वर्तमान में भारतीय सिनेमा रिमेक्स के दौर से गुज़र रहा है आए दिन किसी बोसीदा फिल्म का प्रदर्शन नए रूप में आज के कलाकारों के साथ किया जाता है. शरत चन्द्र चटोपाध्याय के चर्चित उपन्यास को आधार लेकर बिमल रॉय ने 1955 में देवदास बनाई जिससे प्रभावित होकर संजय लीला भंसाली ने 2005 में शाह रुख खान अभिनीत देवदास का निर्माण किया. काबिल-ए-गौर है की गुलाल, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर और हाल ही में आई मुक्काबाज़ जैसी उल्लेखनीय फिल्मों के निर्देशक अनुराग कश्यप ने 2009 में मॉडर्न देवदास की कहानी "देव-डी" नाम से कही। बंगाली सिनेमा और साहित्य ने सम्पूर्ण भारतीय सिनेमा पर गहरा प्रभाव छोड़ा है। गौरतलब है की बंगाल के प्रसिद्ध लेखक और निर्देशक सत्यजीत रे, दादा साहब फाल्के के बाद भारतीय सिनेमा में दूसरा सबसे बड़ा नाम है. उनकी कहानियों पर ना जाने कितनी फिल्में रची जा चुकी हैं।
कथन है की कुछ फिल्मों का रीमेक नहीं बनना चाहिए। कुछ फिल्म्स अपनी तरह की अकेली रचनाएँ होती हैं उन्हें दोबारा रचा जाना मुर्खता है। इस फ़ेहरिस्त में गुरुदत्त की प्यासा, अंग्रेजी फिल्म दी शॉशेंक रीडेम्प्शन, मर्लिन ब्रांडो अभिनीत दी गॉडफादर आदि शामिल हैं। शशांक खेतान द्वारा निर्देशित फिल्म धड़क इस वर्ष सिनेमाई परदे पर दस्तक देने को तैयार है। यह फिल्म नागराज मंजुले की अतुलनीय रचना सैराट की रीमेक है।
सैराट एक मराठी फिल्म थी जिसे देशभर के दर्शकों ने खूब सराहा नतीजन फिल्म ने 100 करोड़ का जादुई आंकड़ा पार किया। प्रमाणित होता है की सिनेमा की भाषा अन्य सभी ज़बानों से पार जाती है।
धड़क के निर्माता कुछ धनाड्य और नामी परिवारों के साहबजादों को दुनिया के सामने पेश करना चाहते हैं और
इसलिए एक अच्छी फिल्म की पटकथा पर हाथ आज़मा रहे हैं।
1959 में गुरुदत्त ने फिल्म कागज़ के फूल का निर्माण किया। इसी फिल्म का संवाद है की “केरेक्टर के लिए अदाकार को बदलना होता है, अदाकार के लिए केरेक्टर नहीं बदलेगा” संज्ञान है की पहले किरदार रचा जाता है और उसके बाद उसे अभिनीत करने वाले अदाकार की खोज शुरू होती है. वर्तमान निर्माता-निर्देशक गुरुदत्त को भुला चुके हैं जो भयावाह मालूम होता है। बहरहाल सिनेमा सियासत से प्रथक है। सियासत में जनता ही सर्वोपरी है नाम का जुमला केवल जुमला है मगर सिनेमा में यही परम सत्य भी है। कोई भी निर्देशक दर्शक को सिनेमाघर में जाने का आग्रह कर सकता है, निर्देश नहीं दे सकता है। निर्देशन के लिए उसकी ज़द में सिर्फ उसके कलाकार हैं। हालांकि मौजूदा दर्शक वर्ग अल्पग्य है और उसे आसानी से मुर्ख बनाया जा सकता है और बनाया जा रहा है। इसके पीछे कौन है बता पाना मुश्किल है। ज्योति स्वरुप निर्देशित बेहद चर्चित हास्य फिल्म “पड़ोसन” में भोला(सुनील दत्त) नामक किरदार बिंदु(सायरा बानो) नामक लड़की को अपने प्रेम जाल में फंसाना चाहता है और इसके लिए वह संगीत का सहारा लेता है. संगीत फिल्म निर्माण का अभिन्न अंग है और ज़ ज़हीन निर्देशक संगीत की बेहतरी के लिए हमेशा प्रयासरत रहते हैं। गुलज़ार का कथन है- हमेशा से संगीत पहले था। हमारे वेदों में कहा गया है के ब्रह्माण की स्थापना ही नाद से हुई है। भोला को गाना नहीं आता मगर उसके गुरु सत्यापति(किशोर कुमार) इस विधा में पारंगत हैं, गुरु-शिष्य मिलकर ये खेल रचते हैं की भोला सिर्फ मुंह चलाएगा और सत्यापति पीछे से गाना गाएगा। यही होता भी है और भोला बिंदु का दिल जीतने में कामयाब हो जाता है। वर्तमान में जिस संगीत पर हम मदमस्त हो कर नाच रहे हैं उसके असल निर्माता से आज भी अनभिग्य हैं। उत्पल दत्त और अमोल पालेकर अभिनीत, ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म गोलमाल में गुलज़ार ने गीत लिखा है “गोलमाल है भाई, सब गोलमाल है, सीधे रस्ते की ये टेढ़ी चाल है, गोलमाल है, सब गोलमाल है”
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