Wednesday, 1 June 2016

दिलों को महकाता गुलज़ार।


दिखाई देते हैं दूर तक अब भी साये कोई
मगर बुलाने से वक़्त लौटे ना आए कोई
चलो ना फिर से बिछाए दरियां, बजाएं ढोलक।
लगाके मेहँदी सुरीली सुनाएं टप्पे कोई
पतंग उड़ाय छतों पे चढ़के मोहल्ले वाले
फलक तो साँझा है उसमे पेंच लड़ाए कोई
उठो कबड्डी कबड्डी खेलेंगे सरहदों पर
जो आए अबके लौट कर फिर ना जाए कोई
नज़रों में रहते हो तुम जब नज़र नहीं आते
यह सुर मिलाते हैं हम जब तुम इधर नहीं आते।

-गुलज़ार



मन को अंदर तक धराशाई कर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की आवाम से अनेकों सवाल करने वाले ये शब्द अपनी महानता,अपनी गहनता, अपनी गहराई एवं अपनी मांग स्वयं ही स्पष्ट कर देते हैं।
ये गीत  सन 2010 के उस अभियान की याद दिलाता जिसकी शुरुआत भारत और पाकिस्तान के दो प्रसिद्द अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया(भारतीय अंग्रेज़ी अखबार)और "दी जंग ग्रुप"(पाकिस्तानी अखबार)
ने की थी। जिसका मकसद था दोनों मुल्कों के बीच की आपसी समझ और सद्भाव को बढ़ाना। इस अभियान का नाम था "अमन की आशा"। हालाँकि अखबारों के अलावा दोनों ही मुल्कों की खल्क एवं सरकार ने इस अभियान में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई मगर इस अभियान के तहत लिखा गया गीत बड़ा प्रचलित हुआ। उस प्रसिद्ध गीत के लेखक थे सम्पूर्ण सिंह कालरा उर्फ़ गुलज़ार

गुलज़ार शब्द के अपने माने हैं और वे माने उस महान शख्स को परिभाषित करते हैं जिसे हम गुलज़ार कहते हैं।   गुलज़ार माने वह बाग़ जहां विभिन्न तरह के फूलों की महक अपने आसपास मौजूद लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। प्रसिद्द कवि, गीतकार, लेखक, फ़िल्म-निर्देशक,फ़िल्म- निर्माता और संवाद लेखक गुलज़ार साहब का व्यक्तित्व बिलकुल उनके नाम की मानिंद  है। उनके गीत, नज्मे, ग़ज़लें आदि  दुनियाभर की खल्क को अपनी और आकर्षित करते हुए उन्हें ना केवल एक सुगम अनुभव प्रदान करती हैं वरन् उन्हें शिक्षित भी करती हैं।


भारत-पाक विभाजन के पूर्व 18 अगस्त 1934 को दिना( जिला झेलम) पंजाब(वर्तमान में पाकिस्तान में मौजूद) में माखन सिंह और सुजान कौर के यहां गुलज़ार साहब का जन्म हुआ। गालिबन "पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं" कहावत गुलज़ार साहब पर लागू नहीं हुई थी। हालाँकि अपने कई इंटरव्यूज़ में उन्होंने माने है की वे हमेशा से एक लेखक बनना चाहते थे।  मुम्बई आने के कई वर्ष बाद तक गुलज़ार साहब ने अनेक छोटे-बड़े काम किए। उन्होंने बहुत समय तक एक कारखाने में काम किया जहां वे दुर्घटनाग्रस्त वाहनों की मरम्मत कर उन्हें रंगा करते थे। कौन जानता था की कारें रंगता शख्स आगे चलकर सफ़हे रंगेगा और ऐसे रंगेगा जैसा पहला ना किसी ने रंगा था और ना ही रंग सकेगा।

1960 के दशक में वक़्त ने करवट बदली और साथ ही बदला गुलज़ार साहब का सफ़र। 1963  में आई बिमल डा की फ़िल्म "बंदिनी" से गुलज़ार साहब ने एक गीतकार के तौर पर अपने फ़िल्मी-सफ़र की शरुआत की। संगीत निर्देशक सचिन देव बर्मन के निर्देशन में उन्होंने इस फ़िल्म के लिए सिर्फ एक गाना(मोरा गोरा अंग लई ले) लिखा जिसे आवाज़ लता मंगेशकर ने दी।

Poster Of Film Bandini 1963

हालांकि 1969 तक गुलज़ार साहब के लिखे गीतों को अधिक ख्याति नहीं मिली मगर 1969 में ही आई फ़िल्म "खामोशी" ने उनकी हयात में सफलता का आशोब  मचा दिया। उस फ़िल्म के लिए उनका लिखा गाना "हमने देखि है उन आँखों की महकती खुशबू" देशभर में प्रसिद्द हुआ। इसके बाद गुलज़ार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और शुरुआत हुई गुलज़ार-वर्षों की (1969 से लेकर आज तक का समय) 1971  में आई फ़िल्म "गुड्डी" में उन्होंने एक प्राथना "हमको मन की शक्ति देना" लिखी जो बड़ी मशहूर हुई और आज भी कई मक्ताबों में इसे प्राथना के तौर पर गाया-गुनगुनाया जाता है।

