Sunday 27 March 2022

तिवारी लॉज | बनारस | हिन्दी कहानी।


Image: Fizdi.com
Image: Fizdi.com

अपनी एक सप्ताह की काशी यात्रा के दौरान हम बनारस के गौदोलिया चौराहे से अस्सी घाट की ओर जाते मार्ग पर स्थित एक बंगला-नुमा लॉज - तिवारी लॉज में ठहरे। चारों ओर से फैली हुई और पुरानी सी दिखाई देने वाली ये लॉज, भीड़-भाड़ भरी सड़क से लगी हुई है। इसके विशाल दरवाज़े के उस पार है एक पेड़ों से भरा हुआ अहाता, अहाते में बना एक छोटा शिव मंदिर और शिव मन्दिर के पीछे एक हॉल जैसा एरिया। इस एरिया में आगे बढ़ने पर आते हैं दो कमरे, एक 24 बाई 7 टपकता नल, और उस नल के नीचे रखी बाल्टी, जो ऐसा लगता है मानों पानी बचाने के लिए नहीं, बल्कि "टिप टिप, टिप टिप" की आवाज़ का बैकग्राउंड स्कोर देने के लिए वहां रखी गई है। सामने, यानी जहाँ हॉल एरिया खत्म होता है - दो लकड़ी के टेबल रखे हुए हैं, और टेबलों के पीछे लकड़ी की एक कुर्सी। 

हॉल जैसे इस एरिये में कोई खिड़की नहीं है लेकिन फिर भी जब-जब बाहर हवा चलती है, अंदर भी उसकी गूँज सुनाई पड़ती है। एरिया तीन तरफ़ से बंद है, मगर ऊपर से पूरा खुला हुआ है। पूरा खुला मतलब इतना खुला कि दिन में सूरज और रात में चाँद एक न एक बार अपना चेहरा उस बाल्टी में देख कर जाते हैं, जो टपकते नल के नीचे रखी हुई है। लकड़ी के टेबल पर रखा हुआ है एक मोटा लाल रजिस्टर, जो किसी समृद्ध व्यापारी के बही-खाते सा दिखाई देता है। लाल रजिस्टर पर एक सफ़ेद पर्ची चिपकी हुई है। और पर्ची पर "तिवारी लॉज।" लिखा हुआ है। ठीक वैसे, जैसे लॉज के विशाल दरवाज़े पर टंगे हुए सफ़ेद बोर्ड पर लिखा है - "तिवारी लॉज।"

लकड़ी के टेबल, लकड़ी की कुर्सी, और टेबल पर रखे रजिस्टर के पीछे दो बैंगनी परदे झूलते हैं। दोनों एक दूसरे से कुछ पिनों के सहारे बंधे हुए हैं। शायद हॉल जैसे इस एरिया में एक खिड़की है - जो झूलते पर्दों के पीछे है

हॉल एरिया के बायीं तरफ़ से लोहे की एक सीढ़ी ऊपर को जाती है, और ऊपर कॉरिडोर में पहुँच कर रुक जाती है। सीढ़ी कोई भी हो - सीमित होती है। कॉरिडोर में कमरों की एक कतार है सभी कमरों पर दो पल्ले वाले दरवाज़ों का पहरा है। कमरों की इस कतार के आख़िर में है कमरा नम्बर - 106. 

अपनी काशी यात्रा के दौरान मैं और मेरा दोस्त इसी कमरे में ठहरे थे। और एक रात इसी कमरे के दरवाज़े पर करीब साढ़े बारह बजे एक भारी भरकम, ऊंची, और गाढ़ी आवाज़ ने दस्तक दी।

"सो गए क्या?"........किसी ने दरवाज़ा नहीं ख़टखटाया। "सो गए क्या?" के सवाल ने दरवाज़ा खटखटाया।

फिर कुछ देर तक कोई भी आवाज़ नहीं हुई।

दोस्त गहरी नींद में था। उसे कोई आवाज़ नहीं आई। मेरी नींद हमेशा सतही रही है, सो मुझे आवाज़ साफ़-साफ़ आ गई। मैं पलंग से उठा, अपनी चप्पल पहनी और घबराते हुए दरवाज़े के पास पहुंचा।

"सो रहे हैं, तो हम उठाने आए हैं।" बाहर ठहरी हुई आवाज़ फिर आई। इस बार किसी ने दरवाज़े पर टंगी साकल भी बजाई

