स्कूल के दिनों में मैंने बहुत कम फ़िल्में देखीं। हालांकि थिएटर से मेरा तारुफ़ बचपन में ही हो गया था , उस वक़्त पिता जी ने मुझे सनी देओल और अमरीश पूरी अभिनित फ़िल्म "गदर" दिखाई थी। गदर के बाद अगली फ़िल्म जो मैंने थिएटर में देखी वह थी शंकर आचार्य द्वारा निर्देशित "धूम 3"। सिनेमा से मेरा तारुफ़ बहुत पहले हुआ था मगर ताल्लुकात अब बने हैं। बीते 2 वर्षों में सैकड़ों फ़िल्म देख चुका हूं और पढ़ने की कोशिश करता रहा हूँ।
भारतीय सिनेमा बेहद प्यारा है, मानवीय भावों को सिनेमाई पर्दे पर जिस तरह से हम दिखाते हैं दूसरा कोई देश नही कर सकता। ये एजाज़ सिर्फ़ भारतीय फ़िल्मों में हैं। विदेश में बनी कई फिल्में तर्कहीनता का महोत्सव हैं (भारत मे इससे अधिक हैं)। सबसे सुनहरी फ़िल्मे वह हैं जिनमे साहित्य को पर्दे पर उतारा गया है (कुछ अपवाद हैं)। चाहे वो विकास स्वरूप की किताब पर बनी "स्लमडॉग मिलेनियर" हो या सत्यजीत रे की कहानी पर आधारित "स्टार"। निर्देशक विशाल भारद्वाज की अधिकांश फ़िल्मे शेक्सपियर के नाटकों पर आधारित हैं और फ़िल्म "सात खून माफ़" में तो उन्होंने रस्किन बॉन्ड को जस का तस पर्दे पर पेश किया है।
महिला निर्देशकों के नाम पर भारतीय सिर्फ एकता कपूर को जानते हैं (ये बेहद दुःखद है)। मगर दीपा मेहता, मीरा नायर और नंदिता दास भारतीय सिनेमा की इस कड़ी के बड़े नाम हैं। मीरा नायर की "मानसून वेडिंग" यादगार फ़िल्म है और खूबसूरत सिनेमा का अद्भुत नमूना है। नंदिता दास आगामी दिनों में उर्दू अदब के मक़बूल अफसानानिगार सादात हसन मंटो पर आधारित फ़िल्म सिनेमाई पर्दे पर पेश करने जा रहीं हैं। उल्लेखनीय है कि फ़िल्म में मंटो का किरदार नावाजुद्दीन सिद्दीकी ने निभाया है और उनकी बेगम का किरदार रसिका दुग्गल ने अदा किया है। फ़िल्म कॉन्स में प्रदर्शित हो चुकी है और संभवतः इसी वर्ष भारत मे प्रदर्शित की जाएगी। दीपा महता की "मिडनाइट्स चिल्ड्रन्स" बेहद खूबसूरत और विलक्षण फ़िल्म है और मशहूर लेख़क सलमान रुश्दी की किताब मिडनाइट्स चिल्ड्रन पर आधारित है। कहानी की पृष्ठभूमि अनोखी है। भारत की आज़ादी से लेकर, विभाजन और फिर पाक-बांग्ला विभाजन तक को निर्देशक ने एक व्यक्ति के जीवन का रूपक बना दिया है। फ़िल्म में इंदिरा गांधी की नीतियों पर कटाक्ष भी किये गए हैं। गौरतलब है की आने वाले दिनों में निर्देशक मधुर भंडारकर फिल्म इंदु सरकार प्रदर्शित करने वाले हैं।
दीपा महता भारत के अलावा कनाडा में भी फ़िल्मे बनाती रही हैं। उनकी फ़िल्मे फ़ायर, अर्थ और वॉटर एक सफल ट्रायोलॉजि है जिसे भारतीय सेंसर बोर्ड ने खासा परेशान किया है। काबिल-ए-गौर बात है कि महता की फ़िल्म वॉटर की शूटिंग बनारस के घाटों पर होनी थी। मगर हुड़दंगियों ने ऐसा होने नहीं दिया। बाद में फ़िल्म श्रीलंका में शूट की गई। फ़िल्म की पटकथा अनुराग कश्यप ने लिखी थी जिसका आधार बनारस के आश्रमों में निवास करने वाली विधवा महिलाएं थीं। हाल ही में संजय लीला भंसाली की फ़िल्म पद्मावती की शूटिंग के दौरान भी कुछ यही हुआ नतीजन उन्होंने भी फ़िल्म की शूटिंग कहीं और करने का फैसला लिया। ये दोनों घटनाएं सिनेमा की जीत का प्रत्यक्ष नमूना है। हुक्मरान अपनी सत्ता के बल पर फ़िल्म को परेशानी में तो डाल सकता है मगर उसके निर्माण को नहीं रोक सकता। शज़र से गुल तोड़ लेने से शज़र सूखते नहीं एवं आंखों पर पट्टी बांध लेने से सूरज के अस्तित्व को कोई हानि नहीं पहुंचती।
गौरतलब है मस्तीज़ादे एवं क्या सुपर कूल हैं हम जैसी फिल्में धड़ल्ले से सिनेमाई परदे पर प्रदर्शित की जाती हैं। मगर निर्देशक विनोद पांडे की सिंस जैसी अद्भुत एवं विचार उत्तेजक फ़िल्मे सेंसर की कैंची का शिकार बन जाती हैं। प्रचार के इस युग में हम इस भ्रम में हैं की श्रेष्ठ वही है जिसे खोजना आसान हो। मगर वह चीज़ जिसे मेहनत कर खोजना पड़े, उसे ही खज़ाना कहा जाता है। भारतीय सिनेमा की अद्भुत कृत्तियाँ बहुत भीतर हैं। उन तक पहुंचना आसान नहीं है। हाँ मगर मुमकिन है। मिथ्या को प्रासारित किया जा रहा और हम उसे सच मान बैठे हैं। हम सवाल करना छोड़ चुके हैं, जिज्ञासाएं ख़त्म हो रही हैं और परिणाम स्वरूप हम अल्पज्ञ होते जा रहे हैं। बकौल हरिशंकर परसाई "इस संसार में वही लोग मुतमईन हैं जिनके ज़हन में किसी भी तरह के सवाल नहीं उठते।" उन्हें कल्पनाएं पसंद हैं और वे यतार्थ से नफरत करते हैं। सिनेमाघरों में सीटियां बजाने वाले संभवतः यही लोग हैं।
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