अनेक सफलताओं को हासिल कर गुलज़ार साहब उस समय के जाने-माने और व्यस्त गीतकार बन गए थे।
उन्होंने कई प्रसिद्द संगीत निर्देशकों जैसे- रामदेव बर्मन, सचिनदेव बर्मन, राजेश रोशन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल आदि के साथ काम किया। उनके द्वारा लिखे गीत आज भी उतने ही प्रचलित हैं जितने पहले हुआ करते थे।
वर्तमान समय के संगीत निर्देशक जैसे - अन्नू मालिक, शंकर-एहसान-लॉय, ऐ.आर. रेहमान आदि के निर्देशन में भी उन्होंने अनेक गीत रचे हैं। विजय-राज़ और करण अरोरा निर्देशित फ़िल्म "क्या दिल्ली क्या लाहौर"(2014) के लिए उनका लिखा गीत "लकीरें हैं तो रहने दो" एक बेमिसाल गाना है जो कानो से होता हुआ सीधे श्रोता के दिल तक पहुँचता है। 2008 के आरुषि हत्याकांड मामले पर आधारित और मेघना गुलज़ार द्वारा निर्देशित फ़िल्म "तलवार" के सभी गीत गुलज़ार साहब ने ही लिखे हैं।

Poster Of The Film Kya Dilli Kys Lahore 2014

गुलज़ार साहब ने कई फिल्मो के लिए पटकथा और संवाद भी लिखे हैं। जिनमे फ़िल्म "आशीर्वाद" और "आनंद" कुछ उल्लेखनिय उदाहरण हैं। 1971 में गुलज़ार साहब ने निर्देशक की हैसियत से अपनी पहली फ़िल्म(मेरे अपने) बनाई। यह फ़िल्म बंगाल के मशहूर और मकबूल निर्देशक तपन सिन्हा की बंगाली फ़िल्म "अपञ्जन(1969)" की तर्ज़ पर बनाई गई थी। 1973 में उन्होंने 1958 के "के.ऍम नानावती विरुद्ध महाराष्ट्र सरकार" मामले से प्रभावित होकर फ़िल्म "अचानक" बनाई। जिससे मुतासिर होकर हाल ही में नीरज पांडे ने अक्षय कुमार अभिनीत रुस्तम रची।  उनकी फ़िल्म "मौसम" जिसने 6 से अधिक फ़िल्म फेयर पुरुस्कार जीते "ए.जे क्रोनिन" के उपन्यास "दी जुदास ट्री" पर आधारित थी। हालाँकि गुलज़ार साहब की कोई भी फ़िल्म कमर्शियल हिट नहीं थी। शायद इसका निमित ये था के उनकी फ़िल्में सामाजिक व्यवस्था में फंसे लोगों की ज़िन्दगियों को दर्शाती थीं और उनमे ज़्यादा चमक-दमक का इस्तमाल नहीं होता था। इस बात को जानकार स्पष्ट होता है के उस वक्त के और आज के दर्शकों में कोई ख़ास फर्क नहीं है क्योंकि आज भी "तलवार", "तितली", "आँखों देखी" , "वेल डन अब्बा", "मुक्तिभावन" जैसी अनेकों शानदार फिल्में जो की समाज की सच्चाई को, यथार्थ को बतलाती हैं सिर्फ इसलिए नहीं चल पातीं क्योंकि उनमे कोई बड़ा कलाकार नहीं होता।


1988 में गुलज़ार साहब ने  नसीरुद्दीन शाह और तन्वी आज़मी अभिनित "मिर्ज़ा ग़ालिब" और अफसानानिगार मुंशी प्रेमचंद पर आधारित "तहरीर मुंशी प्रेमचंद की" जैसे नाटकों का लेखन और निर्देशन भी किया ये दोनों ही नाटक दूरदर्शन पर प्रसारित किये जाते थे। गुलज़ार साहब के लिखे गीतों को अनेक प्रसिद्द गायकों एवं गायिकाओं ने आवाज़ दी जैसे किशोर कुमार, लता ताई, आशा भोंसले आदि। भले ही गुलज़ार को ये दुनिया एक गीतकार के तौर पर अधिक जानती है मगर गुलज़ार स्वयं अपने आपको आज भी एक कवी मानते हैं। वे कहते हैं के "एक कवि के तौर पर मैं सोचता हूँ के मैं होशियारी से लिखता हूँ मगर मैं बौद्धिक आदमी नहीं हूँ" सामान्यतः गुलज़ार साहब उर्दू और पंजाबी में ही लिखते हैं मगर उनकी कुछ रचनाऐं हिंदी की विभिन्न बोलियों(ब्रज भाषा, खड़ी बोली, मारवाड़ी) में भी प्रकाशित की गई हैं। गुलज़ार साहब की कविताएं मुख्य तौर पर चार संकलनों में प्रकाशित की गई हैं जिनके नाम है- "प्लूटो", "चाँद पुखराज का", रात पश्मीने की" और "पंद्रह पांच पच्चत्तर"। उनकी लिखी कुछ कहानियाँ "राविपार" और "धुआं" नामक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। हिंदुस्तान ही नहीं अपितु पाकिस्तान भी गुलज़ार साहब के गानो, कविताओं और कहानियों का दीवाना है। उन्होंने एक पाकिस्तानी नाटक "शहरयार शहज़ादी" के लिए भी गीत लिखा था। आज के दौर में भी गुलज़ार साहब की किताबें जैसे सस्पेक्टेड पोएट्री, सिलेक्टेड पोएट्री, नेग्लेक्टेड पोएट्री, ग्रीन पोएट्री आदि  युवाओं के बीच बेहद प्रचलित हैं।


