Monday, 14 May 2018

वतनपरस्ती की मिसाल: राज़ी।



बड़े और भव्य सिनेमाई पर्दे के सामने उसके नीचे या बगल में बने "एग्जिट गेट्स" बेहद छोटे और तुच्छ नज़र आते हैं। फ़िल्म के नाम पर मटरगश्ती या नितांत आराम करने आए लोग हर पांच मिनिट में इस गेट की ओर देखते हैं और इंटरवल में सबसे पहले वाशरूम भागते हैं। रसिक दर्शक पर्दे का एवं उसपर प्रदर्शित फिल्म का आनंद लेता है और उसे समझने के प्रयास करता है। गेट पर आँखें गढ़ाए बैठा शख़्स फिल्म बिना देखे ही उसे नकार कर उसे "बोरिंग" या "फ्लॉप" करार दे देता है। ऐसे लोग करिश्माई रूप से फिल्म में छोटी-छोटी गलतियां खोज लेते हैं और इसी बुनियाद पर उसका दुष्प्रचार करने लगते हैं।

मेघना गुलज़ार निर्देशित "राज़ी" सिनेमा घरों में खूब सराहना बटोर रही है। कुछ लोगों ने इसे अनरिअलिस्टिक बताते हुए कहा है कि "1971 में ऐसा कैसे हो गया?" या "ये चीज़ 1971 के पकिस्तान में कैसे आ गई?" गौरतलब है कि फिल्म की कहानी 1971 की भारत-पाकिस्तान जंग के इर्द-गिर्द रची गई है। ऐसे छोटे लॉजिक्स खोजने वाले लोग फिल्म की भावना से बहुत दूर चले जाते हैं यह कहना कठिन नहीं होगा।

एक निर्देशक के तौर पर गुलज़ार साहब का कथन कुछ यूँ है - "भाव हमेशा तर्क से ऊपर होते हैं"। ज़ाहिर है कि उनके इस कथन का असर उनकी बेटी के लेखन और निर्देशन में झलकता है। नीरज पांडे निर्देशित "धोनी" पर सवाल उठाए गए की "खड़गपुर स्टेशन, जिसका दृश्य फिल्म में है में स्टेशन पर प्लेटफॉर्म नम्बर आठ दिखाया गया है। जबकि वास्तव में वहाँ ऐसा कोई प्लेटफॉर्म है ही नहीं"। इस आरोप पर तंज कसते हुए एक स्टेंड अप कॉमेडियन ने यह कहा कि "यदि हम गौर से देखें तो पाएंगे कि फिल्म में महेंद्र सिंह धोनी भी नहीं है"।

बहरहाल आलिया भट्ट और विकी कौशल जैसे प्रतिभाशाली अदाकारों से सजी यह फ़िल्म जो की लेखिका हरिंदर चड्डा की किताब "कॉलिंग सहमत" पर आधारित है बॉक्स ऑफिस पर धूम मचा रही है। मैं हमेशा कहता रहा हूँ की साहित्य के बीजों से ऊगने वाला सिनेमा सदैव कारगर साबित होता है। फिल्म "हाफ गर्लफ्रेंड" इस फेहरिस्त में एक अपवाद है।

"राज़ी" सहमत, सहमत खान की कहानी है जो की दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली एक युवा लड़की है। उसके पिता हिदायत खान(रजित कपूर) भारतीय खूफिया एजेंसी में काम करते हैं और अपनी बेटी को एक जासूस बनाकर पाकिस्तान भेजने की योजना बनाते हैं। इसी योजना के तहत सहमत का निकाह इक़बाल सईद(विकी कौशल) से हो जाता है जो पाकिस्तानी सेना के ब्रिगेडियर(शिशिर शर्मा) के शहज़ादे रहते हैं। अब सहमत पाकिस्तानी सेना की बातें किस तरह हिंदुस्तान पहुंचाती है और इस प्रक्रिया में किन समस्याओं का सामना करती है यह सब देखने लायक है। फिल्म में जासूसी के गुरों का प्रदर्शन बखूबी किया गया है। रजित कपूर, जयदीप अहलावत और शिशिर शर्मा ने चरित्र भूमिकाएं निभाते हुए एक और बार अपनी अदायगी का लोहा मनवाया है।

पूर्व में निर्देशक मेघना गुलज़ार "तलवार" जैसी विचार-उत्तेजक फ़िल्म बना चुकी हैं। यह फिल्म नोयडा में हुए हाई-प्रोफाइल आरुषि-हेमराज हत्याकांड पर आधारित थी। तलवार से जुड़ा एक प्रसंग यूँ है कि जब मेघना गुलज़ार और निर्देशक विशाल भारद्वाज जो इस फिल्म के लेखक भी थे ने जब इस फिल्म की पटकथा गुलज़ार साहब को सुनाई तो उन्होंने निराश होते हुए कहा कि इस फिल्म में इमोशन्स नहीं हैं। वास्तव में लेखक-निर्देशक इस फिल्म में इमोशन्स चाहते ही नहीं थे।

इमोशन-लेस सिनेमा रचने के बाद मेघना गुलज़ार ने अब राज़ी बनाई है जो भावों से भरी हुई फिल्म है। एक बेटी के भाव अपने पिता के लिए, एक पत्नी के भाव अपने पति के लिए और सबसे ऊपर एक नागरिक या सैनिक के भाव अपने देश, अपने राष्ट्र, अपने मुल्क़ के लिए। बहुत सालों बाद एक अच्छी और दिल-सोज़ वतनपरस्त फिल्म दर्शकों के बीच आई है। यह फिल्म हिंदुस्तान या पाकिस्तान के लिए नहीं वरन राष्ट्र पर मर-मिटने वालों के लिए है। शंकर-एहसान-लॉय का म्युज़िक और गुलज़ार साहब के लफ्ज़ पूरी फिल्म की रूह हैं और इस बात को नकारा नहीं जा सकता। अंतिम दृश्य माहौल गमगीन कर देता है और ज़हीन दर्शक कुछ सवालों के जवाब खोजने में मसरूफ़ हो जाते हैं।

अपनी किताब "दो लोग" में गुलज़ार साहब ने ही लिखा है - "मगरूर तवारीख़ यूँ ही सर उठाए चलती है। नहीं देखती के नीचे क्या कुचल रही है। नहीं देखती के नीचे लोग हैं, आम लोग, हम लोग।"

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