"सो रहे हैं तो हम उठाने आए हैं। और अगर उठे हुए हैं, तो सुलाने आए हैं।" मैंने सोचा कि आगे ऐसा कोई डायलॉग आएगा। मगर नहीं आया।

खैर मैंने "जो होगा सो होगा।" का विचार अपने मन में बांधते हुए दरवाज़ा खोला। न-जाने क्यों मुझे अपने दोस्त को उठाने का ख़याल नहीं आया। मैंने जैसे ही दरवाज़े का एक पल्ला खोला, मेरे सामने सब कुछ धुँधला हो गया। मैंने धड़ाम से दरवाज़े को दोबारा बंद कर दिया, और अपने पलंग की तरफ़ भाग खड़ा हुआ।

दो दिन पहले इंदौर में अपनी यूनिवर्सिटी के इन्डियन कॉफ़ी हाउस, आई.सी.एच में चाय पीते हुए मैंने अपने एक दोस्त, जो आगे चलकर मुम्बई में मेरा रूम-मेट बना से कहा -

"भाई, बनारस चलते हैं"

"अचानक? कब? और क्यों?" उसने कहा।

"अरे! कल रात ही मैंने "मसान" देखी।" मैंने कहा।

इसके बाद दोस्त ने कुछ भी नहीं कहा। हम तत्काल में रिज़र्वेशन करवाने के लिए  इंदौर रेलवे स्टेशन पहुंच गए। जहाँ जीवन मे पहली बार मुझे मालूम चला कि रिज़र्वेशन के लिए अलग से ऑफिस भी होते हैं। हमारे शहर में तो स्टेशन पर ही सारा काम हो जाता है। प्लेटफ़ॉर्म नम्बर एक पर आम यात्री टिकट, और प्लेटफ़ॉर्म नंबर दो पर रिज़र्वेशन टिकट। बड़े शहरों में बहुत कुछ अलग से होता है।

ख़ैर! हम लोग रिज़र्वेशन ऑफिस पहुंचे और बनारस के लिए तत्काल टिकट का फॉर्म भर दिया। हमने आपस में तय किया था कि आगर तत्काल में मिल गया तो कल ही बनारस निकल जाएंगे। और अगर नहीं मिला तो ग्रेजुएशन से पहले साला जाएंगे ही नहीं। क्रांतिकारी सोच - मुझ में बाय बर्थ है। "तिवारी लॉज" से हमारा मिलना चित्रगुप्त जी पहले ही लिख चुके थे, सो डंके की चोट पर हमें रिज़र्वेशन मिल गया और हम इंदौर से बनारस पहुँच गए।

रास्ते में हमें कई तरह के लोग मिले। जैसे किसी भी भारतीय रेल यात्रा के दौरान मिलते हैं। एक आदमी, जिसे जौनपुर उतरना था हमें बनारस और उसके बाकी दो और नामों - वाराणसी, और काशी का इतिहास बताने भिड़ गया। पहले वो एक नाम का मतलब बताता और फिर अपनी ज्ञान-पुराण से उस नाम का इतिहास हमें समझाता। उसका ज्ञान छलक-छलक जाता, और हम उसे सुनते जाते। शहर के दो नामों - काशी और बनारस के बारे में विस्तार से बताने के बाद उसने ट्रेन में ही कुल्हड़ वाली चाय ली और उसे पी लेने के बाद वो तीसरे नाम वाराणसी की ओर बढ़ा। इससे पहले कि वो आगे कुछ कहता मैंने कह दिया - "सर! थोड़ा ज्ञान हम बनारस पहुंचकर ही ग्रहण करना चाहेंगे। वैसे भी आपका स्टेशन आने में है।"

फिर जौनपुर तक वो आदमी कुछ नहीं बोला। मगर जौनपुर स्टेशन आते ही वो फिर बोल पड़ा - "बनारस में कुल्हड़ वाली चाय ज़रूर पीना बाबू। कुल्हड़ का भी अपना इतिहास है वैसे। फिर कभी बताएँगे तुम लोगों को।" वो आदमी ट्रेन से उतर गया। हमने चैन की सांस ली ही थी कि वो आदमी ट्रेन की खिड़की में आ धमका - "ठगों से सावधान रहना।" उसने कहा और चला गया। उस दिन पहली बार मैं ज्ञान को जाता देख ख़ुश हुआ था।

