशी टपक रही थी। ठीक वैसी खुशी जैसी एक दरोगा के चेहरे पर चोर को पकड़ लेने के बाद आती है और एक प्लम्बर को लीकेज तलाश लेने के बाद हासिल होती है।

"अरे! अंटी, बड़ी लम्बी कहानी है" मैं लगातार मुस्कुरा रहा था।

"अरुण जल्दी आ....रोज़ रोज़ लेट करवा देता है" मैंने अंटी से नज़रें फेरते हुए घर के भीतर आवाज़ लगाई।

"रोज़ तू लेट करवाता है, आज मैं करवा रहा हूँ.....जैसी करनी, वैसी भरनी....जो बोओगे, वही काटोगे....बोया बीज बबूल का तो आम कहाँ से होए" अरुण ने एक के बाद एक वो सारे मुहावरे कह डाले जो उसने पिछले दस सालों से हिंदी की किताबों में पढ़े थे। वह बाहर आ गया और जूते पहनते हुए बोला - "चल, बैठा क्या है"

"वो अंटी को इस "A" की कहानी सुनाने बैठ गया था" मैंने अपना दाहिना हाथ अरुण की ओर कर दिया।

वह एकदम रुक गया। कुछ देर चुप रहने के बाद उसने फिर बोलना शुरू किया। इस बार उसका संबोधन अपनी माँ को था।

"आप भी कहाँ इसकी पंचायत में पड़ रही हो। इधर उधर की बातें करते हुए आखिर में एक बड़े ही छोटे और भद्दे निष्कर्ष पर पहुंचेगी इसकी कहानी। लगेगा कि ये होगा, वो होगा और अंत में कुछ नहीं मिलेगा। "खोदा पहाड़ और निकला चूहा" बस यही बोलती नज़र आएंगी आप। इसलिए इसे सुनना बंद कीजिए" अरुण ने अपने शू लैस बांधे और मेरे कंधे पर अपना हाथ मारते हुए चलने का इशारा किया। मेरी जान में जान आ गई। मैंने राहत की सांस ली और अरुण के पीछे हो लिया।

"बैंडेज कहाँ गई, साले?" अरुण चिढ़ गया।

"क्या बताऊँ यार, वो मैंने...."

"बाद में बाद में, अभी चल यहां से" अरुण ने मुझे टोका और हम आगे बढ़ गए।

अंटी जी ने अपने होंठ भींच लिए और कुछ बड़बड़ाते हुए घर के भीतर चली गईं। एक कहानी जो मैं किसी को नहीं सुनाना चाहता था मुझे नहीं ही सुनानी पड़ी। उस दिन मैंने अरुण को शाम की चाय के साथ-साथ शहर के मशहूर समोसों का नाश्ता करवाया।

दरअसल मेरे दाहिने हाथ पर गुदा वह "A" अन्वी का "A" था। उसके नाम का पहला अक्षर। स्कूल के प्यार के बारे में जो बहुत सी बातें मैंने कही हैं उनमें एक बात और शुमार है। और वह यह कि स्कूल का प्यार कभी भी, किसी भी सूरत में होता नहीं है, करवाया जाता है। बोल-बोलकर, छेड़-छेड़कर, दिखा-दिखाकर। असेंबली में आपकी नज़र किसी पर ठहरी और उस ठहरी नज़र पर ठहर गए आपके दोस्त। बस, हो गया काम तमाम, खेल ख़त्म, इश्क़ शुरू। आपके दोस्त आपको उस लड़की, जिसपर आपकी नज़रें रुकी थीं का नाम ले-लेकर ना चाहते हुए भी आपका ध्यान उसपर लगवा देंगे। और ध्यान लग जाने के बाद दिल लगने में वक़्त ही कितना लगता है? स्कूली दिनों में इश्क़ तो आपका होता है लेकिन पंचायत पूरी गिरमिट की होती है।

अन्वी को पहली बार मैंने दिसंबर की सफेद ठंड में देखा था। छोटी सी कद-काठी और चाल में एक फुर्ती। ठंड में उसका गोरा चेहरा किसी सेब की तरह लाल नज़र आ रहा था। मैं अपनी क्लास के उन बच्चों में से था जो हर जगह आगे रहते हैं। असेंबली की लाइन में आगे, क्लास की बेंचेस में आगे, पढ़ाई में आगे, टीचर्स के मनपसन्द बच्चों की फेहरिस्त में आगे और बस हर जगह आगे। स्कूल के यही अगेड़ी बच्चे अनिवार्य तौर पर दो चीजों में पीछे रहते हैं - "अव्वल तो बे-फिक्र हो कर मज़े मारने में और दूसरा लड़कियों से करीबियां बढ़ाने में" लेकिन हमारी तो साली जात ही अलग थी। हमें पढ़ाई में आगे रहकर माता-पिता को भी खुश करना था और इश्क़ में आगे रहकर खुद को भी। सो हम दो एकदम विपरीत दिशा में बह रही नावों पर सवार हो गए।

