मशहूर फिल्मी गीतकार और पटकथा लेखक जावेद अख्तर ने एक दफा किसी जगह यह कहा था कि फिल्में इंसानी ख़्वाबों की इबारत हैं। अगर हम उनके इस कथन पर सौ प्रतिशत ऐतबार कर लें तो हालिया फ़िल्म "ज़ीरो" को देखने, समझने में हमें किसी तरह की परेशानी नहीं आएगी।
तनु वेड्स मनु से लेकर रांझणा तक अपनी तमाम फिल्मों में यथार्थ परोसने वाले आनंद एल राय ने अपनी नवीनतम फिल्म ज़ीरो में कल्पना को अधिक तरजीह दी है। बउआ सिंह मेरठ के एक अमीर खानदान का बौना लड़का है जिसके सपने उसके कद से विलग बड़े और ना-मुमकिन प्रतीत होने वाले हैं। वह 38 की उम्र में कुछ नहीं करता, केवल प्रेम तलाशता है। उसकी यही तलाश उसे आफिया भिंडर से मिलवाती है जो कि नासा की एक मशहूर वैज्ञानिक है और सेरेब्रल पैलसी नामक बीमारी से पीड़ित है।
बउआ और आफिया किसी तरह आपस में घुल-मिल जाते हैं और उन्हें एक दूसरे से प्यार हो जाता है। कहानी में मज़ेदार और फ़िल्म का रुख बदल देने वाला मोड़ तब आता है जब बउआ अपनी पन्द्रह साल की क्रश जानी-मानी अभिनेत्री बबिता कुमारी से मिलता है। बबिता से मिलने के बाद वह क्या करता है, कहाँ जाता है, आफिया का क्या होता है, बउआ के परिवार का क्या होता है। इन सभी सवालों के जवाब फ़िल्म में हैं।
पटकथा मन बहलाती है लेकिन लेखक हिमांशु शर्मा की पूर्व में लिखी फ़िल्मों तक नहीं पहुंचती। संवाद भी अच्छे हैं परन्तु दर्शक सम्पूर्ण फ़िल्म के दौरान और अधिक की उम्मीद में बैठा रहता है। एक दृश्य में जब बउआ आफिया से मिलने जाता है और आफिया उससे पूछती है कि तुमने कैसे सोचा कि मैं तुमसे शादी करूंगी तो बउआ जवाब देता है कि "हमारे यहां प्लॉट देखने के पैसे थोड़ी लगते हैं, बस विंडो-शॉपिंग करने चला आया" उम्मीद है की फिल्म के अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक यह बात ज़रूर जानते होंगे कि प्लाट देखने के पैसे भले ना लगते हों लेकिन फिल्म देखने के लगते हैं। एक द्रश्य में बउआ अपने दोस्त गुड्डू (मोहम्मद जीशान अय्यूब) से पूछता है कि अमेरिका चलेगा? तो जवाब में गुड्डू कहता है कि "एक मुस्लिम का वीज़ा लगवा दे तो क्यों नहीं" तंज़ ओ मिज़ाह से भरे ऐसे ही संवाद फिल्म का ज़ायका बढ़ा देते हैं।
आफिया और बउआ के बीच लिखी गई सभी बातचीत सराहनीय हैं। अदाकारी की बात करें तो आफिया के किरदार में अनुष्का शर्मा ने अपनी क्षमता अनुसार काम किया है। ना-जाने क्यों उनका किरदार ही ऐसा है कि उसे बहुत अधिक पसंद नहीं किया जा सकता। कैटरीना कैफ ने बबिता कुमारी के किरदार में अपना अभी तक का सबसे बेहतर काम किया है। उनका किरदार फ़िल्म में सिर्फ़ एक कैटेलिस्ट की तरह है जो कि आफिया और बउआ के बीच हुए केमिकल रिएक्शन को और अधिक बढ़ा देता है।
तिग्मांशु धूलिया, शीबा चड्ढा, बिजेंद्र काला और मोहम्मद ज़ीशान अयूब ब-कमाल हैं और उन्होंने दर्शकों को मनोरंजन परोसने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मोहम्मद ज़ीशान अयूब इससे पहले फ़िल्म रईस में शाहरुख खान के साथ कास्ट किये जा चुके हैं। गौरतलब है कि आनंद एल राय उन्हें अपनी सभी फिल्मों में एक ज़रूरी किरदार से नवाज़ते हैं। श्रीदेवी, जूही चावला, आर माधवन, आलिया भट्ट, दीपिका पादुकोण, करिश्मा कपूर आदि के गेस्ट अपिरियंस ज़्यादा नहीं चौकाते और ना ही फ़िल्म में अहम भूमिका निभाते हैं।
निर्देशन में कसावट की कमी ज़रूर है लेकिन मनोरंजन की कोई कमी नहीं है। आनंद एल राय अपनी आनंदमई छवि को बरकरार रखने में कामयाब हुए हैं। बहरहाल फ़िल्म रांझणा के तौर पर जो बेंचमार्क उन्होंने स्वयं सेट किया है वे इस फ़िल्म के ज़रिए उसतक पहुंचने में असफल रहे हैं।
अंत में बात शाहरुख खान की। बउआ सिंह के किरदार में बहुत ही बेहतरीन और मनोरंजक नज़र आए शाहरुख दर्शकों को सबसे अधिक एंटरटेन करते हैं। फिल्म में उनके बातचीत करने का तरीका उन्हीं की फिल्म फैन के एक किरदार गौरव चांदना से बहुत हद्द तक मेल खाता है। उनकी चाल-ढाल, बात करने का तरीका, नाच-गाना, रोमांस सबकुछ उनकी छवि के अनुसार ही है। परेशानी यह है कि शाहरुख खान को सत्य और यथार्थ में पेश किया ही नहीं जा सकता। वे इस वास्तविक दुनिया के एक काल्पनिक शख्स हैं जिनको लेकर लार्जर देन लाइफ फिल्में बनती थीं , बनती हैं और बनती रहेंगी।
फ़िल्म के ओपनिंग एवं क्लोज़िंग सीन पर गौर करें तो अंततः यह फ़िल्म पूरी तरह से शाहरुख खान की फ़िल्म बनकर उभरती है। जिसका लेखन हिमांशु शर्मा और निर्देशन आनंद एल राय ने किया है। बहरहाल कुछ अत्यधिक इमोशनल और गैर-ज़रूरी मालूम होने वाले दृश्यों को छोड़ दें तो यह फ़िल्म एक बार ज़रूर देखी जा सकती है।
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