इक नसीहत थी,
मेरे वालिद की मुझको,
जो कभी फिर ज़िद बनी,
ज़िद के आगे मैं झुका,
तो वही आदत बनी...
तो वही आदत बनी...
आस्था के मकताब ढेरों,
वाइजों की गिनती नहीं,
वाइजों की गिनती नहीं,
सबकी अपनी तकरीरें हैं,
और कई तहरीरें भी...
और कई तहरीरें भी...
हाथ जोड़ता था कहीं,
कहीं सर झुकाता था,
कहीं सर झुकाता था,
आदत ये मेरी डर बन गई,
और मैं अंजान रहा...
और मैं अंजान रहा...
राफ्ता से डर वही,
ज़ईफ़ हुआ और खत्म फिर,
सर झुकाने की वो आदत,
भी अचानक मिट गई...
भी अचानक मिट गई...
इक रोज़ जब आफत आई,
बगैर किसी पैगाम के,
इन भीगी आँखों को फिर दिखा,
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