Monday, 10 April 2017

नज़्म।


मेरी नज़्मों में अपनी ताबीरें ना ढूंढ। 

बे-बसी हैं मेरी और कुछ भी तो नहीं।।

-प्रद्युम्न आर, चौरे



कभी नज़्म पढ़ी हैं मेरी?

देखा है क्या मुझको,
 उन काले-नीले हर्फ़ों में?
पढ़ते-पढ़ते कहीं किसी सफ़ पर,
ठहरे हो कभी तुम?,

कभी नज़्म पढ़ी हैं मेरी?

मैं हूँ थोड़ा,हर लफ्ज़ में,
मगर छिप कर रहता हूँ,
तुम्हे ढूँढना होगा!

किसी आबशार के पीछे,
जाओगे तो देखोगे,
के किस हालात में है वो पत्त्थर,
जिसपर से पानी उतर रहा है...

नज़्म यूँ ही बहती है, ख़ूबसूरत 
लगती है....
और उसके पीछे दबा हुआ सा,
सुख़नवर बैठा रहता है..

बहे हो क्या कभी, साथ मेरी नज़्म के?
क्या भीगे हो उन ख़यालों में,
जो मुझसे हो कर निकले हैं?

कभी नज़्म पढ़ी हैं मेरी?...

जहां-जहां तुम मुस्काए हो,
किसी लफ्ज़ को पढ़ते ही...
बस वहीँ मैं मुस्काया था, 
तख्रलीक करते वक़्त उसे।

आँसू जब भी निकले हैं,
डबडबाई आँखों से..
और कोई सफ़्हा भीगा है,
समझे तुम के क्या हुआ हुआ है?
समझाऊं क्या, क्या हुआ है..

फ़ैलती हुई उस स्याही को देखो,
मतरूक हुए लफ़्ज़ों को देखो,
पास आओ, सहलाओ उसे,
मेरी नज़्म रो रही है।

कभी नज़्म पढ़ी हैं मेरी?....

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