"Hotel Salvation"
मानव जीवन का एकमात्र सत्य "मृत्यु", गीता में स्पष्ट रूप से इस बात का वर्णन है के जिसका जन्म हुआ है उसका अंत तय है। मगर कब, कहाँ और कैसे?, यह निर्धारित नहीं है और अगर है भी तो मनुष्य को इस बात का ज्ञान होना लगभग असंभव है। मगर क्या हो जब किसी को इस बात का आभास हो जाए कि उसका अंत समय निकट है? इसी पेचीदा सवाल के उत्तर को बड़ी ही खूबसूरती से प्रस्तुत करती है फिल्म "मुक्ति-भवन".
उत्तर-प्रदेश के एक सामान्य परिवार के मुखिया 77 वर्षीय दया को एक रात बड़ा ही डरावना सपना आता है जिससे उन्हें इस बात का आभास होता है कि उनका समय आ चुका है। मोक्ष पाने के इरादे से दया अपने पुत्र राजीव से बनारस चलने को कहता है और एक आज्ञाकारी पुत्र होने के कारण राजीव अपने पिता की इस मांग को ठुकरा नहीं पाता। इसके बाद पिता और पुत्र दोनों बनारस पहुँचते हैं जहाँ वे "मुक्तिभवन" नामक एक ऐसी जगह रुकते हैं जहाँ पर केवल वे ही लोग आते हैं जिनका अंत समय निकट हो। धीरे-धीरे दया वहाँ के माहौल में रच-बस जाता है और अपने हमउम्र साथियों के साथ जीवन के अंतिम क्षणों को खुलकर जीता है। राजीव का किरदार निभाने वाले जाने-माने कलाकार आदिल हुसैन ने अपनी अभिनय क्षमता से फिल्म में जान डाल दी। आसाम से आकर सिनेमा जगत में अपनी अदाकारी का लोहा मनवाने वाले आदिल हुसैन इससे पहले ढेरों हिंदी, बंगाली, मराठी,आसामी,अंग्रेजी और फ्रेंच फिल्मो में अभिनय कर चुके हैं। गौरी शिंदे द्वारा निर्देशित "इंग्लिश-विन्ग्लिश' और विदेशी निर्देशक एंग ली के निर्देशन में बनी "लाइफ ऑफ पाई" में लोग हुसैन की अदाकारी का स्तर देख ही चुके हैं। वहीँ फिल्म के दुसरे मुख्य कलाकार यानी राजीव के पिता दया का किरदार अदा करने वाले कलाकार ललित बहल ने भी बेजोड़ अदाकारी का नमूना पेश किया है। इससे पहले ललित को कनु बहल द्वारा निर्देशित फिल्म तितली में देखा गया था। पूरी फिल्म में पिता-पुत्र के आपसी संबंधों पर प्रकाश डाला गया है और साथ ही पुत्र की अनेक दुविधाओं को भी उजागर किया गया है जहाँ उसके लिए यह निर्णय लेना कठिन है कि वो अपने पिता के साथ रहकर उनके अन्तिम समय में उनका सहारा बने या घर लौटकर अपने परिवार को देखे। बहरहाल इसके अलावा फिल्म विभिन्न मानव-भावों और संबंधों को परदे पर लाने की कोशिश करती नज़र आती है, जो परत दर परत सफल भी होती है। लेखक और निर्देशक शुभाशीष भुटीआनी का निर्देशन सराहनीय है। शुभाशीष ने इससे पहले कुश और स्टार जैसी दो शार्ट फिल्म्स बनाई हैं, ज्ञातव्य है के यह उनकी पहली फीचर फिल्म है।
उल्लेखनीय है की बनारस में आज भी ऐसी कई जगहें हैं जहां इंसान मोक्ष पाने के लिए पहुँचता है। यह फिल्म ऐसी ही जगहों पर आधारित है। भारतीय सिनेमा में इससे पहले भी बनारस की पृष्ठभूमि पर आधारित कहानियां कही जाती रही हैं और संयोगवश वे सभी दिल को छू जाने वाली हैं। उदाहरण के तौर पर आनंद एल राय की आनंदमई फिल्म "राँझणा" और नीरज घाईवान द्वारा निर्देशित लेखक वरुण ग्रोवर की "मसान" दर्शकों के दिल को छूने में कामयाब रही हैं। फिल्म में एक द्रश्य आता है जब दया के साथ मुक्तिधाम में रहना वाला एक आदमी कहता है कि जब किसी हाथी को यह पता चलता है कि उसका समय आ गया है तो वह अपने आसपास के हाथियों से दूर चला जाता है। सवाल है के क्या इंसान को भी ऐसा करने की आवश्यकता है?
एक दूसरे द्रश्य में दया अपने बेटे राजीव से कहता है कि वो उसे धूम-धाम से विदा करें और उसके जाने का शौक ना मनाएं। आशय है के मानव जीवन का अंतिम और परमलक्ष्य मृत्यु है। यह वो समय है जब आत्मा परमात्मा से मिलन के लिए अपनी यात्रा आरम्भ करती है अतः मृत्यु का भी उत्सव होना चाहिए ठीक वैसा, जैसा जन्म का होता है। फिल्म के अन्तिम भाग में राजीव दया के कहने पर घर लौट जाता है और एक दिन आखिर दया की मृत्यु हो जाती है। उसके कहे अनुसार ही धूम-धाम से उसकी शवयात्रा निकाली जाती है जिसमे ना चाहते हुए भी राजीव और उसका परिवार नाचते-गाते हुए नज़र आते हैं।
मृत्यु को प्राप्त हुए दया की आत्मा यह द्रश्य देखकर मोक्ष को प्राप्त होती है और इस तरह एक बौद्धिक और मार्मिक फिल्म बड़ा ही मज़बूत सन्देश देते हुए खत्म हो जाती है। यह फिल्म सिनेमा को जानने और समझने वाले लोगों के लिए है अतः मेरी दरख्वास्त है कि वे लोग इस फिल्म को देखने अवश्य जाएं।
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