Tuesday 18 May 2021

माई नेम इस मंडेला।


निर्देशक मीरा नायर ने 1988 में "सलाम बॉम्बे।" रची और फिल्म में दिखाया कि किस तरह सिर्फ़ 500 रुपए कमाने शहर आया एक बच्चा कभी अपने गांव वापस नहीं लौट पाया। क्योंकि वह सालों-साल काम करने के बावजूद भी सिर्फ़ 500 रुपये नहीं कमा पाया था। शहर ने उसे सिर्फ़ एक नाम दिया। उसके शहरी जीवन का कुल जमा, उसकी कमाई - "चाय-पाव।"

बलराज साहनी ने "शम्भू" का किरदार निभाया और बिमल रॉय के ज़हन में चल रही उहापोह को सिनेमाई पर्दे पर "दो बीघा ज़मीन।" के नाम से 1953 में दर्शाया गया। अपनी ज़मीन बचाने के लिए बड़े शहर कलकत्ता गया शम्भू कभी उसे बचा नहीं सका। राहत इन्दोरी का शेर है - "कट चुकी है उम्र जिनकी पत्थर तोड़ते, अब तो उनके हाथों में कोहिनूर होना चाहिए."

तमिलनाडु के एक बेहद छोटे से गाँव सूरजकुडी के एक बे-नाम हज्जाम की कहानी कहते हुए लेखक-निर्देशक मैडोन अश्विन ने भारतीय वर्ण व्यवस्था और राजनीतिक वोट व्यवस्था के परखच्चे उड़ा कर रख दिये। फ़िल्म "स्वदेस" में जब गाँव वाले बिना बिजली के जश्न मनाते हैं तो विदेश से आया फिल्म का मुख्य किरदार "मोहन" उन्हें डाँटता है। वह कहता है कि - "आपको अँधेरे की आदत पड़ गयी है।" हम अपनों की ही बनाई ग़लत नीतियों से इस क़दर घिरे हैं कि हमें बार-बार "जो है, यही है।" का मंत्र जपना पड़ता है। फ़िल्म "मंडेला।" के सेन्ट्रल किरदार की परेशानी भी यही है। उसे मालूम ही नहीं, एहसास ही नहीं कि जो उसके साथ हो रहा है वह संवेधानिक और नैतिक, दोनों ही आधार पर सही नहीं है।

फ़िल्म में एक छोटा सा, जर-जर पोस्ट ऑफिस दिखाया गया है जहां कि एक अधिकारी की मदद से एक निचली जाती के अ-नाम नाई/बार्बर को अपनी पहचान, अपना वोटर आईडी मिलता है। "कैसा होता होगा एक पूरा जीवन बिना नाम के जीना" - मैं सोचता हूँ। "नेल्सन मंडेला।" नाम पाने के बाद वह व्यक्ति गाँव के वोटर्स मैप पर आ जाता है और फ़िर भारतीय गणतंत्र का तंत्र आउट ऑफ सर्विस हो जाता है। "एक आदमी, एक वोट।" की संवैधानिक शक्ति किस तरह मजबूरी और डर का सबब बन जाती है, इस फ़िल्म में हँसते-हँसते दिखाया गया है।

मंडेला को अपना नाम मिलने के साथ ही पोस्ट ऑफिस से एक पासबुक मिलती है। जो वही लाल कलर की, पीले निशान वाली पासबुक है जो आपके, मेरे, हम सभी के घर में है। जम्मू से लेकर केरल तक और गुजरात से लेकर बंगाल तक - भारतीय पोस्ट ऑफिसों की पासबुक एक समान है। रंग, धर्म, पंथ, जाती, राज्य, शहर, भाषा आदि की लकीरों से परे, निचले तबके के भारतीयों की समस्याएं एक हैं। और राजनीतिक एवं प्रशासनिक लोगों की नीचता भी हर जगह एक सी है। भारत - विविधता से परिपूर्ण, एक देश है। सिद्ध होता है।

दक्षिण में बन रहे मार्मिक और यथार्थवादी सिनेमा ने हमें पिछले कुछ दिनों में बहुत से पकवान चखाए हैं। पकवान, जिनकी लज़्ज़त ज़बान से जाते नहीं जाती। बहरहाल, आज भी हमारे बीच कई मंडेला, "सलून खोलने" जितने छोटे ख़्वाब लिए वो सबकुछ सह रहे हैं, जो उन्हें एक आज़ाद समाज, एक स्वतंत्र राष्ट्र में कतई नहीं सहना चाहिए। दक्षिण अफ़्रीकी नेता और दक्षिण अफ्रीका के तत्कालीन राष्ट्र्पति नेल्सन मंडेला, जिनके नाम के आधार पर इस फिल्म के सेन्ट्रल किरदार का नाम रखा गया है, की जीवनी का उनवान है - "A Long Walk to Freedom."

बकौल दुष्यंत कुमार -  भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ / आजकल संसद में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दा। गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नहीं / पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ।

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