भारत समेत दुनियाभर में अनेक फिल्में रची जाती हैं। भारत पूरी दुनिया में सबसे अधिक मात्रा में सिनेमा रचता है। इसमें कितना सार्थक है, यह सवाल है, बड़ा सवाल। वास्तव में फिल्म एक ख़्वाब है जिसकी इबारत दर्शक मुख़्तलिफ़ करीनों और तरीकों से पेश करता है। कई दफा हम कुछ निरर्थक ख़्वाब भी देखते हैं और इसलिए अनेक बिना सर-पैर की फिल्में निर्मित होती हैं। कुछ संरचनाएं देखकर सोचता हूँ "इसे क्यों बनाया गया, क्या ज़रुरत थी?" और जिनके विषय में यह सोचना पड़े वे वास्तव में सिनेमा पर बोझ हैं, थियेटर्स पर बोझ हैं। ऐसी फ़िल्में रंग-रोगन के साथ प्रदर्शित होती हैं और फिर इनके सीक्वल्स भी रचे जाते हैं। कुछ निर्माता अँधेरे को भी काला करने का हुनर बख़ूबी जानते हैं।
वास्तविक और विचार-उत्तेजक सिनेमा फिल्म-फेस्टिवल्स तक सीमित होता जा रहा है। अमेरिका, यू.के. समेत लगभग हर देश में आर्ट-हाउस सिनेमाघर हैं जिनके निर्माण और देख-भाल के लिए वहां की सरकारें सजग एवं जागरूक हैं। भारत आज भी सिनेमा को मात्र मनोरंजन की कला मान रहा है और इसके संरक्षण के लिए कोई कदम नहीं उठ रहे। एकल सिनेमाघरों का खात्मा इसकी एक निशानी है। रजत कपूर निर्देशित "आँखों देखि" का मुख्य पात्र सिर्फ़ और सिर्फ़ उन बातों पर विश्वास करता है जो उसने स्वयं अपनी आँखों से,अपने चश्मों से देखि हों। इस प्रक्रिया में वह गणित के एक महान नियम को भी चुनोती देता नज़र आता है। प्रान्तीय हों या केंद्रीय सभी सरकारें इस फिल्म से प्रभावित नज़र आती हैं, अधिक प्रभावित शायद।
इसी बीच खबर है कि फ़िल्म पद्मावती को पद्मावत नाम से प्रदर्शित किया जाएगा। शेखस्पियर का कथन था कि "व्हाट इस इन नेम"। भारतीय सेंसर बोर्ड और अचानक प्रकट हुईं कुछ निजी संस्थाओं ने अंग्रेजी के महान लेखक को गलत साबित किया है। यह उत्सव का वक़्त है और भारत उत्सवों का देश।वर्तमान सिनेमा में तर्कहीनता गहरा रही है और यथार्थ कुचला जा रहा है। मगर लाउड-स्पीकर की कर्कश ध्वनि के बीच बाँसुरी का मधुर नाद, स्वतंत्र-सिनेमा के रूप में मुसलसल सुनाई दे रहा है। "मसान", "उड़ान", "रघु-रोमियो", "आँखों-देखि", "अस्तु", "कड़वी हवा" "बाप-जन्म", "फ़ैमिली-कट्टा", "आ डेथ इन गुंज" आदि महान फ़िल्में हैं मगर इनका प्रदर्शन ना के बराबर है। हाल ही में आई फिल्म "पंचलैट" जो की फणीश्वर नाथ रेनू की कहानी पर आधारित थी स्क्रीन्स के लिए तरस गई। ऐसी ही स्थिति में आर्ट हाउस सिनेमाघरों की ज़रुरत महसूस होती है मगर निर्माण असंभव लगता है। दुष्यन्त का शेर है "यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं नदियां, मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा"। बहरहाल सारी दुश्वारियों और कठिनाइयों को मात देते हुए नूतन निर्देशक शानदार सिनेमा रच रहे हैं। वे हर किस्म की परेशानियों को झेलना का माद्दा रखते हैं और यह हिम्मत उन्हें उनके उन समकालीन निर्देशकों से मिलती है जो आज भी अद्भुत और ख़ूबसूरत फिल्में बना रहे हैं। शहरयार का शेर है "जुस्तजू थी जिसकी उसको तो ना पाया हमने, इसी बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने"।
Keep Visiting!
No comments:
Post a Comment