“हाँ! अपने एक इवेंट में मैंने उन्हें बुलाया था. वे निर्णायक की भूमिका में थे और इवेंट के अंत में उन्होंने अपनी एक कविता भी सुनाई थी.” मैं अपने हाथ में रखे कागज़ देख रहा था.
“क्या थी वह?” उसने
पूछा.
“वह वाकई कविता थी.”
मैं हँस रहा था. अपनी इस हँसी में मैंने उसे शामिल करना ज़रूरी नहीं समझा.
“सुनाओ उसे.” वह
मेरी ओर मुड़ा.
“मुझे याद नहीं. पर हाँ उनकी कुछ दूसरी पंक्तियाँ तभी ज़ेहन में चली आई थीं जब उनका नाम तुम्हारी ज़बान पर आया था.” मैंने अपने हाथ में रखे कागज़ात का एक रोल बनाकर उन्हें अपने बगल में रख दिया.
“संसार की सबसे सुन्दर मधुमक्खियों ने अपने शहद से बनाए हैं तुम्हारे होंठ, संसार की सबसे मेहनतकश चीटियाँ उठाती हैं मेरी कामनाओं का बोझ” यह सुनाते हुए मैं अपने शरीर के उठे हुए रोंगटे महसूस कर पा रहा था.
“वाह!” उसने हल्के
से बुदबुदाया और फ़िर उस बड़े से हॉल में हम दोनों के साथ ख़ामोशी आ कर बैठ गई. हाँ!
वह सिर्फ़ आ कर खड़ी नहीं हुई, वह बैठ गई.
चार लम्बे दरीचों से
हॉल में आती धूप अब बाहर की और सरकने लगी थी सो उसने उठ कर अंदर लगी लाइट्स ऑन कर
दी.
“जब वह यहाँ आए थे तो उन्होंने हम से बहुत सारी बातें की थीं.” वह अब भी गीत चतुर्वेदी की बातें कर रहा था. ख़ामोशी पाँव घसीटते हुए हॉल से बाहर चली गई थी.
“उन्होंने मेरी बहन से कहा – आप ही का नाम झुमकेवाली है ना. बहुत नया और सुंदर नाम है.” वह कहते हुए हँस रहा था.
“दरअसल उन्होंने
मेरी बहन के इंस्टाग्राम यूज़र नेम को उसका असल नाम समझ लिया था.” हम सब उनकी इस
बात पर खूब हँसे थे.
“क्या वह बातचीत भी
ऐसे ही करते हैं?” मैंने चौंकते हुए पूछा.
“हाँ! मतलब यही उनकी
भाषा है.” उसने कहा.
मैं सर झुका कर उसकी
बात को अपने में उतारने लगा. और वह हॉल से बाहर दूसरे कमरे में चला गया.
“यही उनकी भाषा है.” पूरे हॉल में गूँज उठा और इस गूँज से मेरे भीतर एक विचार की कम्पन हुई. हमारी लिखने और बोलने की भाषा में कितना अंतर है, कितना फ़र्क है. और जब तक यह फ़र्क है, हर लेखन बनावटी है, हर कहानी बे-ईमान है, हर कविता झूठ है. हम उस ज़बान में लिखते नहीं, जिसमें बोलते हैं. और जिस तरह हम लिखते हैं उस तरह बात नहीं करते. पहले आए कई मौकों की तरह एक बार फ़िर मैं अपने छिछलेपन से मुखातिब था. और हर बार की तरह दो हाथों में अपना चेहरा छुपाए, आँख बंद कर बैठ गया था.
बाहर दिन ढल रहा था, और मेर अंदर कई विचार एक साथ उग रहे थे. क्या हम कभी हमारे इन दो किरदारों को एक कर सकेंगे? क्या हमारा लेखन, हमारा व्यवहार बन सकेगा? क्या हम कभी उस भाषा में लिख पाएँगे जिसमें हम बोलते हैं? या कभी उस ज़बान में बातचीत करना शुरू कर पाएँगे जिसमें हम लिखते हैं?
कहीं इन दो बातों के
एक होने तक का सफ़र ही तो लेखक होने तक का सफ़र नहीं है?
“हम ठीक सात बजे
शुरू करेंगे.” वह हॉल में वापस आ गया. वह अब एक लाल कुर्ते में था. और सात बजे
शुरू होने वाले कवि सम्मलेन के लिए तैयार था.
“तुम चाय पियोगे?”
उसने पूछा.
“मैं इसे सवाल ही
नहीं मानता. यह तो एक स्टेटमेंट होना चाहिए – तुम चाय पियोगे.” मैं अपनी जगह से उठ
खड़ा हुआ.
“ठीक है मैं ले आता
हूँ. तब तक शायद मुरली भैया भी आ जाएंगे.” वह हॉल से बाहर जाने लगा. और मैं भी
उसके पीछे बाहर दरवाज़े तक हो लिया.
