Sunday, 21 January 2018

ग़ज़ल | शिवेंद्र भनेरिया।


सिसकती ख़ामोश बेज़ार बैठी होगी। 

इस कदर वो मेरे लिए तैयार बैठी होगी।।



सारे रंग तितलियों के उससे ही मिलते जुलते हैं। 

कभी कोई तितली शायद उसके रुख़सार बैठी होगी।।



ग़म हैं कि हर दिन नए से मिलते जाते हैं। 

खुशियाँ अपनी शायद कहीं बीमार बैठी होगी।।



सारी तन्हाईयाँ तो हम अपने कमरे में सजा बैठे हैं और वो,

फुर्सत भी होगी तो बेकार बैठी होगी।।



मोहब्बत मिलती किसी रोज़ तो उलझते उससे, ख़ैर छोड़ो!

इश्क़ में भी कहीं कोई सरकार बैठी होगी।।

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