डरता,घबराता, सहमा हुआ सा मैं कई महीनों तक ऐसा ही डामाडोल जीवन व्यतीत करता रहा। दोनों में से किसी भी नाव को छोड़ने का मन नहीं करता था, यह जानते हुए भी एक रोज़ जब किसी एक नाव की रफ्तार तेज़ होगी तो मैं अपने पूरे शरीर और भावनाओं सहित पानी में गिर जाऊंगा। और गिरकर डूबुंगा नहीं, तैरने लगूँगा। डर इस बात का कम था कि मैं गिरूंगा, इस बात का ज़्यादा था कि गिरकर डूबुंगा नहीं, तैरने लगूँगा। डूब जाना अर्थात सब ख़त्म, परेशानी समाप्त। लेकिन तैरते रहना मतलब, किनारे पर पहुंचने तक लगातार लहरों के थपेड़े झेलते रहना।

अन्वी नाम की नाव इतनी खूबसूरत थी कि स्कूलभर के लड़कों को चाहिए थी। और जब उसकी पतवार मेरे हाथ में आ गई तो सारे के सारे लोग मेरे खिलाफ हो गए। आते-जाते ताने कसते, डराते। याद दिलाते कि मेरा लक्ष्य तो स्कूल टॉप करना है,  लड़कीबाज़ी करना नहीं। मैं बहुते बार उनकी बातों में आ जाता और अपना पाँव उस नाव पर से उठाने लगता जिसपर बड़े ही प्यारे शब्दों में लिखा हुआ था - अ , न्, वी। यह तीन अक्षर उस समय मेरे जीवन के सबसे सुंदर अक्षर थे। अपनी हर कॉपी के पीछे, बुक के आखिरी सफ़हे के नीचे। डेस्क पर और कवर्ड में, कवर पर और रबर में। हर जगह यही तीन अक्षर थे। जिन्हें मैंने ही खोदा या लिखा था।

सितम्बर के आखरी दिनों में हम कोचिंग जल्दी जाया करते थे। हाफ-इयरली एग्जाम्स नज़दीक थे और इसलिए एक्सट्रा-क्लासेस, जिनमें यकीन मानिए कभी कुछ एक्स्ट्रा नहीं होता, का दौर जारी था। ठंडे दिनों की शुरुआत हो रही थी और घरों में रजाई-कम्बल निकलने लगे थे। एक शाम कोचिंग में मैं अपने दोस्त आकाश के साथ अकेला था। अरुण की तबियत जाड़े की आमद के साथ ही खराब हो गई थी और इसलिए वह सिक-लीव लेकर घर पर बैठा था। आकाश मेरे साथ मेरे ही स्कूल में पढ़ता था और लड़कियों से जुड़े मामलों का एक्सपर्ट माना जाता था। उसने ही मुझे इस बात का एहसास करवाया था कि मुझे अन्वी से मुहब्बत है और इस उम्र में ऐसा सब होना आम बात है। "जीवन भर डरते रहोगे, यदि डरोगे अब। इश्क़ करो तो अभी करो, वरना करोगे कब?" यह उसके विद्यार्थी जीवन का मूलमंत्र था। कोचिंग क्लास में सिर्फ मैं और आकाश थे। आकाश बीच वाली बेंच पर बैठकर कुछ सोच रहा था और इसलिए मैं अंतिम बेंच पर बैठकर अपनी कॉपी में लिखा "अन्वी" पढ़ रहा था। बार-बार जैसे बार-बार पढ़ने से अक्षर अन्वी में तब्दील हो जाएंगे। जब हम कहते हैं कि - कुछ भी ना-मुमकिन नहीं है तो हमें ज़रा गहराई से सोचना चाहिए क्योंकि असल में बहुत कुछ ना-मुमकिन है। अचानक आकाश मेरे पीछे आकर खड़ा हो गया।