जब वह चला गया तो मैं वापस वहीँ आकर बैठ गया जहाँ से मैं उठा था. कुछ जगहें ऐसी होती हैं जहाँ आप दिनों, हफ़्तों, महीनों या सालों तक ना भी जाएं तब भी वहां एक स्पेस आपके लिए हमेशा छूटा रहता है. वहां चाहे कितने ही लोग आ जाएँ, एक स्पेस आपके लिए हमेशा बढ़ ही जाता है. ठीक पुष्पक विमान की तरह, जिससे जुड़ी मान्यता यह कहती है कि उस विमान में हमेशा उसमें मौजूद लोगों के अलावा एक ओर शख्स के लिए जगह बची रहती थी. मैं घर और लेखन को ऐसी जगहों की कैटेगरी में रखता हूँ.
जिस जगह की यह कहानी है, वह जगह भी ऐसे स्थानों में से एक है. मैं यहाँ सालों के बाद किसी कवि-सम्मेलन का हिस्सा होने आया था और मुझे एक क्षण के लिए भी ऐसा नहीं लगा कि मैं यहाँ मेहमान हूँ. यूँ भी कवियों या शोरा की हर महफ़िल में वे ही मेजबान होते हैं. मेहमान तो उन्हें सुनने आए सामईन होते हैं.
मैं अपनी सोच के दायरे से बाहर आया तो मुझे खबर हुई कि बहुत से लोग हॉल में जमा हो गए हैं. कुछ मेरे सामने थे, कुछ मेरे इर्द-गिर्द और कुछ हॉल के बाहर कमरे में खड़े हुए थे. मैं सभी को एक-एक कर देख रहा था और सोच रहा था कि कोई जाना-पहचाना चेहरा नज़र आ जाए. पर ऐसा हुआ नहीं. कुछ देर बाद जो इकलौता पहचाना हुआ चेहरा दिखाई दिया वह उसी का था. वह मेरे पास आया, मुझे चाय थमाई और कहा कि मैं कवियों वाली जगह पर जाकर बैठ जाऊं.
“कवियों की जगह कहाँ है?” मैंने एक क्षण के लिए सोचा और फ़िर उठकर उस ओर चला पड़ा जहाँ एक दीवार से सटकर तीन बड़े कुशन रखे हुए थे. और उनके ठीक नीचे आसन बिछे हुए थे. यही कवियों की जगह थी – ज़मीन.
मैं चाय पीते हुए बीच वाले आसन पर बैठ गया. और अपने साथी कवियों का इंतज़ार करने लगा. अलग-अलग पिच और इंटेंसिटी वाली खुसर-फुसर मेरे कानों में लगातार पड़ रही थीं और चाय ख़त्म करने के बाद मैं अपनी कविताएँ याद करने में व्यस्त हो गया था.
“भैया, स्वागत है.” एक हाथ मेरे कंधे पर रखते हुए मुरली भैया मेरी एक ओर आ कर बैठ गए. वे अपने हल्के बैंगनी कुर्ते और सफ़ेद पजामे में वाकई एक साहित्यकार दिख रहे थे. और वास्तविकता में भी वह पेशे और शौक दोनों से साहित्यकार थे. कहानी, कविता की वर्कशॉप ले रहे थे और एक पत्रिका के सम्पादक का पद भी संभाल रहे थे. मुरली भैया की कविताएँ जैसी होती हैं, वैसी कविताओं को मैं “कोटेबल कविता” कहता हूँ. ऐसी रचनाओं में कहीं ना कहीं एक पंक्ति तो ऐसी होती है, जिसे मुहावरा बनाया जा सकता है. मेरी इस बात की एक बानगी नरेश सक्सेना की एक कविता “गिरना” है. इस कविता में कही गई इस बात को मैं मुहावरा कहूँगा – “चीज़ों के गिरने के नियम होते हैं. मनुष्यों के गिरने के कोई नियम नहीं होते.”
“आप जब यहाँ नहीं
थे, तब भी एक स्पेस आपके लिए यहाँ था.” मैंने मुरली भैया से हाथ मिलाते हुए कहा.
“ये पूरा स्पेस ही
हमारा है.” वे ज़ोर से हँसे.
मेरी फिलोसॉफ़ी की
धज्जियाँ उड़ गई थीं. और मैं मन ही मन मुस्कुरा रहा था.
मुरली भैया अपने मोबाइल में उन कविताओं को सॉर्ट करने में जुट गए, जिन्हें वे सुनाना चाहते थे और मैं वापस अपने कागज़ात में लौट गया. काग़ज़ों से देखकर कविताएँ पढ़ना तब से मेरा शगल रहा है, जब से मैंने लिखना शुरू किया था. अपनी ही लिखी कविताओं को याद करना, संसार के सबसे मुश्किल कामों में से एक है. याद करने बैठो तो मन करता है कि “क्यों ना पहले से एडिट कर लिया जाए.” और जैसे-तैसे हिफ्ज़ कर भी लो, तो मलाल सा होता है कि “ये क्या याद कर लिया, क्यों याद कर लिया.”