लगभग एक घंटे बाद हम वाराणसी पहुँच गए। और स्टेशन पर उतरकर हमने तय किया कि - गंगा नहाएंगे, बीएचयू जाएंगे, काशी विश्वनाथ जाएंगे, शिव शंकर के आगे शीश नवाएँगे, पान खाएंगे, और उस ज्ञानी आदमी की सलाह अनुसार - कुल्हड़ वाली चाय पियेंगे। 

हमने ये सब कुछ करने का मन बनाया और स्टेशन से बाहर निकलकर शहर में कुछ दिन रुकने के लिए एक कमरा तलाशने लगे। बाहर हमें कुछ ऑटो, कुछ कैब, और न के बराबर भीड़ दिखाई दी। थोड़ा आगे चले तो एक चौराहे पर पहुंचे। इस चौराहे के एक तरफ़ रेलवे कॉलोनी थी, एक तरफ़ कुछ बड़े होटल दिखाई देते थे, एक तरफ़ बड़ा सा मॉल था और एक तरफ़ हम खड़े थे - थके हुए, हैरान, परेशान। ये वो बनारस नहीं था, जो हम घूमने आए थे।

चौराहे पर ही हमें एक अंकल दिखाई दिए, सो हमने उन्हीं से पूछा - "इधर रुकने के लिए कमरा कहाँ मिलेगा?"

"वो सामने है ना फाइव स्टार होटल, वहां मिलेगा।" अंकल ने कहा।

मैं उन अंकल को पूरे अपमान के साथ गाली बक देना चाहता था। लेकिन मैंने नहीं बकी। बहुत कुछ जो मैं करना चाहता हूं मैंने नहीं किया है। लाज शर्म लड़कियों का ही नहीं, हम जैसे कुछ फर्स्ट बेंचर लड़कों का भी गहना होती है।

मैंने गाली नहीं बकी, लेकिन मेरे दोस्त ने बक दी। और फिर हम वहां से नो दो ग्यारह हो गए। घंटों बाद हमें किसी सज्जन ने बताया कि हम प्लेटफ़ॉर्म नंबर चार तरफ़ उतर आए हैं। जबकि हमें एक नंबर प्लेटफ़ॉर्म की ओर उतरना था। उनकी बात अनुसार हम फिर स्टेशन पहुंचे और इस बार एक नम्बर प्लेट्फ़ॉर्म से बाहर निकले।

चारों तरफ़ लोगों की भीड़, रिक्शा और रिक्शा वालों की भारी तादाद, सामने से गुज़रती हुई सरकारी बसें, पीछे से आती हुई ट्रेनों की आवाज़, नाश्ता बेचते लोगों की पुकार, पूरी-सब्जी-जलेबी की दुकानें और यहाँ वहां टल्लाते पुलिस वाले। आह! ये है बनारस।
 
हमने सबसे पहले पूरी, सब्जी, जलेबी खाकर अपना पेट भरा और फिर कमरा तलाशने में जुट गए। हमें मालूम था की बनारस में स्टूडेंट्स का गढ़ "लंका" नाम का इलाका है, जो की बीएचयू के पास है। हमें यकीन था की लंका के आसपास हमें सस्ता कमरा मिल जाएगा। सो हमने एक रिक्शा वाले से लंका तक पहुँचने का रास्ता पूछा।

"आगे एक चौक से ऑटो मिल जाएगा बाबू। बैठ जाओ, छोड़ देता हूँ।" अधेड़ उम्र के उस रिक्शा वाले ने हमसे कहा।

"कितना दूर है ये चौक?" मैंने पूछा।

"अरे! बैठ जाओ, छोड़ देते हैं।" उसके पास हमारे सवालों के जवाब नहीं थे, वो तो बस अपनी स्क्रिप्ट के हिसाब से चल रहा था।

"चल बैठ जा भाई।" मेरे दोस्त ने कहा और रिक्शा पर चढ़ गया, मैं भी उसके साथ हो लिया और बनारस के सड़कों पर रिक्शा में सवार हम आगे बढ़ चले। इससे पहले कि हम सफ़र का फ़ील ले पाते, रिक्शा रुक गई।

"बस यहीं से ऑटो मिल जाएगा।" रिक्शा वाला रिक्शे से उतर गया।

"अबे! इतना तो पैदल ही आ जाते।" मैंने मन में कहा और उतर गया।

"चालीस रुपये दे दीजिये।" रिक्शे वाले ने सर पर गमछा बांधते हुए कहा।

"भाई! एक किलोमीटर भी नहीं चले हम, चालीस रूपए किस बात के?" मेरे दोस्त को स्वाभाविक रूप से गुस्सा आ गया

