Saturday, 12 August 2017

नज़्म-ए-ज़िंदगी।



ज़िंदगी पर कोई प्यारी,
नज़्म अर्ज़ करो....
खूबसूरत, मुस्कुराती...
खुशी वाली, खिलखिलाती।


याद रखना, दुख ना लिखना,
फूल लिखना, कांटा ना लिखना...
इक नदी तख़लीक़ करना,
जो बहे बस हौले-हौले....


कोहसार लिखना, नीचा-नीचा...
लिखना परिंदा नीचे वाला,
ज़मीन के ऊपर, मगर हाँ
बादलों के नीचे वाले...


पतंग लिखना, जो उड़ना जाने..
कटना जिसको आता नहीं हो,
एक कश्ती लिखना, साहिल वाली..
लहरें-वहरें छोड़ देना...


रंज सारे एडिट करदो...
ना हो सके, फाड़ दो सफहा..
बनावटी हो तो सही है,
सच है मगर, तो कुछ गलत है..


यह के जिसपर कह रहे हो,
अर्ज़ करो कोई नज़्म...
यार मेरे नाम इसका,
"ज़िन्दगी" सा कुछ है...


ये जो कायदे, ये नियम सारे,
बता रहे हो तुम,
इस तरह कुछ और होगा...
नज़्म ना होगी दोस्त।

Keep Visiting!

No comments:

Post a Comment

चार फूल हैं। और दुनिया है | Documentary Review

मैं एक कवि को सोचता हूँ और बूढ़ा हो जाता हूँ - कवि के जितना। फिर बूढ़ी सोच से सोचता हूँ कवि को नहीं। कविता को और हो जाता हूँ जवान - कविता जितन...