लगभग चालीस लोग अब
हॉल में इकट्ठे हो गए थे. और वह अपने लाल कुर्ते में मेरी दूसरी ओर आकर बैठ गया
था.
“आज बड़े दिनों बाद हमने ये बैठक बुलाई है. और इस बैठक में मैं और मेरे दो साथी आप सभी को, कुछ अपनी और कुछ अपने प्रीय कवियों की कविताएँ सुनाएंगे. उम्मीद है कि आप सब को आनंद आएगा और आप सब यहाँ से कुछ-ना-कुछ लेकर के जाएंगे.” उसने यह कहकर कविताओं के जश्न का आगाज़ किया, और शुरुआत में अपनी ही लिखी एक कविता पढ़ी.
उसके बाद मैंने अपने कुछ शेर पढ़े और गेंद मुरली भैया के पाले में डाल दी. मुरली भैया ने अपना कुर्ता सेट किया, मोबाइल को हाथ में ठीक तरह से जमाया और अपनी लिखी प्रेम कविताओं को वाचन शुरू कर दिया. सुनने वाले अब उस जादूई घेरे के भीतर थे, जिसका निर्माण कविताओं, कवियों के किस्सों, और कविताएँ पढ़ते हुए कवियों के चेहरे पर आने वाली मुस्कुराहटों से हुआ था.
मैं भी इस घेरे में था और हर प्रेम कविता में तुम्हें खड़े देख रहा था. पीले रंग का हर ज़िक्र मुझे उस दिन की याद दिला रहा था जिस दिन मैंने तुम्हें पीले रंग में देखा था, और नीले रंग के हर वर्णन पर मेरी आँखों के सामने वह तस्वीर बन जाती थी जिसमें तुम अर्श से फर्श तक नीले लिबास में हो. गुलाबी रंग तो खैर हर तरह से तुम्हारा है ही. और हरे की हर बात पर मैं उस बाग को देखता जिसमें तुम्हारे अलावा और कुछ हरा नहीं है.
कविताओं के बीच कुछ
पल, कुछ क्षण, कुछ लम्हों के लिए मुझे यह स्पष्ट विचार आया कि – “इस संसार के हर कवि की हर प्रेम-कविता तुम्हारे ही बारे में है.”
मुरली भैया के बाद फ़िर से मेरी बारी आई और मैंने इस दफ़ा विष्णु खरे, राजेश जोशी, अशोक चक्रधर, केदारनाथ सिंह, और विनोद कुमार शुक्ल की अपनी दिल-अज़ीज़ कविताएँ सुनाई. नज़्मों के कुछ और दौर चले और फ़िर मुरली भैया ने अंत में वह कविता पढ़ी जिसकी वजह से पूरी नाशिस्त अपने उरूज़ पर पहुँच गई. नरेश सक्सेना की लिखी “गिरना” –
चीज़ों के गिरने के
नियम होते हैं
मनुष्यों के गिरने
के कोई नियम नहीं होते
लेकिन चीज़ें कुछ भी
तय नहीं कर सकतीं
अपने गिरे के बारे
में
मनुष्य कर सकते हैं.
हॉल अब तक सुनने वालों से खचा-खच भर चुका था. लेकिन ख़ामोशी के लिए एक स्पेस वहां अब भी था, हमेशा से था. इस कविता के बाद, ख़ामोशी पैर पसार कर हॉल में बैठ गई. और लगभग पांच मिनिट तक बैठी रही.
“आप कुछ पढ़ते हैं. और कुछ पढ़कर, कुछ लिखते हैं. दोनों ही मामलों में आप साहित्य से ले रहे हैं और रिसीविंग एंड पर हैं. आज जब हमने आपको केदारनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, मंगलेश डबराल, नरेश सक्सेना, राजेश जोशी आदि की कविताएँ सुनाई तो इसके पीछे हमारा लक्ष्य ये था कि आज की इस बैठक के बाद कम से कम चार-पांच लोग इन कवियों को पढ़ें. और अगर ऐसा होता है, तो हमें लगेगा कि हमने साहित्य को कुछ दिया भी है, और हम थोड़े समय के लिए ही सही, गिविंग एंड पर पहुंच गए हैं.” मुरली भैया बहुत आराम से, सहज ही बोल रहे थे.
हम सबका ध्यान उन्हीं पर था कि अचानक बाहर के कमरे से अंदर(हॉल) में आता एक शख्स चौखट पर फिसल कर गिर गया. कुछ लोग उसे संभालने के लिए खड़े हो गए और बाकी मुरली भैया की ओर से ध्यान हटाकर गिरे हुए शख्स को उठते हुए देखने में मसरूफ हो गए.
“शायद! अंदर आते हुए, वह शख्स बाहर जाती ख़ामोशी से टकरा गया होगा.” मैंने अपने कागज़ात फोल्ड कर लिए. कवि सम्मेलन समाप्त हो चुका था.
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