Thursday, 6 May 2021

इक इंशा नाम का दीवाना।


यह लेख पद्मा सचदेव द्वारा सम्पादित और इब्न ए इंशा पर आधारित किताब "दरवाज़ा खुला रखना" की समीक्षा है.



"फ़र्ज़ करो हम अहल ए वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों, 
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों, अफ़साने हों।"

उर्दू अदब और शायरी के मैकशों ने, शौकीनों ने कभी न कभी यह सफात ज़रूर सुनी या पढ़ी होंगी। और हो सकता है कि इन्हें अपनी किसी कहानी, हिकायत, मज़मून या तकरीर में लिखा, पढ़ा, गुनगुनाया भी हो। 

यह पंक्तियाँ शेर मुहम्मद खान उर्फ़ इब्न ए इंशा की हैं। जिनका नाम पहली बार मैंने भोपाल स्थित बड़े तालाब के किनारे सुना था। इब्न ए इंशा से पहले मुझ तक उन की नज़्म "एक बार कहो तुम मेरी हो।" पहुँची थी। और फ़िर उसके बाद इंदौर में एक ढाबे पर मेरे एक दोस्त ने मुझे उनकी मशहूर नज़्म "सब माया है" सुनाई। 

इसके बाद इंदौर से ही मैंने यह किताब खरीदी जो कि असल में तीन खंडों में बंटी हुई चीज़ों का कंपाइलेशन है। पहले खण्ड में इंशा जी के यात्रा व्रतांत, यानी सफ़रनामें शाया किये गए हैं। यहां मालूमात हुई कि एक मुसन्निफ़, सुखनवर, अदीब या फनकार के लिए यात्राएं किस हद्द तक ज़रूरी हैं। इंशा जी के साथ मैं चीन से जापान, बरतानिया से अमरीका, इंडोनेशिया से हॉन्ग-कॉन्ग, सिंगापुर से जर्मनी और पाकिस्तान से अफ़ग़ानिस्तान तक घूम आया। कम पैसों में ज़्यादा कैसे घूमें यह इब्न ए इंशा बताते हैं। उनकी फाकामस्ती इस किताब में खूब नज़र आती है।

"उनकी गुदड़ी में न तांबा, पैसा, न मनके मालाएं।
प्रेम का कासा, रूप की भिक्षा, गीत ग़ज़ल दोहे कविताएं।"
 
दूसरे खण्ड में इब्न ए इंशा की कुछ चुनिंदा नज़्में पढ़ने को मिलती हैं। और आखिरी खण्ड में सम्पादक "पद्मा सचदेव" ने कुछ खत किताब में दिए हैं जो इंशा जी ने उन्हें लिखे थे। अपनी नज़्मों/ग़ज़लों के बारे में, अपनी लेखनी के बारे में खुद्दारी के भाव के साथ इंशा ख़ुद कहते हैं - 

"सीधे मन को आन दबोचें मीठी बातें सुंदर बोल,
मीर, नज़ीर, कबीर और इंशा सारा एक घराना हू।"

कविताओं और ग़ज़ल के अलावा इब्न ए इंशा ने कई मज़मून भी कहे हैं। और कमाल कहे हैं। ज़िया मोईउद्दिन की आवाज़ में इंशा के कुछ मज़मून रेख्ता नाम के यूट्यूब चैनल पर सुने जा सकते हैं उनकी कविताओं में बोलियों के रंग अपने उरूज़ पर नज़र आते हैं। और रूपक और उपमाएं अपने नए लिबास में उनकी नज़्मों में शरीक होते हैं

एक बानगी देखिये -  

"हमारे मन के अजंता में आओ
वो सूरतें तुमको दिखलाएं
वो मूरतें तुमको दिखलाएं
हम डूब गए जिनके दर्शन में।"

"अजंता की गुफाओं" का रूपक। ब-कमाल है ना? "वाह!" की दाद आप ही मुंह से निकलती है। इसके अलावा उनकी लेखनी में जोग, बिजोग, पीत, फागुन, बरखा, भादों, नीर, पर्वत आदि ठेठ हिंदी शब्द बड़े आराम से बैठे दिखते हैं। तहरीरों में रिदम के मामले में भी इब्न ए इंशा का कोई जवाब नहीं। 

मिसाल देख लीजिए -

"सीने से घटा उट्ठे, आंखों से झड़ी बरसे,
फागुन का नहीं बादल जो चार घड़ी बरसे
बरखा है ये भादों की बरसे तो बड़ी बरसे।
दरवाज़ा खुला रखना
दरवाज़ा खुला रखना।"

ग़ौरतलब है कि इस किताब का उनवान "दरवाज़ा खुला रखना" है। और इसकी सम्पादक पद्मदमा सचदेव, जो कि डोगरी, जम्मू कश्मीर से ताल्लुक रखती हैं ख़ुद एक जानी-मानी नज़्मकार हैं, और बीबीसी पर उनकी एक नज़्म "देश निकाला" सुनने के बाद इब्न ए इंशा ने ख़ुद पत्र लिखकर उनसे मिलने की इच्छा ज़ाहिर की थी। किताब के अनुसार वे लंदन में मिले और उन्होंने काफ़ी वक़्त साथ बिताया। उनके बीच हुई मुख्तलिफ मुलाकातों का नतीजा आज हमारे सामने इस किताब की शक़्ल में है।

जलन्धर में पैदा हुए इब्न ए इंशा का तकसीम के बाद पाकिस्तान जाना हुआ लेकिन उनकी रूह तो जैसे हमेशा जलन्धर की गलियों में रही। वे हमेशा से एक बार वहां लौटना चाहते थे। लेकिन लौट नहीं सके। और इस बात का दुःख उन्हें हमेशा रहा होगा। यही वजह है कि ता-उम्र दोस्तों और प्रषंसकों  से घिरे रहने वाले इंशा, सफ़लताओं और कामयाबी के तमाम आयाम छूने वाले इंशा ख़ुद ही ख़ुद के लिए लिखते हैं - 

"हमने तो किस्मत के दर से जब पाए अंधियारे पाए,
ये भी चाँद का सपना होगा कैसा चाँद कहाँ का चांद,

इंशा जी दुनिया वालों में बे-साथी, बे-दोस्त रहे
जैसे तारों के झुरमुट में तन्हा चाँद, अकेला चाँद।"

शेर मुहम्मद खान का इंतकाल 1978 में लंदन में हुआ। वे इस वक़्त अपनी लिखी तहरीरों को तरतीब से जमाने के काम में मसरूफ़ रहा करते थे। "सालों का काम मुझे दिनों में करना पड़ रहा है।" वे अक्सर कहते थे। शेर मुहम्मद खान नहीं रहे। पर इब्न ए इंशा थे, हैं और रहेंगे - कयामत की रोज़ तक। क्योंकि आज भी कहीं न कहीं है -

"इस बस्ती के इक कूचे में 
इक "इंशा" नाम का दीवाना।"


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