Saturday, 20 January 2018

गांधी तुम महात्मा ना होते तो अच्छा था | निशांत उपाध्याय।


देश भर में  हो रहे फ़िल्मी और साहित्यिक उत्सवों में अपनी एक अलग पहचान बना चुका "दी ग्रेट इंडियन फिल्म एंड लिटरेचर फेस्टिवल" 2017 में जब भोपाल आया तो मैं भी अपनी कुछ कविताएं ले कर वहां पहुंचा। शायरियों और कविताओं की उस बे-मिसाल और यादगार महफ़िल में मेरी मुलाक़ात निशांत उपाध्याय(भैया) से हुई। भीतर मन की सच्चाई से लेकर समाज की कुरीतियों, कुप्रथाओं और क्षीण मानसिकताओं तक ऐसा कोई मुद्दा नहीं जिसपर निशांत भाई ने अपनी कविता से गाज ना गिराई हो। फैज़ साहब की नज़्म का एक अज्ज़ा है - 

और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा।

इन और दुखों को आवाम के सामने बे-बाक, बे-ख़ौफ़ पेश करते हैं निशांत भाई। प्रस्तुत नज़्म उनकी इसी निडरता की अलामत है। स्वतंत्रता सेनानी और अहिंसा से देश को आज़ादी दिलाने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के मुतअल्लिक हर फ़र्द-ओ-इंसान के मुख्तलिफ ख़्याल हैं। अब आप पढ़ें निशांत भाई के ख़्याल। 

-प्रद्युम्न आर. चौरे।



क्यों अधनंगी सी धोती में, नंगे विचारों की होली से, 
सन् सोलह के चम्पारन में, जला दिए दानावल एक चिंगारी से, 
तुम निपट कपट चपल क्रूर गांधी, 
होम दिए हज़ारों गुलाम, 
एक आजादी के अश्वमेध की तैयारी में, 
वो आजादी का संघर्ष, सहर्ष समर्पित सन्तानों का नतीजा था, 
थे लाखों दानव उस युग में, पर ना कोई मसीहा था,
हाँ, 
बांध दिया था सारा देश जिसने, तुम्हारी अहिंसा की बोली थी, 
और, देखो तमाशा अखंड भारत क़ा, 
माहिमामण्डित होता वो हत्यारा, 
जिसकी बन्दूक से निकली 48 की गोली थी।
अहिंसा, असहयोग, दाण्डी, अवज्ञा की आरती में, 
माओं ने दीपक भरे, नन्हे हाथों ने बाती सुलगायी थी, 
जेल के फ़र्श पर अपनी उँगलियों से,  उकेरते थे आज़ाद भारत का नक्शा तुम, 
और आज का युवा पूछता है, 
कि चरख़े से कब आजादी आयी थी।। 
पर, 
प्रश्न है तो है युवा, युवा है तो प्रश्न है, 
प्रश्न की जो बात है, तो मेरा भी एक प्रश्न है,
तिरस्कार के परिष्कार पर क्यों बहिष्कार प्राप्त हुआ?
जब जन शक्ति दौड़ी थी लाने ललाट पर अज़ादी, 
तो कुछ हैवानो की ह्त्या पर क्यों आंदोलन समाप्त हुआ?
क्यों, नियम संस्कारो की वेदी पर क्राँतिकारियों की बली चढ़ाई थी,
अपनेे ब्रह्मचर्य के अतरंग आलिंगन में, क्या नहीं तुमने नग्न बेटियां सुलाईं थी? 
हठ ही था माहात्म्य का तुम्हारा, तभी महात्मा बन पाए, 
पर ऐसी भी क्या प्राण प्रतिष्ठा, कि महान हो कर भी, सिर्फ पाषाण तुम कहलाए, 
तुम तो महात्मा ठहरे, 
जो पुराने विचारों व शरीर को त्याग, नया आकार ले लेते थे; 
पर उन इंसानो का क्या, जो हर एक विचार पर, 
अपना तन मन धन न्योछावर कर देते थे 
पर, 
महान ज़रूर थे तुम, जो खुद को गलत कह लेते थे, 
गलत थे भी, पर सही ज़्यादा, बहुत ज़्यादा,
इन्सान ही तो थे, कह देते कि, 
वल्लभ, राम, सुभाष, भगत, नेहरू, 
ये सारे सिर्फ प्यादे थे, 
जंग में जीत जल्द मुनासिब होती, पर तुम खुद पर खुद का बोझ लादे थे;
मैं बेबस निराश हूँ, जो मुझमें तुम्हारा इंसान आज भी जागता है, 
प्रश्न तो कई हैं, पर फिर भी मेरा दिल तेरे पथ पर चलता है, 
बापू, 
तुम्हारी भूखी अंतणियों की कुलबुलाहट में मुझे, 
मासूम मुसलमानों का रुदन सुनाई पड़ता है, 
तुम्हारे उपवास के तेज़ से प्रज़्वलित, 
मुझे हिन्दू का गौरव दिखाई पड़ता है, 
उस गोडसे की कितनी भी पूजा कर लो तुम सब यारो, 
मेरे भगत सुखदेव को तो बस वो हत्यारा जान पड़ता है, 
और,
जब बँटवारे की आग में तुमको जलता पाता हूँ, 
राेम रोम काँप उठता है मेरा और खुद को ये कहता पाता हूँ,
तुम अथाह सागर से व्यक़्तित्व, तुम में डूबना पढता है, 
सागर की पूजा होती है या फिर कचरा पढता है, 
फूटे मंदिर, बाबरी मस्जिद; इंसान तुम्हे धता बताता है, 
और बापू, तेरा ये बेटा तुमसे यही कहता जाता है,गांधी, 
तुम महात्मा ना होते तो अच्छा था!


Keep Visiting!

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