Monday, 1 August 2016

प्रस्थान राजनीति का।


  There is more politics in sport than in politics

-Ashwini Nachappa

                                                                      
आज से कुछ ही दिनों के बाद अर्थात 5 अगस्त से ब्राज़ील की सरज़मी पर खेलों का महाकुम्भ रियो ओलंपिक्स 2016 शुरू होने जा रहा है। भारत की ओर से आज तक का सबसे बड़ा 119 खिलाडीयों का दल 15 तरह के खेलों में हिस्सा लेने के लिए रियो रवाना हो चुका है।  पूरा देश जहां एक और इस उम्मीद में है के भारतीय खिलाड़ी अधिक से अधिक पदक जीतकर देश का गौरव बढ़ाएंगे,वहीँ दूसरी और नरसिंह यादव डोपिंग मामला अभी भी लोगों के ज़हन में जस-का-तस विद्यमान है। जिस दिन से नरसिंह यादव डोप टेस्ट में फ़ैल घोषित किये गए हैं उसी दिन से वे सुर्ख़ियों में छाय हुए हैं। इस मामले में साफ़ तौर पर साजिश नज़र आती है क्योंकि हर खिलाड़ी जानता है किसी भी प्रकार के आपत्तिजनक पदार्थ का सेवन प्रतिबंधित है और ऐसा करके वो कार्यवाही से बच नहीं सकता।मीडिया सूत्रों की माने तो पता चलता है के नरसिंह यादव की ड्रिंक्स में मिलावट की गई थी। हालाँकि नाडा ने गत सोमवार नरसिंह को हरी झंडी दे दी है जिसके परिणाम स्वरूप नरसिंह और रियो के बीच का रास्ता साफ़ हो चुका है। नाडा ने माना है के नरसिंह यादव को इस प्रकरण के फंसाया गया है। हो ना हो इस मामले में कही न कही राजनीति निहित है। मेरा ऐसा सोचना गलत भी हो सकता है मगर इतिहास मुझे ऐसा कहने पर मजबूर करता है। इतिहास के गलियारों में कई ऐसे खिलाड़ी मौजूद हैं जिन्होंने खेल के मैदान में तो अपने प्रतिद्वंदियों को चित्त किया मगर देश की राजनीति और खेल प्रशासन की अव्यवस्था से मुकाबला उन्हें हमेशा भारी पड़ा। पान सिंह तोमर उन खिलाड़ियों में एक प्रचलित और जाना-माना नाम है। सात बार स्टीपलचेज़ में राष्ट्रीय पुरूस्कार जीतने वाले भारतीय सैनिक पान सिंह तोमर का विश्वास पुलिस और प्रशासन से इस कदर उठ गया के वे एक बाग़ी बन गए और उसके बाद उन्होंने अनेक जुर्मो को अंजाम दिया। पूरा चंबल उनके नाम से गूंजने लगा था। 1981 में पुलिस से मुठभेड़ के दौरान उनकी मौत हो गई थी। तिग्मांशु  धुलिया ने अपनी फिल्म पान सिंह तोमर[2012] में बड़ी खूबी से उनके जीवन पर प्रकाश डाला है। भारतीय खेल जगत ने विश्व को कई सारे उम्दा और सफल खिलाड़ी दिए मगर कुछ नामो को छोड़कर बाकी सभी इतिहास में ऐसे विलीन हो गए हैं के उन्हें खोज पाना असंभव सा प्रतीत होता है। इन्ही खिलाड़ियों में से एक हैं प्रदुमन सिंह ब्रार। 15 अक्टूबर 1927 को जन्मे प्रदुमन ने भारत ही नहीं अपितु पूरे विश्व में अपना व् अपने राष्ट्र का नाम रोशन किया था। 1954 के मनीला[फिलीपींस] में हुए एशियाई खेलों में उन्होंने चक्का फेंक और गोला फेंक दोनों में स्वर्ण पदक जीते थे। समूचे एशिया में यह कारनामा करने वाले वो प्रथम खिलाड़ी थे। 1958 के टोक्यो एशियाई खेलों में भी प्रदुमन का जलवा बरकरार रहा,उन्होंने गोला फेंक में स्वर्ण और चक्का फेंक में कांस्य पदक जीते। 1962 के जकार्ता एशियाई खेलों में भी ब्रार ने उम्मीद के अनूरुप प्रदर्शन किया।
सिंह ने 1954 ,1958 और 1959 में चक्का फेंक के राष्ट्रीय पुरूस्कार भी अपने नाम किए थे। खेल जगत में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए भारत सरकार ने उन्हें 1999 में अर्जुन अवार्ड से सम्मानित किया। अक्सर इस देश में खिलाड़ियों को अवार्ड तो अर्जुन के नाम पर दिया जाता है मगर बर्ताव एकलव्य सा किया जाता है। पूरे देश में अपनी ख्याति फैला चुके ब्रार का नाम और रूतबा,दोनों समय के साथ विलीन हो गए इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार 1980 में एक दुर्घटना में घायल होने के बाद सिंह लंबे समय तक भटिंडा के आदेश मेडिकल कॉलेज में भर्ती रहे।
ठीक इलाज ना मिल पाने की वजह से 22 मार्च 2007 को उनका देहांत हो गया। उनका इलाज करने वाले चिकित्सक डॉ.रंजू के अनुसार वे डिमेंशिया नामक बिमारी से पीड़ित थे। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार ब्रार के इलाज के लिए उनके परिवार को कोई ख़ास सरकारी मदद  प्राप्त नहीं हुई थी। इस महान खिलाड़ी ने अपने अंतिम दिन गरीबी में और बीमारी से जूझते हुए काटे और अंत में मौत को गले लगा लिया। आश्चर्य होता है ये जानकर के देश के लिए पदक लाने वाले खिलाड़ियों की ऐसी दयनीय स्थिति हो जाती है और इससे किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता। इतिहास की एक विडंबना ही है के उसमे हर एक को स्थान नहीं मिल पाता। निमित अनेक हो सकते हैं,गुटबाजी,राजनीति,कूटनीति या बदनसीबी  कुछ भी मगर इनमे राजनीति सबसे अधिक घातक और विनाशकारी है और इसीलिए अब आवश्यक है के राजनीति अपना सामान बांध ले और खेल जगत को छोड़ संसद लौट जाए।
   
स्पोर्ट्स से पॉलिटिक्स हटाकर देखिए गली गली में  चैंपियन मिलेंगे

फिल्म साला खडूस [2016]
निर्देशक- सुधा कोनकारा

THE INFORMATION REGARDING NARSINGH YADAV CASE IS BASED ON THE ORDERS BY NADA AS ON 1st AUGUST.

यह लेख इंदौर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका राइज़िंग लीटेरा के कॉलम #अतित के पन्नों से में अगस्त 2016 को प्रकाशित किया गया।

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