"ओहो! अपने प्यार का नाम दोहराया जा रहा है" उसने हंसते हुए कहा।

"अबे आकाश तू कब आया" मैंने कॉपी बंद करदी।

"बौरा गया है क्या? आधे घण्टे से यहीं हूँ मैं" उसकी हंसी रुक गई।

"मेरा मतलब यहां मेरे पीछे कब आया" मैंने समझाया।

"बस अभी ही लेकिन तेरी ऐसी हरकतें देख कर दिल दुख गया।" वह मेरे बगल में आकर बैठ गया।

"क्यों भाई, क्या हुआ? तूने ही तो कहा था कि इश्क़ करो।" मैंने अपनी आंखें उसपर गढ़ा दीं। 

"हाँ, इश्क़ करो लेकिन खुलकर, डरकर नहीं। अरे इश्क़ किया कोई चोरी नहीं की, छुप-छुप नाम को पढ़ना क्या? जब इश्क़ किया तो डरना क्या?" आकाश आवेश में आ गया। उसके अंदर का प्रेम-गुरु जाग गया था। 

"इस तरह से कॉपी-किताबों पर उसका नाम लिखने से कुछ नहीं होगा दोस्त, ये ले और गोद से उसका नाम अपने हाथ पर, बनजा सच्चा आशिक़। दिखा दे दुनिया को कि तू ही है 21वी सदी का रांझा, मजनू, रोमियो। ले और गोद दे" उसने अपने बैग में से एक डिवाइडर निकाला और मेरे हाथों पर रख दिया। 

"लेकिन क्या मजनू, रांझा वगैरह ने भी अपना हाथ गोदा था?" मैंने घबराते हुए पूछा। 

"अरे उन्होंने तो अपनी जान दे डाली, तू खून की दो बूंद नहीं दे सकता?" उसने सवाल दागा। उसकी आवाज़ खाली क्लास में गूंज उठी। मैं चुप था, एकदम चुप। 

"तू अन्वी को चाहता है या नहीं? बोल, चाहता है? करता है उससे इश्क़?" वह फिर बोल पड़ा।

".......हाँ....शायद! मतलब..." मैंने कुछ बिखरे हुए शब्दों में कहा, मैं झेंप रहा था। 

"तो बस कर साबित" आकाश ने मेरा दाहिना हाथ खींच कर डेस्क पर रख दिया। हम कितना कुछ साबित करना चाहते हैं या कहूँ कि हमें कितना कुछ साबित करना पड़ता है। किसी भी काम को करने में जितना वक़्त नहीं लगता उससे ज़्यादा तो उसे साबित करने में चला जाता है।

मैं जोश में आ गया और डिवाइडर को अपने दाहिने हाथ पर गड़ा दिया। "A" मैंने दर्द घोंटते हुए लिखा और फिर डिवाइडर को एक तरफ फेंक दिया। वह फिसलता हुआ क्लास के गेट की तरफ गया और किसी के पैर से टकराकर रुक गया। 

"अरुण, तेरी तो तबियत खराब थी?" आकाश ने गेट पर खड़े अरुण से पूछा। 

"हाँ तो अब ठीक हो गई" उसने कहा और ज़मीन पर पड़ा डिवाइडर उठा लिया। वह धीमी रफ्तार में चलता हुआ पीछे आया और आते ही चिल्लाया 

"अबे मादर...." उसका इशारा मेरे दाहिने हाथ पर गुदे "A" की तरफ था , लहूलुहान और बे-तरतीब "A" पर। 

"ये सब क्या है, तू पागल हो गया है क्या?" अरुण फिर चिल्लाया। 

"हाँ, ये अन्वी के प्यार में पगला गया है और आज इसने यह साबित भी कर दिया। वाह! जियो मेरे शेर" आकाश ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए मुझे शाबाशी दी। 

"भग्ग, साले...निकल इधर से, अभी के अभी निकल" अरुण एक और बार चिल्लाया। आकाश घबरा गया और वहां से नो दो ग्यारह हो गया।

मैं अपना हाथ पकड़े यह सब होता देख रहा था। आकाश के जाते ही अरुण उसकी जगह पर बैठ गया।

"ये सब क्या है? तू क्या समझता है इतना आसान है ये सब। अब घर पर क्या बोलेगा? ये निशान परमानेंट रह गया तो क्या करेगा? तुझे आई ए एस करना था ना? अब नही कर पाएगा, क्योंकि मेडिकल में ऐसे लोगों को निकाल देते हैं जिनके शरीर पर कोई आर्टिफिशियल निशान हो। गया तू और तेरा करियर" अरुण ने लम्बा भाषण दिया।

