Saturday, 12 August 2017

एकल सिनेमाघर और टॉयलेट।



भारतीय सरकार के ताज़ातरीन आदेश के अनुसार श्रीमान पहलाज निहलानी जी को सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ़ फिल्म सर्टिफिकेशन के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना होगा। खबर है की उनकी जगह ख्यात गीतकार और पटकथा लेखक प्रसून जोशी नए अध्यक्ष के तौर पर कार्यभार संभालेंगे। गौरतलब है की फ़िल्मी दुनिया से परे प्रसून साहब की पहचान एक जाने-माने कवि एवं साहित्यकार के तौर पर भी है और देशभर में होने वाले साहित्य उत्सवों में उनकी मौजूदगी इस तथ्य को प्रमाणित करती है। पूर्व अध्यक्ष से पद छीने जाने के बाद से ही फ़िल्मी महकमे में उत्सव का माहौल है और सिनेमा जानने, समझने वालों ने सरकार के इस फैसले का तहे दिल से स्वागत किया है। संभवतः माननीय पहलाज निहलानी जैसे लोगों ने ही सर्टिफिकेशन बोर्ड को सेंसर बोर्ड का नाम दिया होगा। प्रकाश झा द्वारा निर्देशित फ़िल्म आरक्षण के लिए प्रसून जोशी ने लिखा था "एक चांस तो देदे मेरी जान तू फिर उड़ान देखना" संभवतः यह वही चांस है जो उन्हें सरकार द्वारा दिया गया है और तमाशबीन उनकी उड़ान देखने को बेताब हैं। उम्मीद है कि अध्यक्ष पद पर आने के बाद वे उन सभी कार्यों से किनारा करेंगे जिनमें निहलानी जी मशगूल थे। उनसे यह भी उम्मीद की जा रही है कि वे देशभर में मौजूद गिने-चुने एकल सिनेमाघरों को बचाने के लिए किसी कारगार कदम को उठाने की मांग सरकार के सामने रखेंगे क्योंकि एकल सिनेमाघरों का बचा रहना भारतीय सिनेमा के लिए बेहद आवश्यक है। ज़हीन लोगों से सराबोर देश के प्रख्यात शहर किसी भी फिल्म को मुख़्तलिफ़ कारणों से देखने जाते हैं। कुछ उन्हें समझने जाते हैं तो कुछ उसमे खामियां ढूंढ उनसे अपनी सोश्यल मीडिया वाल्स सजाने के उद्देश्य से। ऐसे में छोटे शहर फ़िल्म को सिर्फ मज़े और मनोरंजन के लिए देखने जाते हैं एवं वे लेखक-निर्देशक से ज़्यादा तवक्को भी नहीं रखते। वास्तव में फ़िल्मी दुनिया को भारत के इन्ही छोटे-मोटे शहरों के लोगों ने जीवित रखा हुआ है।


अक्षय कुमार एवं भूमि पेडनेकर द्वारा अभिनीत और श्री नारायण सिंह द्वारा निर्देशित टॉयलेट: एक प्रेम कथा व्यवस्था पर बनी समस्त फिल्मों में एक उल्लेखनीय स्थान हासिल करने में कामयाब हुई है। फिल्म का निर्देशन एवं लेखन एकदम कसा हुआ है जिसकी वजह से कोई भी दृश्य अनुपयोगी नज़र नहीं आता। काबिल-ए-गौर बात है की फिल्म का लेखन संजय लीला भंसाली निर्देशित फिल्म रामलीला के लेखकों का है जो परदे पर अपनी छाप छोड़ने में बेशक सफल रहा है। फ़िल्म के संवाद बेहद सूझ-बूझ के साथ लिखे गए हैं जो प्रारंभिक तौर पर तो दर्शकों को हंसाते हैं मगर सिनेमघर से बाहर निकलते हुए दर्शक उन्ही संवादों में निहित व्यंग्य को जानकार चेहरे पर एक हलकी मुस्कान बिखेर लेता है। कॉमेडी फिल्मों की रचना करने वाले कई निर्देशकों को यह फिल्म स्पीड-पोस्ट से भेजी जानी चाहिए। अभिनय की बात करें तो अक्षय कुमार से लेकर सुधीर पांडे तक सभी ने उम्दा प्रदर्शन करते हुए फिल्म में जान डाल दी है जिसकी वजह से दर्शक एक मिनिट के लिए भी बोर नहीं होता। हकीकत में यह फ़िल्म देश के भीतरी से भीतरी इलाकों में दिखाई जानी चाहिए क्योंकि कायदे से यह उन्ही की समस्याओं को उठाते हुए, उन्ही की रूढ़िवादी परम्पराओं पर कटाक्ष करती नज़र आ रही है।


फिल्म का एक संवाद देशभर की महिलाओं को समाज के कटघरे में खड़ा करता नज़र आता है। जो कहता है कि "महिलाओं की दुश्मन स्वयं महिलाएं हैं" यह बात पूर्णतः सत्य है और मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित गोदान या सेवासदन में इसके प्रत्यक्ष उदाहरण मिलते हैं। असल में भारतीय सिनेमा में अज़ाब यह है की आज भी देश का मात्र एक तिहाई हिस्सा ही सिनेमा से ताल्लुकात रखता है और वास्तव में जिन लोगों के लिए कुछ ख़ास तरह की फिल्मे बनाई जा रही हैं वो उन तक पहुँच ही नहीं पा रहीं।  ऐसे में एकल सिनेमा घरों को बचाए रखना हमारे एवं सरकार के लिए बेहद ज़रूरी हो जाता है। दुखद है की सरकार इस ओर लेशमात्र भी ध्यान नहीं दे रही क्योंकि उनके अनुसार यह बेहद छोटा और नज़रअंदाज़ कर देने वाला मसला है। ज्ञात हो की शौच और शौचालय भी किसी समय में बेहद छोटे और हीन मुद्दे थे मगर आज इन्हीं पर अभियानों से लेकर फिल्म तक बनाई जा रही है। आवश्यकता है की एकल सिनेमाघरों के बिगड़ते अहवाल को जल्द से जल्द सुधारा जाए नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब यह इतिहास बन चुके होंगे। संभव है कि एक दिन इसी मुद्दे पर कोई फ़िल्म रची जाएगी और जिसमे मुख्य किरदार गालिबन अक्षय कुमार ही अभिनित करेंगे।

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