"अब यही रेट है बाबू।" रिक्शे वाले ने कहा और मुस्कुराया।

दोस्त आगे बहुत कुछ कहना चाहता था, मगर मैं वाकई उस रिक्शे वाले को बिना किसी बहस के चालीस रुपये दे देना चाहता था। और मैंने दे भी दिए। पैसे लेकर वो वापस रिक्शा पर बैठ गया और जाने लगा।

"अच्छा मूर्ख बनाया भाई।" मैंने उससे कहा। रिक्शे वाले ने कोई जवाब नहीं दिया और आगे बढ़ गया। उसके पास हमारे सवालों के जवाब नहीं थे, वो तो बस अपनी स्क्रिप्ट के हिसाब से चल रहा था।

एक किलोमीटर से भी कम की रिक्शा-यात्रा का रेट चालीस रूपय था, यानी हमारा फेट - मूर्ख बन जाना था। मुझे जौनपुर उतरे उस आदमी की बात याद हो आई - "ठगों से सावधान रहना।" उसने ट्रेन की खिड़की में मुंह डालते हुए कहा था।

घंटे भर बाद हम लंका पहुंचे और लंका से गौदोलिया। वहीँ से अस्सी घाट जाने वाले रास्ते पर हमें "तिवारी लॉज" दिखाई दी और वहां हमें एक सस्ता, काम चलाऊ कमरा मिल गया। वही कमरा जिसके दरवाज़े पर रात के करीब साढ़े बारह बजे एक भारी भरकम, ऊंची और गाढ़ी आवाज़ ने दस्तक दी।

तिवारी लॉज किसी पुश्तेनी बंगले की तरह दिखाई देती थी। उसका विशाल जंग खाया हुआ प्रवेश द्वार इस बात की गवाही देता था। लॉज की फैली हुई चौखट के उस तरफ़ सबकुछ इतना पुराना और ऐतिहासिक सा दिखाई देता था, जैसे मानों काशी विश्वनाथ मंदिर के बाद बनारस की सबसे प्राचीन इमारत - "तिवारी लॉज" ही हो। लॉज में आने-जाने वालों के लिए बड़े दरवाज़े में से एक छोटा दरवाज़ा खुलता था। बड़ा दरवाज़ा शायद बहुत वक़्त से नहीं खुला था। खुला तो खोलने वाले पर अपने इतिहास समेत गिर जाएगा ऐसा मालूम होता था।

हम लॉज के अन्दर घुसे, और सीधे वहाँ पहुँच गए जहाँ लकड़ी के दो टेबल, और उनके पीछे लकड़ी की एक कुर्सी रखी हुई थी। सामने कुर्सी पर कोई नहीं था। एक दुची हुई सलदार पीली शर्ट, और सिलेटी पैंट पहने हुए एक लगभग दादा हो चुका शख्स हमारे पीछे था। उसकी परछाई हमारे सामने कुर्सी पर थी। परछाई देख कर हम पलट गए। अब दादा हमारे सामने था।

"दद्दन! आप बाल्टी बदल दीजिये.....कब से ओवरफ्लो हो रही है....इन्हें हम देखते हैं।" दादा के पीछे से एक हट्टा-कट्टा नौजवान निकला। लगा जैसे पीछे से ही निकला हो। उसने दादा को 24 बाई 7 टपकने वाले नल के नीचे रखी बाल्टी बदलने को बोला, और फिर हमसे मुखातिब हुआ।

"जी बताएं।" उसने हमसे कहा।

"क्या बताना है?" मेरे दोस्त ने पूछा। मैं दादा को नल की ओर जाते हुए देख रहा था। वो एक पैर से लंगड़ा कर चल रहे थे।

"काम बताओ।" नौजवान ने कहा।

"काम? कौन सा काम?" दोस्त कन्फ्यूज्ड था। सुनसान हॉल में एक लगभग बूढ़े दादा को देखकर उसकी हालत पतली हो गई थी।

"काम नहीं, कमरा। कमरा चाहिए था।" मैंने नौजवान से कहा।

"तो लीजिये न।" वो लकड़ी की कुर्सी पर जाकर बैठ गया। सारी फोर्मेलिटी पूरी होने के बाद वो लोहे की सीढ़ी की तरफ हो लिया, और हम उसके पीछे हो लिए।

