1880 के दशक में देश के छोटे से गांव लमही में जहां लोग अपने रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त थे, धनपत अपनी कलम से कुछ लिख रहा था। वो अक्सर एसा करता था। सबसे अलग जाकर एकांत में अपने भावों, अनुभवों और अनुभूतियों को कागज़ पर उतारना जैसे उसकी आदत थी और उसे यह कार्य करता देख उसकी आलोचना करना गांव वालों की। धनपत को लोगों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था अपितु वो उनके शब्दों व् उनके भावों को सुनकर अपने मन में एक ऐसी दुनिया बसाता था जहां के लोग तो काल्पनिक होते थे मगर उनकी हरकतें, उनकी आदतें, उनकी चाल-ढाल सबकुछ असल दुनिया जैसी होती थीं। उसके लेख, कहानियां, मज़मून पढ़ने वाला कोई न था मगर फिर भी वह लिखता था। किसके लिए? शायद अपने लिए, शायद अपने मन को शांत करने के लिए।
धनपत लिखता रहा रुका नहीं, थमा नहीं, निराश नहीं हुआ होता भी क्यूँ वो तो खुद के लिए लिखता था, उस कागज़ के लिए लिखता था जो एक दिन भी कलम के बगैर नहीं रह सकता था। कालान्तर में धनपत की कलम की धार तेज़ होती गई और उसके इर्द-गिर्द मौजूद लोगों को लगने भी लगी।
अब धनपत, धनपत नहीं मुंशी प्रेमचंद था, अब उसके आलोचक, आलोचक नहीं उसके अनुनायी थे। ये कहानी धनपत की नहीं अपितु समस्त लेखकों की कोम/बिरादरी की है। ये कल थी, आज है, कल भी होगी। हालिया वक़्त में यह संसार लेखकों और कवियों से भरा पड़ा है। यहां श्रृंगार रस का श्रृंगार करते, वीर रस को वीरता प्रदान करते और हास्य रस को हंसाते लेखक एवं कवि जगह-जगह विराजमान हैं।
सभी लेखन में लगे हुए हैं, मुद्दे तलाशने में लगे हुए हैं, कुछ बाहरी दुनिया को देख लिखते हैं, कुछ अंतर्मन में झाँक कर। यहां कोई भी धनपत नहीं मगर धनपत की ही तरह लेखन में व्यस्त। इनके पास भी आलोचकों की कमी नहीं अर्थात भविष्य में इनके पास भी सफलता की असीमित संभावनाएं हैं। निश्चित तौर पर एक लेखक एक पाठक के बगैर कुछ नहीं मगर इससे यदि एक लेखक लिखना छोड़ देगा तो क्या देश में अगला धनपत कभी आ पाएगा?
साहित्य तो लगातार, निरंतर बहने वाली प्रवाहमय धारा के समान है कोई बाध्य जलाशय नहीं। साहित्य की शुरुआत ढूंड पाना कठिन है और अंत तो मिलने से रहा। मेरे मत से लेखन सनातन धर्म की तरह है। इसलिए साहित्य सनातन है, शाश्वत है। इसका ना कोई आदि है और ना कोई अंत।
पाठकों की ज़रूरत हर लेखक को है मगर पाठकों को हर लेखक की आवश्यकता पड़े मुमकिन नहीं। बस हर लेखक को इतना स्मरण रखना होगा के लेखन स्वयं के लिए किया जाता है फ़िर अहिस्ता-अहिस्ता ही सही उसे पाठक अवश्य मिलते हैं। महान, जाने-माने ,प्रसिद्द लेखकों के बीच अपना अस्तित्व तलाशना मुश्किल होगा मगर तलाशना ही होगा। इस विचारविहीन संसार में विचारशील लेखकों के समक्ष अपनी विचारधारा को संप्रेषित करना कठिन होगा, मगर करना तो होगा।
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