गुलज़ार साहब ने ग़ज़ल के सूरमा "जगजीत सिंह" के लिए कई ग़ज़लें भी लिखीं जैसे- मरासिम(1999) और "कोई बात चले(2006)"  बच्चों के मनपसंद टी.वी. कार्यक्रमों - "दी जंगल बुक", "ऐलिस इन वंडरलैंड", "हैलो ज़िन्दगी" आदि के लिए भी गुलज़ार साहब ने अनेक गीत व संवाद लिखे। गुलज़ार साहब ने बॉलीवुड अदाकारा और अभिनेत्री राखी मजूमदार से निकाह किया और कुछ ही वर्ष बाद राखी ने एक लड़की को जन्म दिया जिसका नाम रखा गया "मेघना", मेघना गुलज़ार। मेघना को पैदा हुए एक वर्ष ही हुआ था के गुलज़ार साहब और राखी अलग हो गए हालांकी दोनों ने कभी तलाक नहीं लिया। मेघना गुलज़ार(बोस्की)अपने पिता के साथ ही रहीं, उन्ही के सानिध्य एवं निगरानी में बड़ी हुई और आज वह एक जानी-मानी फिल्मकार  हैं।  2004 में मेघना गुलज़ार ने ही अपने पिता गुलज़ार की आत्मकथा लिखी थी।

Gulzar Sahab With His Daughter Meghna Gulzar

फ़िल्म जगत और साहित्य में अपने योगदान के लिए गुलज़ार साहब को 2004 में भारत के तीसरे श्रेष्ठ नागरिक सम्मान "पद्मभूषण" ने नवाज़ा गया। 2002 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। 81वें अकादमी अवार्ड्स में उन्हें फ़िल्म "जय हो" के गीत "जय हो" के लिए ऐ.आर. रेहमान के साथ "बेस्ट ओरिजीनल सांग" का खिताब मिला। इसी गाने के लिए उन्हें ग्रैमी अवार्ड भी प्राप्त हुआ। उन्होंने 20 से अधिक फ़िल्म फेयर अवार्ड और कई सारे राष्ट्रीय पुरस्कार भी हासिल किए। उन्हें 2013 में भारतीय फ़िल्म जगत के सबसे बड़े पुरूस्कार "दादा साहब फाल्के" अवार्ड से नवाज़ा गया साथ ही वर्ष 2013 में भारत सरकार ने उन्हें आसाम विश्वविद्यालय का चांसलर भी नियुक्त किया। ऐसी ही नजाने कितने सम्मान और पुरस्कार प्राप्त कर गुलज़ार साहब भारतीय फ़िल्म एवं साहित्य जगत के शीर्ष व्यक्तित्वों में शामिल हो चुके हैं।

Gulzar Sahab Receiving Padmbhushan From Dr. APJ Abdul Kalam

वे 83  वर्ष के हो चले हैं मगर आज भी उन्हें देखकर तन-मन में एक गज़ब की ऊर्जा का संचार हो जाता है। उन्हें देखकर लगता है मानो पूरी दुनिया खुश है। उनकें लिखे गीत एवं नज़्मे आईटीआई खूबसूरत और ऊर्जावान हैं के लोगों के ज़हन से कभी मिट नहीं सकतीं। वर्तमान समय में भी गुलज़ार साहब बतौर गीतकार भारतीय फ़िल्म जगत में मौजूद हैं और वास्तव में उनका कोई विकल्प भी नहीं। किसी ने सत्य ही कहा है के - "कुछ लोगों के अल्फ़ाज़ों की ताकत गज़ब होती है, दुनिया उनका चेहरा भुला सकती है मगर उनकी बातें नहीं"।

"यूँ तो हर गली में गुलज़ार मिलते हैं मेरे दोस्त मगर जो दिलों को महका दे वही असल गुलज़ार है।

-Prcinspirations

 यह लेख राइज़िंग लिटेरा पत्रिका के नवम्बर अंक में प्रकाशित किया गया.
इस लिंक पर उपलब्ध-


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