"ये लॉज हमारे दादा, दादा तिवारी ने शुरू की थी। शुरू क्या की थी, घर को ही लॉज बना दिया था....उसके बाद पापा तिवारी ने इसे चलाया, और अब हम, यानी बेटा तिवारी इसे चला रहे हैं।" हम सीढ़ी से होते हुए अपने कमरे की ओर जा रहे थे।

"लॉज है या कांग्रेस पार्टी।" मैंने सोचा। मैंने ये भी सोचा कि मैं बेटा तिवारी से पूछ लूँ - कि कहीं उसका नाम राहुल तो नहीं। सिर्फ़ सोचा, पूछा नहीं।

"दो बातें हैं - वो दद्दन हमारे दादा नहीं हैं। दादा तो गए बाबा भोले के पास। और पापा तिवारी अभी हैं। स्वास्थ ठीक नहीं रहता इसलिए सबकुछ हम संभाल रहे हैं....आप लोग फ्रेश हो लीजिये....रात को अगर मिले तो आपको बताएँगे तिवारी लॉज की हिस्ट्री।" हम अपने कमरे तक पहुँच गए। कमरा नम्बर - 106. और हमारे हाथ में कमरे की चाबी थमाकर बेटा तिवारी सीढ़ियों की ओर चल दिया। थोड़ा आगे बढ़कर वो फिर पलटा और हमारे पास आ कर बोला - "पानी का कोई टाइम नहीं है, हमेशा आएगा। हमारा टाइम है, हम अब सीधे रात 8 बजे के बाद ही मिलेंगे। कुछ चाहिए हो तो आवाज़ मत देना, सीधे नीचे जाना और दद्दन से मांग लेना। और सुनिए डरना नहीं, आप इस लॉज में अकेले ही हैं, दूसरा कोई गेस्ट है ही नहीं। वो अभी कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा है ना, इसलिए। बस उस तरफ़ हम और हमारा परिवार रहता है, और एक दो नौकर हैं।" बेटा तिवारी चला गया।

"ये लॉज है कि कांग्रेस पार्टी।" मेरे दोस्त ने कमरे में घुसते हुए कहा। कुछ बातें जो हम सिर्फ़ सोचते हैं, दूसरे कह डालते हैं।

हम ने पहले कमरे की थोड़ी साफ़ सफ़ाई की, अपने सामान को बाहर से अंदर रखा, उसके बाद नहाए-धोये और फिर लॉज से बाहर निकल गए। लम्बे सफ़र के बाद हम बनारस की कुल्हड़ वाली चाय पीना चाहते थे।

बनारस स्टेशन पर उतरकर हमने तय किया था कि हम - गंगा नहाएंगे, बीएचयू जाएंगे, काशी विश्वनाथ जाएंगे, शिव शंकर के आगे शीश नवाएँगे, पान खाएंगे, और जौनपुर उतरे उस ज्ञानी आदमी की सलाह अनुसार - कुल्हड़ वाली चाय पियेंगे। हम ने इस क्रम को उल्टे ऑर्डर में फॉलो करने का मन बनाया, और कुल्हड़ वाली चाय तलाशने लगे। 

तिवारी लॉज के आसपास कहीं पर भी हमें चाय की गुमठी, टपरी, या दुकान दिखाई नहीं दी। सो हम एक रिक्शे में बैठकर गौदोलिया चौराहे पर पहुँच गए और चाय ढूँढने लगे। बहुत छान-बीन, सर-फुटव्वल, खोज-परख के बाद भी हमें चाय नहीं मिली। और हम अपने कमरे पर सर-दर्द के साथ लौट आए।

हम हताश हो गए। दिल सेड हो गया, और माइंड फ्रस्ट्रेट। बैठे-बैठे क्या करें, करना है कुछ काम // शुरू करो Ranting अभी लेकर फेसबुक का नाम मोबाइल उठाया, फेसबुक खोला और "What's in your mind." को मिटाते हुए, चाय न मिलने के दुःख और गुस्से को तफ़सील से लिख दिया। और लिखे हुए में तिवारी लॉज को टैग कर दिया। 

"चला लो अब अपनी लॉज, तिवारी। हमारी हाय के साथ। हमें चाय नहीं मिली, अब तुम्हें चैन नहीं मिलेगा।"

