Friday 26 March 2021

माँ, आलू और आदमियत।



बहुत से सूखते चिप्स के बीच बैठा हूँ. अपनी क्षमता की हद्द तक चलते पंखे और हवा से उड़ते चिप्स की आवाज़ मेरे कानों के आस-पास मंडरा रही है. मेरे आगे, पीछे, आगे के आगे और पीछे के पीछे चिप्स ही चिप्स हैं. एक बचकाना विचार यह लिखते समय आया है कि मेरे लैपटॉप के भीतर भी बहुत सी चिप्स हैं. गहरा लिखने का प्रयास करते हुए हमें ना-जाने कितने ही मासूम, सतही और भौंडे ख़याल आते हैं. पर हम उन्हें लिखने से बचते हैं. विचार जो आकर भी पन्नों पर नहीं उतरते, कहाँ जाते हैं? शायद वे हमारी क्रियाओं में जगह बना लेते हों, हमारे कर्मों में. शायद!

बीस किलो आलू की बोरियां मेरे ठीक सामने हैं. उनमें ठुसे आलूओं के चिप्स अभी बनने बाकी हैं. और “अब मुझसे बनता नहीं” कहते हुए माँ हर दिन लगभग 2-3 किलो आलू के चिप्स बना रही हैं. “मुझसे होता नहीं” कहने वाले लोग मैंने देखा है अक्सर बहुत कुछ कर जाते हैं. वे दरअसल अपनी सीमा इतनी नीचे तय करते हैं कि थोड़े से प्रयास से ही उस सीमा को पार कर जाते हैं और इससे उन्हें और करने की प्रेरणा मिलती है, आगे बढ़ने की उनकी इच्छा, चाह, आकांक्षा और मज़बूत होती चली जाती है.

माँ की यह मेहनत परिवार की अतिरिक्त आय के लिए है. यही वह कारण है जो उनके “अब मुझसे बनता नहीं” के ख़याल को रोज़ “चलो करती हूँ, मन लगा रहेगा” के विचार से रिप्लेस कर देता है. मैं आज तक माँ की ऐसी किसी कामना की खोज नहीं कर सका हूँ जिसमें किसी का कोई कनेक्शन ना हो. उनकी पूजा, अर्चना, हवन, पाठ, व्रत वगैराह भी परिवार के लिए होते हैं.

माँ में, माँ का सम्पूर्ण परिवार निहित है और इसलिए हार्दिक तौर पर किसी भी परिवार की हेड माँ ही होती है. मौखिक तौर पर हालाँकि कुछ भी कहा जा सकता है - जैसे कि "आदमी अपने परिवार का संरक्षक/पालक होता है."

चिप्स बनाने की प्रोसेस बहुत लम्बी नहीं पर हाँ लम्बी होती है. आलू छीलने से शुरू होकर यह प्रक्रिया, आलू धोने, उन्हें चिप्स के आकार में काटने, कटे हुए चिप्स को उबालने और फिर उन्हें सूखने डालने पर खत्म होती है. इन्हें ठंडे में तो निश्चित नहीं लेकिन कड़ी धूप में भी नहीं सुखाया जा सकता. चिप्स लड़ाकू नहीं होते, योद्धा नहीं होते. चिप्स अमीर खानदानों में पले-बढ़े लाडभेड़ों से होते हैं – ज़रा सी प्रतिकूल या कठिन परिस्थितियों में जल-भुन जाते हैं.

अगला वाक्य लिखते हुए कुछ देर ठहरा रहा. सोचा क्या इंसान के जीवन को चिप्स बनाने की प्रक्रिया से कम्पेयर कर सकता हूँ? क्या किसी तरह से अच्छे इंसान होने को एक परफेक्ट चिप्स होने से जोड़ सकता हूँ? जवाब नहीं में मिला. चिप्स तो चिप्स ही हैं, अतिरिक्त कुछ नहीं, और इंसान, इंसान हैं. दोनों की कोई तुलना नहीं है. इंसान चिप्स बना सकता है, और चिप्स इंसान को बना सकते हैं. यानी अगर कोई व्यापार जानने वाला व्यक्ति चिप्स का धंधा ढंग से करे तो मार्केट में पूछ बहुत है. इंसान हर चीज़ का धंधा करने को तैयार है सिवाय इन्सानियत के. यह एकमात्र बिज़नेस है जिसमें कहीं कोई फ़ायदा आदमी को नज़र नहीं आता. और आए भी क्यों – बाज़ार में इसका कोई भाव ही नहीं है. डिमांड नहीं है और इसलिए प्रोडक्शन नहीं है.

शायद! हम लिखने वालों को, कवि-ह्रदय पाए हुए लोगों को, संवेदनाओं की नदियाँ अपने भीतर समाहित कर रखने वाले, अति-इमानदार, समाजसेवी रचयताओं/कलाकारों को यह धंधा शुरू करना चाहिए. क्या पता “बिगिनर्स लक” चल जाए और हम बाज़ार में सबसे अच्छी क्वालिटी की इंसानियत, आदमियत से भी कम दाम पर बेचने लगें. इससे हम ना केवल अधिक से अधिक इंसान प्रोड्यूस करेंगे, बल्कि हम आदमियत की खपत को शून्य करने की दिशा में भी एक ऐतिहासिक कदम बढाएँगे. वाह! कितना अच्छा लगता है यह सबकुछ. सोचने में ही तन-मन आनंदित हो उठता है. रोंगटे ऐसे खड़े हो जाते हैं, जैसे सिनेमाघर में राष्ट्रगान बज उठा हो. तीव्र इच्छाओं और आशाओं का झरना फूट पड़ता है पर गिरने से पहले ही “लेकिन” का बांध उसे थाम लेता है. “लेकिन”, “किन्तु”, “परन्तु”, “पर”, “अगर”, “मगर” – इस सृष्टि के सबसे मज़बूत, टिकाऊ और कालजयी बाँध हैं. ये बड़े से बड़े वादों, इरादों, विचारों, हौंसलों, अपेक्षाओं की मट्टी पलीत कर सकते हैं.

“लेकिन” मेरा ध्यान मेरे घर में, मेरे ठीक सामने रखी बोरियों पर चला जाता है – जिनमें 20 किलो आलू भरे हुए हैं, इंसानियत नहीं. हमें जब तक बोरियों में भरी इंसानियत नहीं मिल जाती हम उसका धंधा शुरू नहीं कर सकते. क्योंकि हमारी स्टोर्ड इंसानियत भी शून्य है. सिर्फ एक यही ऐसी चीज़ है जिसके पूंजीपति(Capitalists) हमारे पास नहीं हैं.

खैर माँ आ गई हैं. बोरियां दोबारा खोली जा रही हैं. अब और चिप्स बनेंगे. चिप्स जिनकी इंसानों से कोई तुलना नहीं है. चिप्स ही चिप्स होंगे, चिप्स ही चिप्स!

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