Sunday, 30 July 2017

माज़ी की ओर।



अपने कमरे के किसी कोने में अकेला बैठकर में अक्सर माज़ी की ओर मुड़कर देखता हूँ। क्योंकि आगे का सबकुछ अधिक धुँधला है, बहुत अधिक शायद। भविष्य का विचार करना ही मूर्खता है। जिसका आना ना आना ही तय ना हो भला उसपर विचार कर हमे क्या हासिल होगा। बहरहाल माज़ी, यानी के भूत में झांका जा सकता है। वहां जो कुछ भी , जैसे भी हुआ था मेरे ज़हन में इस तरह कैद है जैसे कोई परिंदा किसी क़फ़स में। सब उड़ जाने को बेताब, मगर कैद असीरी में।

मैं देखता हूँ कि ज़िन्दगी के इन 19-20 सालों में मैंने बहुत कुछ किया और सबकुछ किसी-न-किसी के साथ किया। फिर भी आज में अकेला हूँ.....क्यों?

मेरे अकेलेपन का कारण मैं स्वयं हूँ ऐसा कहना ज़रा भी ग़लत नहीं होगा। मैं बहुत थोड़ा सा स्वार्थी भी हूँ और बहुत बड़ा डरपोक भी। एक लेखक और एक कवि के तौर पर लोगों के सामने अपनी लेखनी का महिमामंडन तो मैंने कभी नहीं किया मगर हाँ उसका प्रचार किया है। जो गलत है या सही मैं नहीं जानता। स्कूल के दिनों से लेकर आज तक कोई भी शख़्स ऐसा नहीं है जिसे मैं अपना "जिगरी दोस्त" या "बेस्ट फ्रेंड" कह सकूं। कोई नहीं, एक भी नहीं। इसका कारण वे नहीं हैं जिनसे में मिला बल्कि कारण मैं खुद हूँ जो किसी का जिगरी बनने के लायक नहीं है और यह बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ। अकेले रहते हुए मैं खुद के उतना भीतर गया हूँ जितना मेरे हमउम्र अपने ख़्यालों में भी नहीं गए होंगे। मैंने ख़ुद से घिन खाई है और ख़ुदपरस्ती के जाल में फसे एक ऐसे शख़्स को अपने भीतर घुटता हुआ देखा है जो बिल्कुल मुझ जैसा दिखता है। अपनी बुराइयों, अपनी खामियों, अपनी कमतरियों को करीब से देखने पर ऐसी कैफ़ियत महसूस होती है जिसे लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं किया जा सकता और जब ऐसा होता है तो मन कचोटने लगता है। दूसरों की बुराइयां करने का या उन्हें नापने-तौलने का अब वक्त ही नहीं मिलता। मेरी ही ग़ज़ल का एक शेर है के - "खुद से मुझे फुर्सत अब मिलती नहीं है, खुदगर्ज़ मेरे यारों इस क़दर हो गया हूँ"। सच कहूं तो खुद में डूबा रहना भी एक अज़ाब है, एक बेहद संजीदा अज़ाब। मेरी सारी बुराइयों और कमियों को जान-परखकर जो व्यक्ति , जो बशर मुझे अच्छा कहता है वो ख़ुद एक बेहतरीन इंसान है। क्योंकि मैं कितना बुरा हूँ यह मैं जानता हूँ और सच कहूं तो मुझे इस बात की बेहद खुशी है। 

लिखना शुरू करना मेरे लिए कोई एजाज़ नहीं था, कुछ भी अचानक नहीं हुआ, कुछ भी एकाएक नहीं होता। आज मेरी जानिब कुछ अजीब सवाल आते हैं जैसे - "हमे भी लिखना है" या "हम लिखना कैसे शुरू करें?" वास्तव में ये सवाल होने ही नहीं चाहिए। आप गुसल करने या खाने-सोने के लिए किसी की इजाज़त नहीं लेते आप बस करते हैं क्योंकि ये आपकी ज़रूरतें हैं। लेखन भी एक ज़रुरत है और जब तक आप इस ज़रुरत को महसूस नहीं कर रहे तो फ़िर सभी सवालात निरर्थक हैं। अपने जीवन की पहली ग़ज़ल तख़लीक़ करने से पहले अपनी लिखी 10 ग़ज़लों को फाड़कर फेंकने वाला भी मैं ही था क्योंकि उनमें नियमों का पालन नहीं हुआ था। पहली नज़्म लिखने से पहले बहुत लंबे समय तक केवल तुकबंदियाँ करता था। आज जहां जैसा भी हूँ वहां से आगे ही जाना है, सभी को जाना होता है। जो लौट आया मतलब हार गया। मगर सवाल यह है कि आगे कहाँ? दुनिया का सबसे मशहूर सवाल क्योंकि इसका जवाब अधिकांश युवाओं के पास नहीं होता। याद आता है ज़ावेद साहब की ज़बान से सुना एक किस्सा की एक बार मालिक ने अपने नोकर को कहा कि "मैं जा रहा हूँ"। "मगर मालिक कहाँ?, नोकर ने सवाल किया। "तुम्हें समझ नहीं आता, "मैं यहाँ से जा रहा हूँ", बस मैं वही जा रहा हूँ" मालिक बड़बड़ाया।

प्रसंग एक बेहद ज़हीन बात कहता है कि चलते हुए शख़्स को पानी पूछ, खाना पूछ मगर "कहाँ से आया, कहा जाएगा" ये सब ना पूछ।

यहां सब मुश्ताक हैं, सब के सब ज़ाहिद हैं, हर कोई सफल होना चाहता है, जीत पाना चाहता है, लक्ष्य पाना चाहता है, मंज़िल हासिल करना चाहता है,आगे बढ़ना चाहता है। मगर आगे जाने के लिए तैयार बैठे हुए आज भी जब कभी वो अपने कमरे के किसी कोने में अकेला बैठता है तो माज़ी की ओर मुड़कर ज़रूर देखता है।

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