शाम भर हमने रूम पर ही लेटे-बैठे फोन चलाया और इधर-उधर की बातें कीं हम कहीं बाहर हीं गए। और रात के लगभग बारह बजे चादर तान कर सो गए। यहाँ हम सोए और वहां बाहर ज़ोर की हवा चलने लगी। तिवारी लॉज के प्रवेश द्वार पर लगा टीन का बोर्ड लहराते हुए बजने लगा, शिव मन्दिर की घंटी गूंजने लगी, अहाते में लगे पेड़ हरहराने लगे, सदा टपकते नल के नीचे रखी बाल्टी चाँद के प्रतिबिम्ब(reflection) सहित गिर गई और उसमें भरा सारा पानी बह गया। हॉल एरिया में मौजूद दोनों कमरों के गेट हवा से उखड़ने लगे, परदे उड़ गए, और लोहे की सीढ़ियों पर पैरों की चाप सुनाई देने लगी। लकड़ी के टेबल पर रखा लाल रजिस्टर तेज़ हवा से खुल गया। और खुले हुए पन्ने पर सिर्फ़ दो गेस्ट्स की डिटेल्स दिखाई देने लगीं। डिटेल्स जिनके सामने लिखा हुआ था - कमरा नम्बर 106.

रात के क़रीब साढ़े बारह बजे, हमारे सो जाने के आधे घंटे बाद कमरा नम्बर 106 के दरवाज़े पर एक भारी भरकम, ऊंची, और गाढ़ी आवाज़ ने दस्तक दी। मैं पलंग से उतरा, अपनी चप्पल पहनी और घबराते हुए जैसे ही दरवाज़े का एक पल्ला खोला, मेरे सामने सब कुछ धुँधला हो गया। मैं ने धड़ाम से दरवाज़े को दोबारा बंद कर दिया, और अपने पलंग की तरफ़ भाग खड़ा हुआ। मैंने अपना चश्मा लगाया और फिर से दरवाज़े की ओर बढ़ा। इस सब के बीच मेरे दोस्त की नींद भी टूट गई। उसने अपने बैग में से अपना लैपटॉप उठा लिया। 28000 का लैपटॉप जाएगा मगर अनमोल जान तो बचेगी। बस फिर क्या था, मैंने झटके से दरवाज़ा खोल दिया

"चाय नहीं पियेंगे सर?" सामने बेटा तिवारी खड़ा था, और उसके पीछे दद्दन।  दद्दन के हाथ में ट्रे थी, और ट्रे में तीन कुल्हड़ रखे थे।

मेरा दोस्त बिना कुछ कहे अपने लैपटॉप बैग के पास गया, लैपटॉप को बैग में रखा, और फिर वापस आ कर एक कुल्हड़ उठा लिया उसने किसी से कुछ नहीं कहा, कोई गाली नहीं बकी। मगर मैंने, इस बार गाली बक दी।

"साले! रात के साढ़े बारह बजे चाय कौन लाता है?" मैं बेटा तिवारी पर झल्लाया।

"हम लाते हैं, उस साले के लिए जिसे बनारस में चाय नहीं मिली।" बेटा तिवारी हंस रहा था

उस रात साढ़े बारह बजे, बनारस की तिवारी लॉज के कमरा नम्बर 106 में कुल्हड़ वाली चाय पी गई और बेटा तिवारी से सुनी गई - तिवारी लॉज की हिस्ट्री। जैसा कि उसने पहले ही कहा था - "रात को अगर मिले तो आपको तिवारी लॉज की हिस्ट्री बताएँगे।" 

लॉज की हिस्ट्री समाप्त होते ही बेटा तिवारी ने हमें बनारस और उसके दो और नामों - काशी और वाराणसी का इतिहास बताने शुरू कर दिया।

"काशी और बनारस का तो हम जानते हैं। आप बस वाराणसी का बताइए।" मेरे दोस्त ने उबासी लेते हुए कहा।

इससे पहले कि बेटा तिवारी अपनी ज्ञान गंगा बहाना शुरू करता, मैंने उससे पूछ लिया - आपका कोई रिश्तेदार जौनपुर में रहता है क्या?..............

Keep Visiting!

2 comments:

  1. U.P se hain to bahut saare moments relatable lage Pradumn ji. Hasi bhi aayi aur vo pal bhi yaad aaye jab kabhi gussa aaya tha :)
    Rashmi N Bhalla 'Zafran'

    ReplyDelete
  2. Maulikta se bhara, khoobsurat aur "free-flowing" bhasha- bahut he kamaal ki kahaani hai!

    ReplyDelete

पूरे चाँद की Admirer || हिन्दी कहानी।

हम दोनों पहली बार मिल रहे थे। इससे पहले तक व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर बातचीत होती रही थी। हमारे बीच हुआ हर ऑनलाइन संवाद किसी न किसी मक़सद स...