मेरे पांवों तले ज़मीन खिसक गई। अन्वि से मुझे लगाव था लेकिन उस वक़्त आई ए एस मेरा पहला प्यार था। मैं घबरा गया और अरुण से मदद मांगी। बहुत सोचने के बाद वह उठा और बिना कुछ बोले क्लास से बाहर चला गया। मैंने अपने हाथ पर एक रुमाल बांधा और उसके पीछे भागा। थोड़ी ही देर में हम एक मेडिकल के सामने थे। अरुण ने मेरे हाथ से रुमाल खोला और गुदे हुए  "A" पर एक बैंडेज लगा दी। 

"इसे लगाए रख, घाव भरने तक। घर पर बोलना की खेल-खेल में चोट लग गई" अरुण ने समझाया। मेरी घबराहट कुछ कम हुई। हम दोनों ने उस शाम की कोचिंग छोड़ दी और अपने अपने घर लौट गए। जिस अरुण को मैं अक्ल से बच्चा समझता था उसी अरुण की समझदारी की वजह से मैं बे-फिक्र होकर घर जा पाया। हम कितनी ही बार लोगों के प्रति एक धारणा बना लेते हैं, एक धारणा जो जब टूटती है तो दर्द देती है और कभी-कभी राहत भी। इस घटना के बाद मेरे दिल ओ दिमाग से प्यार का भूत लगभग उतर गया। अन्वी का प्यार इस हादसे तले दब गया, ठीक उस तरह जिस तरह मेरे दाहिने हाथ पर गुदा "A" एक बैंडेज तले दब गया था।

कुछ दिन बाद, अक्टूबर के शुरुआती दिनों में एक दोपहर जब मैंने अपने हाथ से वह बैंडेज निकाली तो पाया कि निशान वैसा का वैसा था। सूजन नहीं थी, लालपन नहीं था लेकिन वह "A" बना हुआ था, वैसा का वैसा। मैं हताश हो गया और अपना हाथ एक दीवार के सहारे रगड़ने लगा। मुझे लगा कि रगड़ने से निशान मिट जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उल्टा वह और उभर आया। लालपन जो खत्म हो चुका था, लौट आया। इश्क़ का विज्ञान ऐसा ही है- जितना मिटाने की कोशिश करो, उतना उभर कर आता है। मैंने सोचा कि शाम को कोचिंग में ही अरुण से इस बारे में बात करूँगा। उस निशान पर बैंडेज ना होना मुझे याद ही नहीं रहा। शाम होते ही मैं अरुण के यहां जा पहुंचा, और वहां पहुंचकर जो कुछ हुआ वह सब आप जान ही चुके हैं।

जो कहानी मैं किसी को नहीं सुनाना चाहता था आज खुद मैंने आप सभी को सुना दी। शायद इसलिए क्योंकि उस कहानी को रोककर नहीं रखा जा सकता, जिसका वक़्त आ गया हो, जिसे सुनाए जाने का समय आ गया हो खासकर के प्रेम-कहानियों का। प्रेम-कहानियों पर ठीक प्रेम की ही तरह किसी का कोई इख़्तियार नहीं होता। वे ख़ुद शुरू होती हैं और ख़ुद-ब-ख़ुद ख़त्म हो जाती हैं। जैसे मेरी और अन्वी की हो गई। अपने आप, ख़ुद ही, खुद से। आज मेरे दाहिने हाथ पर कोई "A" नज़र नहीं आता। बहुत गौर से देखने पर भी नहीं। और ना ही नज़र आती है अन्वी - शहर में, मोहल्ले में, स्कूल में, कहीं भी नहीं। सोचता हूँ कि उस वक़्त अगर हाथ पर "A" की जगह दिल में "Anvi" लिखा होता तो बात कुछ और होती, यह कहानी कुछ और होती लेकिन जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं - "प्रेम-कहानियों पर ठीक प्रेम की ही तरह किसी का कोई इख़्तियार नहीं होता।"

Keep Visiting!

2 comments:

  1. बेहद सुंदर और सुगठित लेखन के साथ ही काफ़ी रोचक एवं relatable कथावस्तु।
    पढ़ते पढ़ते कुछ भूले बिसरे किस्से ज़हन की दीवारों पर उभर आए।

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  2. बहुत ही सराहनीय... पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे ये मेरे साथ ही हुआ है।

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