Talk to yourself
at least once in a day. Otherwise you may miss a meeting with an excellent
person in this world.
-Swami Vivekananda
खुद का पता लगाना,
स्वयं को जानना, अपने अस्तित्व की खोज करना, उसका अनावरण करना. ये सब क्या है?
किस्सों, कहानियों, कविताओं, बुद्धिजीविओं और वाईजों की माने तो मनुष्य का परम कर्तव्य और पौराणिक कथाओं के अनुसार इस
कर्तव्य की पूर्ती का एक मात्र उपाय है तपस्या, घोर तपस्या. जो की आज के युग में
किसी से हो पाए, संभव नहीं. तो क्या खुद को जान पाना अब असंभव है? शायद नहीं. उपाय है, हर समस्या का होता है बस तलाशने की देर है. बचपन से हमे सिखाया गया है “मनुष्य
एक सामाजिक प्राणी है” वो समाज के बगेर, उससे परे जाकर नहीं रह सकता. सत्य है, मगर सम्पूर्ण
नहीं. अक्सर अकेलापन हमे वह सिखाता है जो ये समाज सोच भी नहीं सकता. वास्तव में हम
कभी अकेले नहीं होते. या तो हम किसी ओर के साथ होते हैं या फिर खुद के साथ, सिर्फ खुद
के साथ. खुद के साथ बिताए पलों को बयाँ कर पाना कठिन है क्योंकि वो बड़े अजीब होते
हैं, बड़े बेढंगे से शायद उन्हें समझाया नहीं जा सकता. खुद से बात करने वालों को यह
दुनिया, यह समाज अक्सर पागल कहता है. इसमें कोई शक नहीं क्योंकि पिछले कुछ समय में
“पागल” की परिभाषा परिवर्तित हुई है. कभी आईने के सामने खड़े हुए हैं?, होते ही
होंगे मगर क्या कुछ देर उसके सामने बैठे रहे हैं?, बैठे ही होंगे. अपने चेहरे को निहारा
होगा, उसे सजाया होगा और उसे इस समाज के समक्ष ले जाने के योग्य बनाया होगा. मगर
क्या कभी उसे पढ़ने की कोशिश की, उस पर बिखरे सन्नाटों को चीरने की कोशिश की? नहीं.
क्यों?, क्यों नहीं?. कभी जाना खुद के सामने और कुछ पल बस ताकते रहना खुद को, फिर
झांकना आराम से, धीरे-धीरे, बिना किसी फ़िक्र के. क्योंकि खुद से इजाज़त नहीं मांगनी
पड़ती. कुछ दिखा, कुछ हुआ, एक अजीब से सुगबुगाहट, झटपटाहट हुई होगी?, सवालों का
सैलाब आया होगा?, नहीं?, क्या ऐसा कुछ नहीं हो रहा?. मुबारक हो आप तो आम निकले,
एकदम साधारण. आप स्वस्थ हैं, आप “पागल” नहीं हैं. शायद “पागल” बन पाना आसान नहीं.
जैसा की मैंने कहा अब उसकी परिभाषा परिवर्तित हो चुकी है.
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